सद्गुरु बाबा देवी साहब के वचन 

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[षट्-चक्र पर महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा व्याख्या-

योगियों ने इसका नाम आज्ञाचक्र भी रक्खा है, सो भी सही है; क्योंकि जो कोई इस चक्र पर अपने को पहुँचाकर रख सकता है, उसके लिए आगे बढ़ने का मार्ग खुल जाता है और अन्तर का जो सारशब्द पकड़ना चाहिए, सो पकड़ा जाता है । गोया उसको विशेष अन्दर आने की ईश्वर की ओर से आज्ञा मिल गई । पिंड में जो लोग रहते हैं, पिंड के घनघोर माया-आवरण में पड़े ही रहते हैं; परन्तु यहाँ जो नीचे पिंडी अन्धकार है, वही पिंडी अन्धकार और उसका मायिक शब्द उसको बहुत उलझाता है। आज्ञाचक्रवाला प्रकाश का शब्द जो मिल जाता है, वही सारशब्द ऊपर ले जाने का है । वह अभ्यासी अन्धकार मंडल-पिंडी आवरण से छूटता है । यह नहीं कि षट्चक्र के नीचे के वा कुछ दूर के ऊपर के वह मोटे शब्दों के झमेले में नहीं रहता है । सहस्त्रदल कमल के ऊपर त्रिकुटी को जो पार कर जाता है, वह नीचे बताए हुए मोटे शब्द के झमेले में नहीं रहता है । अभ्यासी को मुस्तैदी से ही अभ्यास करना बहुत जरूरी है । फिर तो आगे के शब्दों में निर्मलता मिलती जायगी और बढ़ते-बढ़ते बढ़ जाने पर ऋद्धि-सिद्धि के झमेले से छूट जाता है । सारशब्द की पहचान तब उसको हो जाती है । और वह अनाम पद तक पहुँच जाता है ।
अभ्यासी को सांसारिक राग-रागिनीवाले मीठे-से-मीठे तथा अद्भुत प्रभावशाली शब्दों में भी नहीं फँसना चाहिए।]

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घटरामायण की भूमिका से-

जीव के उद्धार का मार्ग हर एक मनुष्य के अन्तर में मौजूद है । जबतक कि कोई जीव इस पर न चलेगा, धर्म और पंथ का असली फल मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है और न अपने और दूसरे के धर्म की असली जड़ और सच्चाई को जान सकता है और न उन ग्रन्थों और पोथियों के मतलब को कि जो उसके धर्म और पन्थ के हैं, समझ सकता है, चाहे कैसा ही पंडित-मौलवी-पादरी हो कि जो ईश्वर या खुदा की बोली को समझ सकता हो । लेकिन पंथ और धर्म उसके नजदीक या तो एक खेल या तमाशा है या दुनिया में दंगा और फिसाद फैलाने का और भोले-भाले जीवों को धोखा देने का उमदा सिद्धांत है; क्योंकि हर मत की सच्चाई की जाँच जाँचने से मालूम हो सकती है, और जाँचने का थर्मामीटर ईश्वर या खुदा ने हर जीव अमीर, गरीब, पंडित, मौलवी, पादरी, ज्ञानी, अज्ञानी, पापी, पुण्यात्मा और ब्राह्मण, सैयद से लेकर भंगी, चमार, कसाई तक कुल के अन्तर में एक-सा रखा है; जबतक कि कोई मनुष्य इस पैमाने से कि जो खास उसके अन्तर में है, अपने आचार्य और अपने मत की सच्चाई और महिमा को नहीं जाँच सकता है, तो दूसरे के मत की सच्चाई और महिमा को क्योंकर जान सकता है।
यह थर्मामीटर या पैमाना अन्तरी मार्ग है और चौदह दर्जों में तकसीम हुआ है ।

