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(पृ0 103)
स्वामी श्रीरघुवराचार्यजी महाराज
उपनिषदों को सद्गुरु के मुख से श्रवण करके मनन करना चाहिये; क्योंकि इनमें बहुत ही गुह्य क्रियाओं का वर्णन है। उनका शुद्ध ज्ञान क्रियावान विद्वान गुरु के बिना नहीं हो सकता। अतः उपनिषदों के बारम्बार पठन करने पर भी गूढ़ाशय-परिज्ञान के लिए मर्मज्ञ की आवश्यकता रह ही जाती है । योग के प्रत्येक अंग के विषय में उपनिषदों में कहा गया है । कुछ उदाहरण यहाँ उपस्थित किए जाते हैं। नादविन्दूपनिषद् में नाद के स्वरूप को दिखाते हुए कहा गया है कि-
सर्वचिन्तां समुत्सृज्य सर्वचेष्टाविवर्जितः ।
नादमेवानुसंदध्यान्नादे चित्तं विलीयते ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति ।
‘‘सारी चिन्ता और सब काम छोड़कर नाद का ही अनुसंधान करे, इससे नाद में चित्त का लय हो जाता है और वह नादानुविद्ध चित्त अन्य किसी विषय की आकांक्षा नहीं करता ।’’ नाद ही ब्रह्म है। इसी में मन को लीन करना चाहिए। ध्यान- विन्दूपनिषद् में लिखा है कि-
यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
‘‘पर्वत के समान भी बहुयोजन-विस्तीर्ण पाप-राशि हो, तो वह सब ध्यान-योग से नष्ट हो जाती है, और कोई उपाय नहीं है ।’’ योगशिखोपनिषद् में तो योग-मार्ग का बहुत ही सुन्दर स्पष्टीकरण किया गया है। आरम्भ में हिरण्यगर्भ का श्री महेश्वर से यही प्रश्न है कि हे शंकर! इस दुःखमय संसार में सब जीव पड़े हैं और अपने कर्मों का सुख-दुःखात्मक फल भोग रहे हैं । इनकी मुक्ति किस सुगम उपाय से हो, यह कृपया बताइए। इसका श्री शंकरजी ने यही उत्तर दिया है कि कर्मबन्ध से मुक्त होने का उपाय कोई ज्ञान और कोई योग कहते हैं, परन्तु मेरा मत तो यह है कि-
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्जज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
‘‘योगहीन ज्ञान और ज्ञानहीन योग कभी भी मोक्षप्रद नहीं होता । इसलिए ज्ञान और योग, इन दोनों का ही मुमुक्षु को दृढ़ता के साथ अभ्यास करना चाहिए ।’’ इससे यही सिद्ध हुआ कि बन्ध-निवृत्ति के लिए साध्य-साधनभाव के योग और ज्ञान; इन दोनों को स्वीकार करना चाहिए ।
उपनिषदों का पूर्णतया मनन करने पर हम इसी निष्कर्ष पर आते हैं कि बिना यौगिक साधनों के हमारी पारमार्थिक प्रवृत्ति अधूरी ही रहती है । समस्त उपनिषदों में किसी-न-किसी रूप से योग का समर्थन करते हुए उसको उपादेय बताया है। ‘योग’ शब्द एक सामान्य शब्द है । वह विशेष पद के समीप होने से अनेक अर्थों का बोधक है । उपनिषदों में साधन रूप से ग्राह्य जो अनेक सिद्धांत हैं, उनको किसी-न-किसी रूप से योग कहा जा सकता है; जैसे-ज्ञान-योग, भक्ति-योग, मंत्र-योग, लय-योग, क्रिया-योग, ध्यान-योग, जप-योग और समाधि-योग आदि। योग-मार्ग ही भगवत्प्राप्ति का एक मार्ग है; क्योंकि यौगिक प्रक्रिया के अनुसार ही मनोनिरोध हो सकता है और इस प्रकार के साधनों में मन का स्थैर्य पूर्णतया अपेक्षित है । अतः उपनिषदों का तात्पर्य योगानुष्ठानपूर्वक ही मुक्ति की प्राप्ति से है । ऐसा कोई मार्ग मोक्ष-साधन का नहीं है, जिस मार्ग में योगांगों की आवश्यकता न पड़ती हो । इसलिए जिस प्रकार दूध में घृत समाया हुआ है और माता के उपदेशों में बालक का हित भरा हुआ है, उसी प्रकार उपनिषदों में योग समाया हुआ है ।
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