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पृष्ठ 54
नादानुसन्धान
जो अखण्ड नाद जगत के अन्तस्थल में आकाश-मण्डल में निरन्तर ध्वनित हो रहा है, उसे बद्ध जीव चित्त और प्राणों की विक्षिप्तता के कारण सुन नहीं पाता । परन्तु जिस समय गुरु-कृपा से क्रिया-विशेष के द्वारा सुषुम्ना-मार्ग उन्मुक्त होता है, उस समय प्राण स्थिर और सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होकर उसमें प्रविष्ट होते हैं और उस शून्य-पथ से अनाहत ध्वनि को श्रवण करता है । निरंतर इस ध्वनि का अनुसरण करते-करते मन क्रमशः निर्मल और शांत अवस्था को प्राप्त करता है । जब मन पूर्णरूपेण स्थिर हो जाता है, तब फिर नाद-ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती । उस समय चिदात्मक आत्मा अपने स्वरूप में स्थित होकर बाह्य प्रकृति के स्पर्श से मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।
नाद मूलतः एक होने पर भी औपाधिक सम्बन्ध के कारण विभिन्न स्तरों में विभक्त है । योगियों ने साधारणतः इस प्रकार के सात स्तरों का उल्लेख किया है । शास्त्र जिसको ओंकार अथवा प्रणव का स्वरूप कहते हैं, वही उपाधिरहित शब्द-तत्त्व है । वैयाकरणों ने तथा किसी-किसी प्राचीन साधक-सम्प्रदाय ने ‘स्फोट’ नाम से इसकी व्याख्या की है । यह स्फोट ही अखण्ड सत्तारूप ब्रह्म तत्त्व का वाचक है। अर्थात् इसी से ब्रह्म-भाव की स्फूर्ति होती है । प्रणव ईश्वर का वाचक है । इस बात का भी तात्पर्य यही है । वाचक स्फोट शब्दब्रह्म के रूप में और वाच्य सत्ता परब्रह्म के रूप में वर्णित है । अतएव एक तरह से ब्रह्म ही ब्रह्म का प्रकाशक है, यह कहा जा सकता है । स्वप्रकाश ब्रह्म अपने स्वरूप के अतिरिक्त और किसी पदार्थ के द्वारा प्रकाशित नहीं हो सकता-यह कहने की जरूरत नहीं। परन्तु स्फोट या शब्द तत्त्व जबतक जीव के लिए अव्यक्त रहता है, तबतक उसके द्वारा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसलिए योगी यथाविधि ध्वनि और नाद का अवलम्बन करके इसको अभिव्यक्त करते हैं । साधक का मन नाद के साथ युक्त होने पर अनायास परब्रह्म पद तक उठकर चिन्मय आकार धारण करता है और चैतन्य के अन्दर अपने आपको मिला देता है ।
हठयोग-प्रदीपिका, योग-तारावलि तथा अन्यान्य अनेक ग्रंथों में इस नादानुसन्धान का विस्तृत वर्णन मिलता है।
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