सब दर्जों के नाम और भेद

01. अनाम = वह जो कुछ कि है समझ में आता है, लेकिन कहने में नहीं आता; क्योंकि यहाँ का जो कुछ हाल अभ्यासी की सुरत में पड़ता है, नम्बर तेरह तक जहाँ से कि बातचीत करने का शब्द शुरू होता है, नहीं पहुँचने पाता; क्योंकि उसको नीचे के मायावी स्थान खींच लेते हैं और उसको छिपा देते हैं, उसको अलौकिक कहते हैं और मालिक इसका अनाम है ।
02. अगम , अलख = यह दोनों नम्बर एक की तारीफ बतलाते हैं कि वह कैसा और क्या है ।
03. नाम = वह जगह, जहाँ कि सत्य का भण्डार है, जिसकी कि कुल दुनिया तारीफ करती है कि इसका नाश नहीं होता, इस जगह मोक्ष होता है-इसको सत्तलोक कहते हैं और इसका नाम सत्तनाम, सत्तपुरुष, सत्तगुरु, वाहगुरु, सत्तसाहिब संतों में बोला जाता है।
04. भँवर गुफा = वह जगह, जहाँ से कि रचना शुरू हुई और चेतन पर जड़ की लपेट चढ़ी। इसी जगह से जीव पर कारण की लपेट चढ़ी और नम्बर एक से चार तक का हाल इस जगह से सुरत में से निकलना शुरू हो जाता है और वह छिपे हुए चारो स्थान यह हैं, जो ऊपर बयान किये गये हैं ।
05. महासुन्न = भँवर गुफा की तारीफ बतलाते हैं, इस जगह निर्गुण निरंकार-अक्षर-कारण शुद्ध ब्रह्म है।
06. सुन्न (शून्य) = भँवर गुफा की तारीफ बतलाते हैं, इस जगह निर्गुण निरंकार-अक्षर-कारण शुद्ध ब्रह्म है।
07. त्रिकुटी = वह जगह, जहाँ से तीन गुण पैदा हुए और कारण पर सूक्ष्म की लपेट चढ़ी । इसे ब्रह्मलोक कहते हैं और मालिक इसका ओंकार है-परब्रह्म, परमेश्वर, अल्ला अकबर है । कुल आकाशी और आसमानी किताबों का यह बीज है (सूरज)।
08. सहस्त्रदल- कँवल = वह जगह, जहाँ से पाँच तत्त्व पैदा हुए और सूक्ष्म पर स्थूल की लपेट चढ़ी । कुल अच्छे-बुरे कर्मों का फैसला होकर जीव दुनिया को इसी जगह से लौटाया जाता है। मालिक इसका ओ3म्-ब्रह्म, ईश्वर, निरंजन है। (ज्योति)
09. षट्-चक्र = वह जगह, जहाँ पिंड-ब्रह्माण्ड दोनों की हद्द मिली है । इसको छठा चक्र इसलिए कहते हैं कि नीचे इसके पाँच चक्र और हैं, छठा यहाँ खतम हुआ है । मालिक इसका प्रणव-विन्दु, निजमन, नफसनातका, तीसरा नेत्र, शिवनेत्र, सुखमना, अकल्टाई, ईस्टर्न स्टार कहते हैं । (तारा, मणि, मोती, हीरा) ऊपर की तरफ चढ़ने और नीचे की तरफ उतरने की यह खिड़की है ।**
10. कंठ-चक्र = वह जगह, जहाँ विद्या तथा इल्म का प्रकाश होता है, मालिक इसकी सरस्वती है ।
11. हृदय-चक्र = वह जगह, जहाँ से कि नाश-शक्ति पैदा होती है और रूप में हर एक किस्म की काट-छाँट करती है। मालिक इसका महेश है ।
12. नाभि-चक्र = वह जगह, जहाँ से कि पालन करने की शक्ति पैदा होती है, जिससे कि रूप कायम होता है । मालिक इसका विष्णु है।
13. इंद्री-चक्र = वह जगह, जहाँ से कि रूप बनने की शक्ति पैदा होती है । मालिक इसका ब्रह्मा है।
14. गुदा-चक्र = वह जगह, जहाँ तीनों गुण और पाँच तत्त्व-पिंड, ब्रह्मांड की रचना सिद्ध करके इकट्ठे हुए और उसकी शक्तियाँ बाहर में इस दुनिया से बाँधी गईं, मालिक इसका गणेश है ।

