श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के वचन 

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जन्म-संवत् 1892 फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, बुधवार (7-2-1836 ई0) ।
देह-त्याग-संवत् 1943 भाद्र कृष्ण प्रतिपदा, रविवार (16-8-1886 ई0) ।

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ईश्वर - ईश्वर सबके अन्दर किस तरह रहता है, जानते हो ? अमीरों की स्त्रियाँ जैसे पर्दे के अन्दर रहा करती हैं । वे भीतर से सबको देख लेती हैं; पर उनको कोई नहीं देख पाता । ईश्वर भी ठीक इसी तरह रहता है ।

माया - साँप के मुँह में जहर रहता है। वह जहर उसपर असर नहीं करता; करता है औरों पर, जिनको वह काटता है। ईश्वर में माया रहती है, किन्तु वह ईश्वर को मोहित नहीं करती। करती है उन जीवों को, जिन पर ईश्वर की कृपा नहीं रहती।

जिसको भूत पकड़ता है, वह अगर जान सके कि उसे भूत ने पकड़ा है, तो भूत उसी वक्त छोड़कर भाग जाता है। माया में फँसा हुआ जीव भी यदि पहचान सके कि माया ने उसे फँसा रखा है, तो फौरन माया उसे छोड़कर भाग जाय ।

जीव - तकिए की खोल का-सा मनुष्य का हाल है । बाहर यह तकिया कोई काला होता है, कोई लाल होता है और कोई पीला । पर भीतर सबके वही एक ही रूई रहती है । मनुष्य भी बाहर से गोरा, काला, भला, बुरा सब तरह का होता है। परन्तु सभी के भीतर वही एक परमेश्वर विराजमान है ।

संसार और साधना - धनियों के घर की नौकरानी की तरह संसार में रहना सीखो । नौकरानी मुँह से तो हमेशा यही कहा करती है कि लड़के-बच्चे, घर-वार सब मेरे ही हैं, पर उसका मन जानता है कि मेरा वहाँ कुछ भी नहीं है; सभी मेरे मालिक के हैं । इसी तरह बाहर में सब काम अपना जानकर करते रहो, किन्तु मन से हमेशा जान रखो-तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है, सभी मालिक के हैं । उसका हुक्म होते ही सब छोड़कर चला जाना पड़ेगा । इसके सिवा काम में त्रुटि होने पर मालिक की धमकी का भी डर रहता है ।

बंगाल में बाउल नाम के एक सम्प्रदाय के साधु होते हैं। वे एक हाथ से तम्बूरा और दूसरे हाथ से करताल बजाते हैं और मुँह से गाना भी गाते हैं । इसी तरह ऐ संसारी जीव! तुम भी दोनों हाथों से संसार के सब काम करते जाओ और मुख से भगवान का नाम जपा करो; चुको मत ।
हाथ में तेल लगाकर कटहल काटना पड़ता है । नहीं तो हाथ में उसका दूध लग जाता है । इसी तरह हृदय को भगवद्भक्ति से तर करके संसार का काम करना चाहिए । नहीं तो हृदय में उसकी मैल लग जाएगी ।

साधना का अधिाकारी - मन का दियासलाई का-सा हाल है । सुखी दियासलाई सिर्फ एक बार घिसने से भक् करके जल उठती है, और भींगी रहने पर घिसते-घिसते टूट भी जाए, मगर जलती नहीं । विषय-वासनाहीन निर्मल मन में केवल एक बार उपदेश देने से ही ज्ञान और भक्ति का उदय होता है । और विषय-वासना में पड़े हुए मन में हजार बार उपदेश देने पर भी कुछ नहीं होता ।

मनुष्य का मन सरसों की पोटली-जैसा होता है। एक बार चारो तरफ बिखर जाने पर फिर बटोरना मुश्किल हो जाता है।

साधना - मन और मुख की एकता करनी, सच्ची साधना है । हम मुख से कहा करते हैं-‘‘हे भगवान! तुम ही मेरे सर्वस्व हो।’’ परन्तु, मन में विषयों को ही अपना सर्वस्व समझते हैं । ऐसे लोगों की साधनाएँ व्यर्थ हुआ करती हैं ।

मन में रत्तीभर भी विषय-वासना रहने पर भगवत्प्राप्ति नहीं होती है । सूत में छोटी-सी गिरह भी रहने पर उनमें सूई नहीं पिरोई जा सकती है । मन जब वासनारहित होकर शुद्ध होता है, तभी सच्चिदानंद प्राप्त होता है ।

पहले कुछ दिन तक एकान्त में बैठकर ध्यान करना सीखो । पूरा अभ्यास हो जाने पर फिर जहाँ-तहाँ बैठकर भी ध्यान कर सकोगे । पेड़ जब छोटा रहता है, तब उसको घेरा लगाकर रखना पड़ता है, नहीं तो गाय-बकरियाँ चर जायँ। जब वह पेड़ पूरा बढ़ जाता है, तब फिर उसमें दस-दस गाय-बकरियाँ बँधी रहने से भी उसका कुछ नहीं बिगड़ सकता ।

साधना में धीरज और उद्यम - सहन-शक्ति सबसे बड़ा गुण है । जो सहता है, उसकी बनती है और जो सहना नहीं जानता है, उसका सब कुछ बिगड़ जाता है ।

रत्नाकर (समुद्र) रत्नों से भरा हुआ है । एक बार डुबकी मारने से कुछ न मिलने पर भी तुम यह न समझ बैठना कि रत्नाकर रत्नहीन हो गया है। धीरज के साथ साधना करते रहो । समय आने पर भगवान की कृपा आप होगी।

धर्म के राज्य में सबको पुश्तैनी किसान बनकर रहना चाहिए । जो खानदान से खेती करते आया है, वह बारह वर्ष तक फसल नष्ट होते रहने पर भी खेती का काम नहीं छोड़ता। और जो वंश-परम्परा से किसान नहीं है-मुनाफे के लोभ में पड़कर खेती करता है, वह एक साल नुकसान होते ही खेती करना छोड़ बैठता है । सच्चे विश्वासी भक्त इस श्रेणी के नहीं होते । वे जिन्दगीभर ईश्वर के दर्शन न मिलने पर भी उसका भजन नहीं छोड़ते ।

ध्यान-ध्यान करना मन में, वन में और कोने में ।

कमफ़र्ल-पाप और पारा को कोई भी हजम नहीं कर सकता है । छिपाकर कोई पारा खाय, तो वह पारा उसका शरीर फोड़कर निकल आता है । इसी तरह पाप करने पर भी एक-न-एक दिन उसका फल भोगना ही पड़ेगा ।

रेशम के कीड़े जैसे अपने जाल में आप फँस जाते हैं, वैसे ही जीव भी अपने कर्मफल में आप फँस जाता है । विवेक और वैराग्य होने पर ही वह कर्मपाश कट सकता है ।

(शत वार्षिक ग्रन्थावली-श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव, माघ सन् 1342। प्रकाशक श्रीरामकृष्ण शत वार्षिक कमिटी श्रीरामकृष्ण मठ, पो0-बेलुड़, जिला-हावड़ा से उद्धृत) ।

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