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[श्रीमद्भगवद्गीता-रहस्य से उद्धृत, विषय-प्रवेश]
पृ0 12-13-श्रीमदाद्य शंकराचार्य का जन्म संवत् 845 (शक 710) में हुआ था और बत्तीसवें वर्ष में उन्होंने गुहाप्रवेश किया (संवत् 845 से 877 [यह बात आजकल निश्चित हो चुकी है; परन्तु हमारे मत से श्रीमदाद्य शंकराचार्य का समय और भी इसके सौ वर्ष पूर्व समझना चाहिए । इसके आधार के लिए परिशिष्ट प्रकरण देखें।]) । श्रीशंकराचार्य बड़े भारी और अलौकिक विद्वान तथा ज्ञानी थे । उन्होंने अपनी दिव्य अलौकिक शक्ति से उस समय चारों ओर फैले हुए जैन और बौद्ध मतों का खण्डन करके अपना अद्वैत मत स्थापित किया ।
(1) मैं-तू यानी मनुष्य की आँख से दीखनेवाला सारा जगत अर्थात् सृष्टि के पदार्थों की अनेकता सत्य नहीं है । इन सबमें एक ही शुद्ध और नित्य परब्रह्म भरा है और उसी की माया से मनुष्य की इन्द्रियों को भिन्नता का भास हुआ करता है, (2) मनुष्य की आत्मा भी मूलतः परब्रह्मरूपी ही है, और (3) आत्मा और परब्रह्म की एकता का पूर्ण ज्ञान अर्थात् अनुभव सिद्ध पहचान हुए बिना कोई भी मोक्ष पा नहीं सकता । इसी को ‘अद्वैतवाद’ कहते हैं। पृ0 19 - यदि कहा जाय कि शंकराचार्य के समान महातत्त्वज्ञानी आजतक संसार में कोई भी नहीं हुआ है, तो भी अतिशयोक्ति न होगी ।
पृ0 15- शांकर सम्प्रदाय के लगभग ढाई सौ वर्ष बाद, श्री रामानुजाचार्य (जन्म- संवत् 1073) ने विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय चलाया। इस सम्प्रदाय का मत यह है कि शंकराचार्य का माया-मिथ्यात्ववाद और अद्वैत सिद्धान्त दोनों झूठ हैं । जीव, जगत और ईश्वर-ये तीन तत्त्व यद्यपि भिन्न हैं, तथापि जीव (चित्) और जगत् (अचित्)-ये दोनों एक ही ईश्वर के शरीर हैं, इसीलिए चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर एक ही है ।
पृष्ठ 15-16-रामानुज सम्प्रदाय के बाद एक तीसरा सम्प्रदाय निकला । उसका मत है कि परब्रह्म और जीव को कुछ अंशों में एक और कुछ अंशों में भिन्न मानना परस्पर विरुद्ध और असम्बद्ध बात है, इसलिए दोनों को सदैव भिन्न मानना चाहिए; क्योंकि इन दोनों में पूर्ण अथवा अपूर्ण रीति से भी एकता नहीं हो सकती । इस तीसरे सम्प्रदाय को द्वैत सम्प्रदाय कहते हैं । इस सम्प्रदाय के लोगों का कहना है कि इसके प्रवर्त्तक श्री मध्वाचार्य
(श्रीमदानंद तीर्थ) थे, जो संवत् 1255 में समाधिस्थ हुए और उस समय उनकी अवस्था 79 वर्ष की थी । चौथा सम्प्रदाय श्री वल्लभाचार्य (जन्म-संवत् 1536) का है । रामानुजीय और माध्व सम्प्रदायों के समान ही यह सम्प्रदाय भी वैष्णवपंथी है। परन्तु जीव, जगत् और ईश्वर के सम्बन्ध में इस सम्प्रदाय का मत विशिष्टाद्वैत और द्वैत मतों से भिन्न है । यह पंथ इस मत को मानता है कि माया-रहित शुद्ध जीव और परब्रह्म एक ही वस्तु है-दो नहीं । इसलिए इसको ‘शुद्धाद्वैती’ सम्प्रदाय कहते हैं । तथापि वह श्रीशंकराचार्य के समान इस बात को नहीं मानता कि जीव और ब्रह्म एक ही है, और इसके सिद्धान्त कुछ ऐसे हैं-जैसे, जीव अग्नि की चिनगारी के समान ईश्वर का अंश है, मायात्मक जगत मिथ्या नहीं है, माया परमेश्वर की इच्छा से विभक्त हुई एक शक्ति है, मायाधीन जीव को बिना ईश्वर की कृपा के मोक्षज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन भगवद्भक्ति ही है-जिनसे यह सम्प्रदाय शांकर सम्प्रदाय से भी भिन्न हो गया है । इस मार्गवाले परमेश्वर के अनुग्रह को ‘पुष्टि’ और ‘पोषण’ भी कहते हैं, जिससे यह पंथ ‘पुष्टि-मार्ग’ भी कहलाता है।