जबतक कि जीव नम्बर आठवें से निकलकर चौथे दर्जे में नहीं पहुँचेगा, मोक्ष नहीं हो सकता । और न उसको स्वर्ग और बैकुण्ठ हो सकता है, जबतक कि नौवें दर्जे में न पहुँचे; क्योंकि कुल सामान स्वर्ग और बैकुण्ठ वगैरह के कि जो ग्रन्थों में लिखे हुए हैं, सब इसी जगह मौजूद हैं ।

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रामायण तुलसीकृत-
‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ की भूमिका
(सद्गुरु बाबा देवी साहब लिखित) से-

साधु और सन्त वह कहलाते हैं कि जो दुनियाँ में सीधी और सलामत रवी की चाल को अख्त्यार करते हैं और सुरत अर्थात् ख्याल से ध्यान करने का उपदेश करते हैं, जिसे चाहे बैठ के करो, चाहे लेट के करो, और न कोई मत-मतान्तर की बूझ होती है-वैदिकधर्मी, मुसलमान, ईसाई कुछ बने रहो, परन्तु दुनियाँ में दुःख-सुख भोगते हुए अन्तर में बिना अभ्यास किए एक दिन भी मत रहो।

इनका (साधु-संतों का) सबसे छोटा सिद्धान्त है, न तो अब तक वह संस्कृत, अरबी, फारसी, इबरानी में पाया जाता है और न उसने अभी तक किसी प्रेस या छापेखाने का मुँह देखा है। बल्कि उसकी नकल मनुष्यों के अन्दर पाई जाती है और वह चोदहे (यह पुस्तक हाथरस-निवासी संत सद्गुरु तुलसी साहब की बनाई हुई है, लोगों में ऐसा विख्यात है । इसको सद्गुरु बाबा देवी साहब ने तुलसी साहब के हाथरस स्थान से ही वहाँ की हस्तलिखित पुस्तक से नकल कराकर 1896 ई0 में छपवाया था।) सफों में लिखी हुई है । जबतक कि कोई अन्तर में अभ्यास न करे, तबतक न तो उसके अक्षर जान सकता है और न उसे पढ़ सकता है ।

सन्तों का आम उपदेश यह है कि अन्दर या बाहर जो कुछ कि निगाह में आता है, जहाँ तक कि रूप है, कुल मायावी और नाशवान है, और इनके बाद एक ऐसी जगह है कि न तो वह कभी पैदा हुई है और न कभी नाश होती है । यही सत्य है । इसका नाश नहीं होता । इसका न कुछ रंग है और न कुछ रूप है और न कोई खास नाम है; लेकिन यह कुछ है, जो ख्याल और समझ में आता है, इसलिए वह भी नाम के शब्द से बोले जाने का अधिकारी है । जीव इसका अंश है; क्योंकि इसका भी नाश नहीं होता। इसको उसमें मिलाने को सत्संग अन्तरी कहते हैं और बाहर में उस जगह को कहते हैं, जहाँ परमार्थी बातचीत करने को मनुष्य जमा होते हैं । इनके दस्तूर और कायदे के मुआफिक जो लोग अभ्यास करते हैं, उनको साधु कहते हैं, और जिन्होंने कि अपने को उस लोक में पहुँचाया है, जहाँ कि वह सत्य है, सन्त कहलाते हैं ।

सन्तों में अभ्यास करने के बहुत गुर (युक्ति) नहीं है, सिर्फ दो हैं-एक दृष्टि, दूसरा शब्द ।

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।। पुनः घटरामायण की भूमिका से ।।

(1) दृष्टि-साधन उसको कहते हैं कि जो आँख के साथ अभ्यास किया जाता है । इसके साधन करने के सैकड़ों गुर और अमल हैं कि जो भारतवर्ष और दूसरे मुल्कों में जारी हैं, लेकिन बाजे इनमें से ऐसे होते हैं कि जिनसे आँख के दोनों गोले टेढ़े पड़ जाते हैं । और बाजे ऐसे हैं कि जिनसे आँख जाती रहती है और बाजे कायदे ऐसे भी हैं कि जिनसे आँख की दोनों पुतलियों को, जिनमें से होकर रोशनी बाहर को निकलती है, खराब कर देते हैं, जिनसे फिर आँखों से धुँधला दिखाई पड़ता है और चाहे तमाम उमर हकीम, वैद्य, डॉक्टर इलाज करें, किसी तरह पुतलियाँ दुरुस्त नहीं होतीं । दृष्टि से अभ्यास करने का वह कायदा है, जिसको आँख और आँख के गोले से कुछ तआल्लुक नहीं है और न दृष्टि के मानी आँख और आँख के गोले के हैं, जिनसे कि वह नुकसान होते हैं, जो ऊपर बयान किये गये हैं ।

