स्वामी विवेकानन्दजी महाराज के वचन

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कलकत्ता-निवासी परमहंस रामकृष्ण देवजी के जगत-प्रसिद्ध शिष्य भक्त-शिरोमणि  स्वामी विवेकानन्दजी महाराज के वचन

विशाल ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ अथवा समष्टि महत् पहले अपने को नाम में और फिर रूप में अर्थात् इस दृश्यमान-दिखलाई देनेवाले जगत के रूप में प्रकट करते हैं। यह व्यक्त और इन्द्रिय-ग्राह्य जगत ही रूप है, इसकी ओट में अनन्त, अव्यक्त स्फोट है । स्फोट का अर्थ है-सम्पूर्ण जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म । समस्त नाम अर्थात् भाव का नित्य-समवायी उपादानस्वरूप नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस जगत की रचना करते हैं । केवल इतना ही नहीं, भगवान ने पहले अपने को स्फोट रूप में परिणत किया और फिर इस स्थूल दृश्यमान जगत के रूप में । इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द ॐ है । जब यत्न करने पर भी भाव से शब्द को अलग नहीं किया जा सकता, तब इस ओंकार और इस नित्य स्फोट में नित्य संबंध मिलता है । इसलिए यह बात बड़ी सरलता से समझी जा सकती है कि ओंकार रूप सम्पूर्ण नाम-रूप का जनक है, इसी पवित्रतम शब्द ॐ से जगत की रचना हुई है। यदि शंका करो कि शब्द और भाव में नित्य सम्बन्ध अवश्य है, पर एक भाव के प्रकट करनेवाले अनन्त शब्द हो सकते हैं। इसलिए सम्पूर्ण जगत की अभिव्यक्ति के कारण-स्वरूप, सब भावों को प्रकट करनेवाला केवल एक शब्द ओंकार ही है, यह कहना ठीक नहीं; तो उत्तर में कहा जा सकता है कि ओंकार ही इस प्रकार सर्वभावव्यापी वाचक शब्द है, और कोई शब्द इसके समान नहीं है । स्फोट सम्पूर्ण भावों का उपादान है, फिर भी वह कोई पूर्ण विकसित भाव नहीं है। यदि भिन्न-भिन्न भावों के परस्पर भेद को दूर कर दिया जाय, तो यही स्फोट ही शेष रहेगा और जब किसी वाचक शब्द द्वारा अव्यक्त स्फोट के प्रकाश करने की आवश्यकता होने पर वह उसे इतना विशिष्ट कर देता है कि फिर उसका स्फोटत्व ही नहीं रह जाता। ऐसी दशा में जिस शब्द द्वारा बहुत ही अल्प परिमाण में विशेष भावापन्न हो और जो यथासंभव उसके स्वरूप को प्रकाशित करे, वही उसका सबकी अपेक्षा प्रकृत वाचक है । ऐसा प्रकृत वाचक शब्द ओंकार-केवल ओंकार है; क्योंकि अ, उ, म् एक साथ ‘अउम्’ इस प्रकार उच्चारित होने से सब प्रकार के शब्दों के साधारण वाचक हो सकते हैं । ‘अ’ सभी में अन्य अक्षरों की अपेक्षा अल्प विशेषता रखनेवाला अक्षर है। इसलिए गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘‘मैं अक्षरों में अकार हूँ।’’ प्रत्येक स्पष्ट उच्चारण किया जानेवाला शब्द मुख में जिह्वा के मूल से लेकर होंठों तक स्पर्श करके बोला जाता है । ‘अ’ का उच्चारण कण्ठ से होता है। ‘म’ ओष्ठ्य शब्दों में अन्तिम अक्षर है और ‘उ’ जिह्वा मूल से आरम्भ होकर होंठों पर समाप्त होनेवाली शक्ति के पूर्ण भाव का द्योतक है । प्रकृत रूप से उच्चारित होने पर यह ओंकार सम्पूर्ण शब्दोच्चारण- व्यापार का सूचक है और किसी शब्द में यह शक्ति नहीं है । इसलिए ओंकार ही स्फोट का ठीक उपयोगी वाचक है और स्फोट ओंकार का प्रकृत वाच्य । वाचक और वाच्य अलग नहीं हो सकते । इसलिए ॐ और स्फोट एक ही पदार्थ है। स्फोट व्यक्त जगत का सूक्ष्मतम अंश है, ईश्वर का अत्यन्त निकटवर्ती और ईश्वरीय ज्ञान का प्रथम प्रकाश है, इसलिए ओंकार ईश्वर का प्रकृत वाचक है । जिस प्रकार एक, अखण्ड और सच्चिदानन्द ब्रह्म को अपूर्व जीवात्मा विशेष भाव और विशेष गुणवाले रूप में देखते हैं, उसी प्रकार साधक इस देहरूप जगत को भी मनोभाव के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप में पाते हैं।
(‘भक्तियोग’ का भारती अनुवाद-‘भक्ति’, प्रकाशक-हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, 126 हरिसन रोड, कलकत्ता)