उपर्युक्त सम्प्रदायों के अतिरिक्त निम्बार्क का चलाया हुआ एक और वैष्णव सम्प्रदाय है, जिसमें राधा-कृष्ण की भक्ति कही गई है । डॉक्टर भांडारकर ने निश्चय किया है कि ये आचार्य, रामानुज के बाद और मध्वाचार्य के पहले, करीब संवत् 1219 के, हुए थे । जीव, जगत और ईश्वर के सम्बन्ध में निम्बार्काचार्य का यह मत है कि यद्यपि ये तीनों भिन्न हैं, तथापि जीव और जगत का व्यापार तथा अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर अवलम्बित है-स्वतंत्र नहीं है-और परमेश्वर में ही जीव और जगत के सूक्ष्म तत्त्व रहते हैं । रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत पंथ से इस सम्प्रदाय को अलग करने के लिए इसे ‘द्वैताद्वैती’ सम्प्रदाय कह सकेंगे ।
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अध्यात्म
पृ0 204-भगवान ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखाया है, वही नारद को भी दिखलाया था । इसका वर्णन महाभारत के शान्ति-पर्वान्तर्गत नारायणीय प्रकरण (शां0 339) में है । नारद को हजारों नेत्रें, रंगों तथा अन्य दृश्य गुणों का विश्वरूप दिखलाकर भगवान ने कहा-‘‘तुम मेरा जो रूप देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है, इससे तुम यह न समझो कि मैं सर्वभूतों के गुणों से युक्त हूँ ।’’ ‘‘मेरा सच्चा स्वरूप सर्वव्यापी, अव्यक्त और नित्य है, उसे सिद्ध पुरुष पहचानते हैं ।’’ (शां0 336, 44, 48)। इससे कहना पड़ता है कि गीता में वर्णित भगवान का अर्जुन को दिखलाया हुआ विश्वरूप भी मायिक ही था । सारांश, उपर्युक्त विवेचन से इस विषय में कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता कि गीता का यही सिद्धांत होना चाहिए-कि यद्यपि केवल उपासना के लिए व्यक्त स्वरूप की प्रशंसा गीता में भगवान ने की है, तथापि परमेश्वर का श्रेष्ठ स्वरूप अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर ही है, और उस अव्यक्त से व्यक्त होना ही उसकी माया है, और इस माया से पार होकर जबतक मनुष्य को परमात्मा के शुद्ध तथा अव्यक्त रूप का ज्ञान न हो, तबतक उसे मोक्ष नहीं मिल सकता।
पृ0 207-ब्रह्म सत् भी नहीं और असत् भी नहीं (ऋ० 10, 9, 29, 1), अथवा ‘अणोरणीयान्महतो महीयान’ अर्थात् अणु से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा है । (कठ0 2-20)
पृ0 209-यह कहना मानो अध्यात्मशास्त्र की ही जड़ काटना है कि सब संकल्पों का दाता अव्यक्त परमेश्वर तो यथार्थ में सगुण है और उपनिषदों में या गीता में निर्गुण स्वरूप का जो वर्णन किया गया है, वह केवल अतिशयोक्ति या प्रशंसा है । जिन बड़े-बड़े महात्माओं-ऋषियों ने एकाग्र मन करके सूक्ष्म तथा शान्त विचारों से यह सिद्धान्त ढूँढ़ निकाला कि ‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’’ (तै0 2-9)-मन को भी जो दुर्गम है और वाणी भी जिसका वर्णन नहीं कर सकती, वही अन्तिम ब्रह्मस्वरूप है-उनके आत्मानुभव को अतिशयोक्ति कैसे कहें! केवल एक साधारण मनुष्य अपने क्षुद्र मन में यदि अनन्त निर्गुण ब्रह्म को ग्रहण नहीं कर सकता, इसलिए यह कहना कि सच्चा ब्रह्म सगुण ही है, मानो सूर्य की अपेक्षा अपने छोटे-से दीपक को श्रेष्ठ बतलाना है । हाँ, यदि निर्गुण रूप की उपपत्ति उपनिषदों में और गीता में न दी गई होती, तो बात ही दूसरी थी, परन्तु यथार्थ में वैसा नहीं है ।
