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पुष्कर निवासी स्वामी ब्रह्मानन्दजी रचित
‘ईश्वर-दर्शनम्’ नाम की पुस्तक से उद्धृत, तृतीयावृत्ति, संवत् 1980 वि0।
पृ0 47-विष्णु भगवान ने नारद मुनि को श्वेत दीप में विश्वरूप दिखलाया तो पीछे नारद को कहा कि हे नारद! यह जो तू मेरे अनेक प्रकार के रूप देखता है, सो यह केवल मैंने मेरी माया का विस्तार किया है ।
पृ0 210-न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन। इतरेण तु जीवति यस्मिन्नेतावुपाश्रिताविति।। श्रुति वचनात्।।
अर्थ-प्राण और अपान से कोई जीव नहीं जीता है; परन्तु दूसरे चेतन से ही सब जीव जीते हैं, जिसके आश्रय से प्राण और अपान चलते हैं ।
पृ0 214-215-विशेष रूप से चैतन्य का दो प्रकार का रूप होता है, तिनमें जो सर्व चराचर जगत में समान रूप से व्यापक है, उसको सामान्य चैतन्य कहते हैं और जो अन्तःकरण- उपाधि से मिला हुआ है, उसको विशेष चैतन्य कहते हैं। सो जैसे घट में स्थित भया आकाश, दूसरे घटाकाशों से भिन्न हो जावे है और जैसे दीपक पर आरूढ़ हुआ अग्नि दूसरे दीपकों वा समान व्यापक अग्नि से भिन्न होवे है, तैसे ही अन्तःकरण- उपाधियुक्त चैतन्य भी दूसरे सर्व जीवात्माओं से या ब्रह्म से भिन्न हो जाता है । सो जैसे एक घटाकाश के रजोधूमादि-युक्त होने से सभी घटाकाश रजोधूमादि युक्त करके नहीं होते हैं और जैसे एक दीपक के हिलने-चलने से वा धूम-धूलिवाले होने से सभी वैसे नहीं हो जाते, तैसे ही यहाँ जीवात्माओं की बाबत भी समझ लेना चाहिए अर्थात् व्यापक चैतन्य एक होने पर भी अन्तःकरण रूप उपाधि के भेद से परस्पर जीवात्माओं के भिन्न होने से सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष आदिकों का मिश्रितपन नहीं होवे है ।
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