हे नचिकेता! यह आत्मदर्शन-यह तत्त्वज्ञान बहुत ही कठिन विषय है । यह मार्ग बहुत विस्तृत है । निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचना कोई आसान काम नहीं । जिन्हें बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि मिली है, केवल वे ही उसका दर्शन कर पाते हैं, वे ही उसको समझते हैं। परन्तु इसमें निराश होने की बात नहीं है; उठो, जागो और कर्म-निरत होओ । जबतक लक्ष्य पर न पहुँच सको, अपने उद्योग में शिथिलता मत आने दो । तत्त्ववेत्ताओं का मत है कि यह मार्ग इतना कठिन है कि इस पर चलना क्षुरे की धार पर चलने के समान है । जो हर तरह की विषय-वासना, रूप, रस और स्पर्श से परे है, जो सदा समान अवस्था में रहता है, जो आदि-अन्त से रहित है, जो अभेद्य और अखण्ड्य है, साथ ही बुद्धि के द्वारा भी गम्य नहीं है, उसी को-केवल उस सर्व-नियन्ता को हृदयंगम करके मनुष्य मृत्यु के मुख से अपनी रक्षा कर पाता है ।

इस प्रकार यम ने नचिकेता को वह लक्ष्य-स्थान बतलाया, जिस पर पहुँचना मनुष्यमात्र का कर्त्तव्य है । यम के इन उपदेशमय वाक्यों से पहली बात जो हमें ज्ञात होती है, वह यह है कि जन्म, मृत्यु, दुःख, क्लेश तथा मन को चंचल करनेवाले अन्यान्य विषयों पर जिनका कि संसार में हमें सामना करना पड़ता है, सत्य का ज्ञान प्राप्त करने पर ही विजय मिल सकती है । सत्य क्या है? जो सदा एक रूप में ही रहता है, जिसमें कभी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। वह है मनुष्य की आत्मा।

बाद को यह बात बतलाई गई है कि उसे जानना आसान काम नहीं है। जानने का तात्पर्य केवल बौद्धिक ज्ञान से नहीं है । इसकी निष्पत्ति तो तभी हो पाती है, जबकि मनुष्य को सिद्धि मिल जाय । यह हम बार-बार पढ़ चुके हैं कि इस मोक्ष का हमें प्रत्यक्ष करना, अनुभव करना है। उसे हम नेत्रें से नहीं देख पाते। उसका प्रत्यक्ष अनुभव भी बहुत ही सूक्ष्म होता है। जिसके द्वारा दीवार तथा पुस्तकें आदि दृष्टिगोचर होती हैं, वह तो स्थूल है। परन्तु वह प्रत्यक्ष जिसके द्वारा सत्य की अनुभूति होती है, उसे बहुत सूक्ष्म होना चाहिए । और वही इस ज्ञान का सारा रहस्य है। इसके बाद यम कहते हैं कि मनुष्य को बहुत ही विशुद्ध होना चाहिए। यह विशुद्धता ही उस सर्व-नियन्ता की अनुभूति का मार्ग है। आगे चलकर वे हमें उस आत्मा-ब्रह्म की प्राप्ति के और मार्ग बतलाते हैं ।

वह स्वयंभू इन्द्रियों से बहुत दूर है । इन्द्रियाँ वह करण अर्थात् यंत्र हैं, जो बाह्य जगत को ही देखती हैं, परन्तु वह स्वयंभू आत्मा अन्तर्दृष्टि से ही देखा जाता है । तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि जिज्ञासु-इस तत्त्व के जानने की अभिलाषा रखनेवाले के लिए जो योग्यता अपेक्षित है, वह है दृष्टि को भीतर की ओर आकर्षित करके आत्मा को जानने की अभिलाषा। इस प्रकृति में हम जिन मनोहर वस्तुओं को देखते हैं, वे बहुत ही सुन्दर हैं। परन्तु उनकी ओर अवलोकन करना ईश्वर के दर्शन का मार्ग नहीं है । हमें यह सीखना चाहिए कि हम अपनी दृष्टि को किस प्रकार अन्तर्मुखी कर सकते हैं । नेत्रें की बाह्य जगत को देखने की अभिलाषा को निवृत्त कर देना चाहिए। जब आप किसी ऐसी सड़क पर, जिस पर कि भीड़-भाड़ अधिक होती है, चलते हैं, तो आपको अपने साथी की बातचीत सुनने में बड़ी कठिनाई पड़ती है । बात यह है कि उस सड़क पर जो इक्के-गाड़ियाँ चलती हैं, उनकी घड़घड़ाहट से वहाँ बड़ा कोलाहल मच जाता है । वहाँ इतना कोलाहल होता है कि आपका साथी भी आपकी बातें नहीं सुन पाता । बात यह है कि आपका मन दूर की बातों में लग जाता है और आप अपने पास के आदमी की बात नहीं सुन पाते । ठीक इसी प्रकार हमारे आस-पास जो संसार परिव्याप्त है, वह इतना कोलाहल करता है कि मन को बाहर की ओर खींच ले जाता है । तब भला हम आत्मा को कैसे देख सकें ? वह तो अन्तर्दृष्टि से परिदर्शित होता है । उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति रोक दी जानी चाहिए नेत्रें को अभ्यन्तर की ओर फेरने का यही तात्पर्य है। उनकी बहिर्भूत होने की प्रवृत्ति जब जाती रहेगी, तब उनमें केवल उस सर्वनियन्ता की ही महिमा परिलक्षित हो सकेगी ।