दृष्टि, निगाह को कहते हैं कि जो मांस और खून की बनी हुई नहीं है । मुनष्य में यह निगाह ऐसी बड़ी ताकतवर चीज है कि जिसने बड़े-बड़े छिपे हुए साइन्स और विद्याओं को निकालकर दुनियाँ में जाहिर किया है और सिद्धि वगैरह की असलियत और मसालों का पता जिससे कि वह हो सकती है, सिवाय इसके और किसी से नहीं लग सकता है । योग-विद्या के सीखने का दृष्टि पहिला कायदा है और इसके अभ्यास करने का गुर ऐसा उमदा है, जिससे स्थूल शरीर के किसी हिस्से को कुछ तकलीफ नहीं होती है और अभ्यासी इसके अभ्यास से उन निशानों को, जिनको कि ईश्वर या खुदा की आकाशी और आसमानी ग्रंथों और किताबों में सबसे बड़ा बतलाया है, जल्द पाकर मालूम कर लेता है और फिर तमाम दुनियाँ के सिद्धान्त और असूल अभ्यासी के रू-ब-रू हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि जो तमाम उमर पोथियों और ग्रंथों के पढ़ने और सुनने से हासिल नहीं होतेे । लेकिन दृष्टि सिर्फ उस जगह पहुँच सकती है, जहाँ तक कि रूप है और जहाँ से कि आवागमन हो सकता है, आगे उसके नहीं जा सकती, जहाँ कि रूप और रेखा कुछ नहीं है और जहाँ से कि मोक्ष होता है । सन्तों के मत में सबसे बड़ा पदार्थ मोक्ष है और उस जगह तक दृष्टि नहीं जा सकती। इसलिए शब्द का दूसरा कायदा वहाँ पहुँचने को उपदेश किया गया है ।

इल्म-योग में सबसे बड़ा सिद्धान्त मोक्ष पद पाने के लिए शब्दमार्ग है, जो बहुत-से नामों से बोला जाता है । बाजे महात्मा इसी शब्दमार्ग को धर्म और पंथ की बुनियाद डालकर इसका उपदेश करते हैं । और बाजे लोग इसके साइन्स और विद्या के नाम से कोई सुसाइटी वगैरह कायम करके उपदेश करते हैं, इसलिए धर्म और साइन्स दोनों की यह जान है-न तो कोई धर्म और पन्थ बिना इस सिद्धान्त के चल सकता है और न कोई साइन्स और विद्या, बिना इसके सहारे चल सकती है ।

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।। पुनः ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ की भूमिका से ।।

आवागमन से बचने को ही इनके (संतों के) मत का सबसे बड़ा फल है और इसी की बुनियाद पर इनके मत का उपदेश होता है ।

गिलासरी यानी कोश-(बाल का आदि और उत्तर का अन्त)

पृ0 58-59-सन्तमत में दुनियाँ अनादि नहीं मानते हैं । यह कभी पैदा हुई है और इसका कभी नाश भी होगा । जब कभी कि नाश यानी प्रलय या कयामत होगी तो उस जगह तक का नाश होना माना है, जहाँ तक कि कोई शकल या रूप है। मतलब यह कि जहाँ तक कोई लोक या कमल और ईश्वर या कमलों का कोई मालिक है-एक दिन सबका नाश होगा ।

