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(पृष्ठ 170)
लय-योग का नाद-साधन वा शब्द-शक्ति-साधन-साधक नाड़ी शोधन तथा प्राणायाम की झंझट में न पड़कर नाद- साधन की विधि से ही आत्मलीन होने की कोशिश करे। वह मार्ग सबसे सरल, सुगम तथा विपद्शून्य है। इससे भी आसानी के साथ दिव्यज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । नाद-साधन लय-योग की एक क्रिया-मात्र है। सदाशिव ने एक लाख पचीस हजार प्रकार का लय-योग बताया है।
जैसे-
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष
लयावधानानि वसन्ति लोके ।
(योगतारावलि)
परन्तु योगिगण साधारणतः चार प्रकार के लय-योग का अभ्यास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-
शाम्भव्या चैव भ्रमर्या खेचर्या योनिमुद्रया ।
ध्यानं नादं रसानन्दं लयसिद्धिश्चितुर्विधा ।।
(घेरण्ड-संहिता)
‘‘शाम्भवी मुद्रा से ध्यान लगाना, खेचरी मुद्रा से रसास्वादन करना, भ्रामरी मुद्रा से नाद को सुनना और योनि मुद्रा से आनन्द-भोग करना- इन चार प्रकार के उपायों से ही लय-योग की सिद्धि होती है ।’’
लय-योग में नादानुसंधान और आत्म-ज्योति-दर्शन का काम बहुत सीधा तथा आराम से होनेवाला है । अगर साधक का मस्तिष्क कमजोर हो तथा उसे आँख की बीमारी हो, तो उसे आत्मज्योति-दर्शन का अभ्यास नहीं करना चाहिए । शास्त्र में लिखा है-
‘जपाच्छतगुणं ध्यानं । ध्यानाच्छतगुणं लयः ।।’
अर्थ-जप से ध्यान में सौ गुणा अधिक फल होता है। ध्यान की अपेक्षा सौ गुणा अधिक फल-लाभ होता है लय-योग से।
नाद-साधन ही सबसे सरल और विपद्शून्य मार्ग है। पहले झींगुर की झनझनाहट-जैसा या भृंगी-जैसा झीं-झीं शब्द सुनाई देगा। उसके बाद क्रमशः साधन करते-करते एक के बाद एक वंशी की तान, बादल का गर्जन, झाँझ की झनकार, भौंरे का गुंजार, घंटा, घड़ियाल, तुरही, करताल, मृदंग प्रभृति नाना प्रकार के बाजों के शब्द सुन पड़ेंगे । ऐसा ही रोज अभ्यास करते हुए नाना प्रकार की ध्वनियाँ सुनी जाती हैं, मैंने जो विधि बतलाई है, उसका शास्त्र में भी प्रमाण है-
नाभ्याधारो भवेत् षष्ठस्तत्र प्राणं समभ्यसेत् ।
स्वयमुत्पद्यते नादो नादतो मुक्तिरंततः ।।
(योगस्वरोदय)
नाद-साधन के सम्बन्ध में शास्त्र का कहना है-
आसीद्विन्दुस्ततो नादो नादाच्छक्तिसमुद्भवः ।
नादरूपा महेशानि चिद्रूपा परमा कला ।।
(वायवीय संहिता)
अर्थ-पहले विंदु, तब नाद और नाद से शक्ति उत्पन्न होती है । चैतन्य-रूपा परमा कला महेशानी (शिवा) नाद-रूपा है।
आदि प्रकृति देवी का नाम परा प्रकृति है । सुतरां परा प्रकृति आद्या शक्ति ही नाद-रूपा होती है ।
न नादेन विना ज्ञानं न नादेन विना शिवः ।
नादरूपं परं ज्योतिर्नादरूपी परो हरिः ।।
अर्थ-नाद के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है; नाद के बिना कल्याण नहीं हो सकता है; नाद ही श्रेष्ठ ज्योति-स्वरूप है और नाद-रूप ही हरि हैं । [लेखक ब्रह्मचारीजी महाराज ने इन श्लोकों का अर्थ नहीं लिखा था, इसलिए योगांक में अर्थ नहीं छपा है, यह अर्थ पं0 श्रीकमलाकांत उपाध्यायजी से करा कर छापा गया ।]
और भी देखिए-
नादाब्धेस्तु परं पारं न जानाति सरस्वती ।
अद्यापि मज्जनभयात् तुम्बं वहति वक्षसि ।।
अर्थ-नाद-रूपी समुद्र की सीमा का पार सरस्वती नहीं जानती हैं, इसीलिए आज भी डूबने के भय से हृदय के पास तुम्बे को धारण किए हुई हैं । [पिछले दोनों श्लोकों के अर्थ की तरह इस अर्थ के विषय में भी जानिए।]
इस नाद-ध्वनि की साधना करते-करते जो अन्त में ‘ॐकार’ ध्वनि सुनने में आती है, वह (ध्वनि) जबतक साधक जीवन धारण करता है, तबतक कभी बन्द नहीं होती । सदा सर्वावस्था में अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में भी नाद ध्वनि चलती ही रहती है ।
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