आत्मा क्या है? हम यह पढ़ चुके हैं कि यह बुद्धि से भी परे है । साथ ही, यह भी पढ़ चुके हैं कि यह आत्मा शाश्वत और सर्वव्यापी जीव है । आत्मा भी निर्लेप और निर्विकार है । उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। इस प्रकार विभु, सर्वव्यापी जीव केवल एक ही हो सकता है । ऐसे दो जीव नहीं हो सकते, जो कि समान रूप से ही सर्वव्यापक हो सकें । यह कैसे संभव है ? इस तरह की दो सत्ताएँ नहीं हो सकतीं, जो अनन्त हों । इस बात से यह परिणाम निकलता है कि वास्तव में एक ही आत्मा है और हम, आप तथा समस्त विश्व एक होते हुए भी अनेक रूपों में परिलक्षित होते हैं । जिस तरह एक ही अग्नि संसार में प्रवेश करके अपने आपको ही भिन्न-भिन्न मार्गों में व्यक्त करती है, ठीक वैसे ही यह आत्मा प्राणिमात्र की आत्मा होकर अपने आपको विविध आकारों में प्रदर्शित करती है । अब यह प्रश्न उदय होता है कि यदि यह आत्मा निर्दोष और विशुद्ध है और समस्त विश्व की एकमात्र सत्ता है, तो इसके किसी पापी और दुराचारी या धर्मिष्ठ और सदाचारी शरीर में प्रवेश करने पर इसकी क्या गति होती है? यह निर्विकार किस तरह रह सकती है?

प्राणिमात्र के नेत्रें में जो दृष्टि-शक्ति होती है, उसके एकमात्र कारण सूर्य हैं । किन्तु यदि किसी को नेत्र-दोष होता है, तो वह अपने उस दोष की छाया सूर्य पर डालने में समर्थ नहीं हो पाता । यदि किसी को पाण्डु रोग हो गया होता है, तो उसे सारी वस्तुएँ पीली-ही-पीली दृष्टिगोचर होती हैं । उस व्यक्ति की भी दृष्टि-शक्ति के कारण सूर्य ही हैं, किन्तु उसके नेत्रें में हर एक वस्तु को पीली देखने का जो गुण है, वह स़ूर्य को तो नहीं स्पर्श कर पाता । इसी तरह यह एकमात्र जीवात्मा प्रत्येक प्राणी के शरीर में व्याप्त रहकर भी बाहर की पवित्रता या अपवित्रता के संस्पर्श से बचा रहता है।

इस क्षणभंगुर संसार में जो उस सनातन को जानता है, इस अचेतन जगत में जो उस एक चेतन को समझता है, इस बहुत्वमय ब्रह्माण्ड में जो उस एक रूप को जानता है, और उसे अपने अन्तःकरण में देखता है, वही उस चिरन्तन परमानंद का अधिकारी होता है, दूसरा नहीं । जहाँ सूर्य नहीं प्रकाशित होते, चन्द्रमा, तारागण तथा विद्युत की भी प्रभा नहीं दिखाई पड़ती, फिर भला अग्निशिखा का पूछना ही क्या? उसके प्रकाशमान होने पर सभी वस्तुएँ प्रकाशमान होती हैं । जब मनुष्य के हृदय को क्लेश देनेवाली सभी अभिलाषाओं का अन्त हो जाता है, तब जरा-मरणशील प्राणी अमर हो जाता है। उस दशा में ही उसे ब्रह्म की प्राप्ति होती है । जब हृदय के सारे कल्मष विलीन हो जाते हैं, जब उसकी सारी ग्रन्थियाँ विनष्ट हो जाती हैं, केवल तभी यह जरा-मरणशील मानव अमर हो पाता है । यही उसके अमर होने, मुक्त होने का मार्ग है । इस विषय का अध्ययन हमें फलदायक हो! इस विषय का चिन्तन हमारे लिए फलदायक हो, यह हमारा भजन हो, यह हमारे शरीर का बल हो, हम एक-दूसरे को घृणा की दृष्टि से न देखें, सबलोग शान्तिपूर्वक निवास करें।
(‘मोक्ष का मार्ग’-भारती अनुवाद, प्रकाशक-आदर्श ग्रन्थमाला, दारागंज, प्रयाग)।

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