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सुमिरन ऐसो कीजिये, पवन पानी न डोल ।
तीनों नयन मिलाइ दे, गुरु चरनन की ओर ।।
गुरु पद नख मनि पाइके, सुरति शब्द की ओर ।
‘सूर’ सेवक गुरु चरन का, अन्तर का पट खोल ।।
अन्तर पट जगमग मिले, त्रिकुटी माहिं इंजोर ।
सुन्न महल अजपा जपे, सार धुन्न अनमोल ।।
सार धुन्न सतलोक में, सत्तनाम सतधाम ।
सत्त पुरुष सतसाहेब, सूरत सो पहिचान ।।
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मन मगन भया तब क्या बोलै, बाहर नैना क्यों खोलै ।।धुआ।।
जैसे नीर थीर होय बैठे, पवनो नाहिं झिकोरै ।
वैसेहि थीर हमारा मन हो, अमृत रस को पी लै ।।1।।
चन्द सुरज नैना दुवो जोड़ै, सुन में हीरा अनमोलै ।
अगल बगल कहुँ दृष्टि न डोलै, चरन बिन्दु में नित झूलै ।।2।।
हीरा पावो गेठ लगाओ, मन की माया ना थोरै ।
गगन में अनहद बाजा बाजै, प्रेम मगन सूरत साजै ।।3।।
‘सूर’ सेवक घट गुरु-गुरु बोलै, अजपा जाप नहीं भूलै ।
गुरु की दया दृष्टि भाईजी, शब्द मो सुरतिया खेलै ।।4।।
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।। सत्संग-योग, द्वितीय भाग समाप्त ।।
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