पृ0 211-प्रकृति और पुरुष के भी परे जाकर उपनिषत्कारों ने यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि सच्चिदानंद ब्रह्म से भी श्रेष्ठ श्रेणी का ‘निर्गुण’ ब्रह्म ही जगत का मूल है ।
पृ0 219-छान्दोग्य (6-1 और 7-1), बृहदारण्यक (1-6-3), मुण्डक (3-2-8) और प्रश्न (6-5) आदि उपनिषदों में बारम्बार बतलाया गया है कि नित्य बदलते रहनेवाले अर्थात् नाशवान नाम-रूप सत्य नहीं है, जिसे सत्य अर्थात् नित्य, स्थिर तत्त्व देखना हो, उसे अपनी दृष्टि को इन नाम-रूपों से बहुत आगे पहुँचाना चाहिए । इसी नाम-रूपों को कठ0 (2-5) और मुण्डक (1-2-9) आदि उपनिषदों में ‘अविद्या’ तथा श्वेताश्वतर उपनिषद् (4-10) में ‘माया’ कहा है ।
पृ0 220-जगत के आरम्भ में जो कुछ था, वह बिना नाम-रूप का था, अर्थात् निर्गुण और अव्यक्त था, फिर आगे चलकर नाम-रूप मिल जाने से वही व्यक्त और सगुण बन जाता है, (बृ0 1-4-7, छां0 6-1-2-3)। अतएव विकारवान अथवा नाशवान नाम-रूप को ही ‘माया’ नाम देकर कहते हैं कि यह सगुण अथवा दृश्य सृष्टि एक मूल द्रव्य अर्थात् ईश्वर की माया का खेल या लीला है ।
छान्दोग्य उपनिषद् में, सातवें अध्याय के आरम्भ की कथा में व्यक्त किया गया है कि-नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जाकर कहने लगे-‘‘मुझे आत्मज्ञान बतलाओ ।’’ तब सनत्कुमार बोले-‘‘पहले बतलाओ, तुमने क्या सीखा है, फिर मैं बतलाता हूँ ।’’ इस पर नारद ने कहा-‘‘मैंने इतिहास-पुराण-रूपी पाँचवें वेद-सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्र वेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र, सभी वेदांग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, क्षे=विद्या, नक्षत्रविद्या, और सर्पदेवजनविद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है, परन्तु जब इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब अब तुम्हारे यहाँ आया हूँ ।’’ इसको सुनकर सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया-‘‘तुमने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है, सच्चा ब्रह्म इस नाम-ब्रह्म से बहुत आगे है।’’ और फिर नारद को क्रमशः इस प्रकार पहचान करा दी कि इस नाम-रूप से अर्थात् सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, संकल्प, मन, बुद्धि (ज्ञान) और प्राण से भी परे एवं इनसे बढ़-चढ़कर जो है, वही परमात्मरूपी अमृत तत्त्व है ।
पृ0 227-बाह्य सृष्टि के नाम और रूप से आच्छादित ब्रह्मतत्त्व, नामरूपात्मक प्रकृति के समान जड़ तो है ही नहीं, किन्तु वासनात्मक ब्रह्म, मनोमय ब्रह्म, ज्ञानमय ब्रह्म, प्राण ब्रह्म अथवा ओंकाररूपी शब्द ब्रह्म-ये ब्रह्म के रूप भी निम्न श्रेणी के हैं और ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप इनसे परे है एवं इनसे भी अधिक योग्यता का अर्थात् शुद्ध आत्म-स्वरूपी है ।
पृ0 236-ज्ञान दृष्टि से सारे नाम-रूपों को एक ओर निकाल देने पर एक ही अविकारी और निर्गुण तत्त्व स्थिर रह जाता है, अतएव पूर्ण और सूक्ष्म विचार करने पर अद्वैत सिद्धान्त को ही स्वीकार करना पड़ता है ।
