जैन योगी आनन्दघनजी का शब्द 

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शब्द (पृ0 782)

अवधू क्या सोवै तन-मठ में, जाग विलोक न घट में ।। अवधू0।।
तन-मठ की परतीत न कीजै, ढाहि परे एक पल में ।
हलचल मेटि खबर ले घट की, चीन्हे रमता जल में ।। अवधू0।।
मठ में पंचभूत का वासा, सासा1 धूत2 खबीसा3।
छिन छिन तोरि चलन को चाहे, समझै न बौरा4 सीसा5 ।। अवधू0।।
सिर पर पंच बसे परमेसर, घट में सूच्छम बारी6।
आप अभ्यास लखे कोइ बिरला, निरखे ध्र्रू की तारी7।। अवधू0।।
आशा मारि आसन धरि बैठे, अजपा जाप जगावै ।
‘आनन्दघन’ चेतनमय मूरति, नाथ निरंजन पावै ।। अवधू0।।

(1) श्वास । (2) थरथराता हुआ । (3) भयंकर, दुष्ट । (4) पागल । (5) शीश, शीर्ष, सिर, सामना, अग्रभाग । (6) खिड़की । (7) ध्र्रुवतारा।


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