पृ0 63-अणिमादिक-यह ईश्वरी निशान है कि जो अभ्यास-मार्ग में मालूम होते हैं। अन्तरी भेद जानने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है और अभ्यास बिना जाने गुर अर्थात् जतन के किसी तरह से नहीं हो सकता है और यह दो तरह से मालूम होता है । अव्वल तो गुरु की दया से और दूसरे अगले जन्म की कमाई से अपने आप मालूम हो जाता है और उसका सामान भी खुद-ब-खुद वैसा ही बन जाता है । लेकिन दोनों किस्म के लोगों को सत्संग की सख्त जरूरत होती है; क्योंकि उन भेदों को जिनको कि यह दोनों लोग अभ्यास-रीति से निकालते हैं, बिना सत्संग और गुरु के नहीं समझ सकते।
अबतक यह नहीं मालूम हुआ कि सबसे पहला वह कौन मनुष्य था, जिसने कि दुनियाँ में गुरु और गुर के असूल को कायम किया । अगर वह मनुष्य इस असूल को कायम न करता तो, न तो असली मालिक का पता लगता और न कोई इन्तजाम मुनासिब तरह से होता । धर्म और मतों में न पीर-पैगम्बर, औलिया-औतार-देवता, ऋषि और मुनि होते और न दुनियाँ की बादशाहत और राज का आज के दिन नाम सुना जाता और जितनी सभा और सोसाइटी के जो अब तक जारी हैं, पते को न होतीं और पुत्र को न कुछ पिता का ख्याल होता और न स्त्री अपने पति की हुक्मबरदार होती।

दुनियाँ की जितनी कारीगरी और सनद बी0 ए0, एम0 ए0, शास्त्री, हाफिज, मौलवी, सिविलियन-डॉक्टर, बढ़ई, चमार, कोली से लगाकर ईश्वर और उसका रास्ता, कुल गुरु के मोहताज हैं । जिन लोगों की दीनी और धर्म के जलसों में गुरु को नहीं माना जाता है, वे लोग हमेशह दंगा-फिसाद मचाते रहेंगे और जिन्दगीभर चक्कर में रहेंगे; क्योंकि न इसका कोई समझानेवाला है और न यह समझनेवाले हैं कि इन्होंने उस पवित्र और आकाशी सिद्धांत को नहीं माना, जिसको कि सबसे पहले मनुष्य ने कायम किया था।

पृ0 68-सतगुर-सत, सच्च को कहते हैं और गुर, अमल या भेद को कहते हैं, जिसके अभ्यास से जीव अनाम तक पहुँचता है । लेकिन यहाँ (वहाँ पर यह चौपाई है- ‘सतगुर वैद्य वचन विस्वासा । संयम यह न विषय कर आसा ।।’ श्रीरामचरितमानस में ‘सतगुर’ का शुद्ध पाठ ‘सतगुरु’ है।) उन सतगुर से मतलब है कि जो निहायत प्यार से उस शब्द और प्रकाशरूपी सतगुर के भेद को बतलाते हैं । इनका दर्जा सबसे बड़ा है । जबतक जीव इनको अपना हकीम न बनावेगा और इनके वचन पर प्रतीत न करेगा, अपने मतलब को नहीं पा सकता है ।
सत्संग बाहरी और अन्तरी-सत्संग बाहरी उसको कहते हैं, जिसमें कि अन्तरी भेद का सतगुरु उपदेश करते हों और सत्संग अन्तरी उसको कहते हैं, जिसमें कि जीव ब्रह्म, पारब्रह्म, अनाम वगैरह कुल का भेद मालूम हो ।

पृ0 69-अधिाकारी-जो लोग कि दुनियाँ के कामों में हर वक्त लगे रहते हैं और एक-दो घण्टे की भी फुर्सत नहीं निकाल सकते, वे अन्तर-भजन के अधिकारी नहीं हैं; क्योंकि अगर उनको अन्तरी भेद मालूम भी हो गया तो उनके किस काम का है।

सद्गुरु बाबा देवी साहब के परिनिर्वाणकालिक अन्तिम वचन, जबकि सत्संगियों ने उनसे साग्रह निवेदन किया था, ‘‘आप तो चले जा रहे हैं, हमलागों को कुछ उपदेश देने की कृपा की जाय ।’’ इस पर उन्होंने यह कहने की कृपा की थी, ‘‘दुनिया वहम है, अभ्यास करो ।’’

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