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पृ0 441
शाम्भवी-मन को आज्ञाचक्र में स्थिर करके दृष्टि को समतल (समअमस) में अधिक-से-अधिक दो हाथ और न्यून-से-न्यून एक बालिश्त के अन्तर से किसी मनोनीत पदार्थ की कल्पना में स्थिर रखकर स्थित करना । अथवा, चलते, फिरते, उठते, बैठते, सोते, जागते, काम करते अपने में अपना लक्ष्य रखके अलक्ष्य का लक्ष्य करना । इसके लिए किसी बाह्य उपकरण की सहायता की अपेक्षा नहीं । खाली बहिर्लक्ष्य का अन्तर्लक्ष्य होना ही काफी है।
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