पृ0 246-परमेश्वर या परमात्मा यद्यपि सर्वव्यापी है, तथापि वह निरवयव और नाम-रूप रहित है, अतएव उसे काट नहीं सकते (अच्छेद्य) और उसमें विकार भी नहीं होता (अविकार्य); और इसलिए उसके अलग-अलग विभाग या टुकड़े नहीं हो सकते । (गीता-2/25) । अतएव जो परब्रह्म सघनता से अकेला ही चारो ओर व्याप्त है, उसका और मनुष्य के शरीर में निवास करनेवाले आत्मा का भेद बतलाने के लिए यद्यपि व्यवहार में ऐसा कहना पड़ता है कि ‘शरीर-आत्मा’ परब्रह्म का ही ‘अंश’ है, तथापि ‘अंश’ या ‘भाग’ शब्द का अर्थ ‘‘काटकर अलग किया हुआ टुकड़ा’’ या ‘‘अनार के अनेक दानों में से एक दाना’’ नहीं है, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से उसका अर्थ यह समझना चाहिए कि जैसे घर के भीतर का आकाश और घड़े का आकाश (मठाकाश और घटाकाश) एक ही सर्वव्यापी आकाश का ‘अंश’ वा भाग है, उसी प्रकार ‘शरीर-आत्मा’ भी परब्रह्म का अंश है (अमृतविन्दूपनिषद् 13 देखो)। अधिक क्या कहें, आधिभौतिक शास्त्र की प्रणाली से तो यही मालूम होता है कि जो कुछ व्यक्त या अव्यक्त मूल तत्त्व है । (फिर चाहे वह आकाशवत् कितना भी व्यापक हो), वह सब स्थल और काल बद्ध केवल नाम-रूप है, अतएव मर्यादित और नाशवान है । यह बात सच है कि उन तत्त्वों की व्यापकता भर के लिए उतना ही परब्रह्म उनसे आच्छादित है, परन्तु परब्रह्म उन तत्त्वों से मर्यादित न होकर उन सबमें ओत-प्रोत भरा हुआ है और इसके अतिरिक्त न जाने वह कितना बाहर है कि जिसका कुछ पता नहीं । वस्तुतः देखा जाय तो देश और काल, माप और तौल या संख्या इत्यादि सब नाम-रूपों के ही प्रकार हैं, और यह बतला चुके हैं कि परब्रह्म इन सब नाम-रूपों के परे है, इसलिए उपनिषदों में ब्रह्मस्वरूप के ऐसे वर्णन पाये जाते हैं कि जिस नाम-रूपात्मक ‘काल’ से सब कुछ ग्रसित है, उस ‘काल’ को भी ग्रसनेवाला या पचा जानेवाला जो तत्त्व है, वही परब्रह्म है (मै0 6-15) ।
पृ0 247-परमेश्वर-स्वरूप की इस प्रकार पूरी पहचान हो जावे कि एक ही परब्रह्म सब प्राणियों में व्याप्त है; और उसी भाव से संकट के समय भी पूरी समता से बर्ताव करने का अचल स्वभाव हो जावे, परन्तु इसके लिए (सुदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होना ही बस नहीं है) अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, इन्द्रिय-निग्रह की, दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यंत आवश्यक है ।
पृ0 248-देखिए, हमारा ज्ञान कितना संकुचित है। ‘मुक्ति’ मिलती है-ये शब्द सहज ही हमारे मुख से निकल पड़ते हैं। मानो यह मुक्ति आत्मा से कोई भिन्न वस्तु है! ब्रह्म और आत्मा की एकता का ज्ञान होने के पहले द्रष्टा और दृश्य जगत में भेद था सही, परन्तु हमारे अध्यात्मशास्त्र ने निश्चित करके रखा है, कि जब ब्रह्म-आत्मैक्य का पूरा ज्ञान हो जाता है, तब आत्मा ब्रह्म में मिल जाती है और ब्रह्मज्ञानी पुरुष आप ही ब्रह्म-रूप हो जाता है; इस आध्यात्मिक अवस्था को ही ‘ब्रह्म-निर्वाण’ मोक्ष कहते हैं, यह ब्रह्म-निर्वाण किसी से किसी को दिया नहीं जाता, या कहीं दूसरे स्थान से आता नहीं, या इसकी प्राप्ति के लिए किसी अन्य लोक में जाने की भी आवश्यकता नहीं । पूर्ण आत्म-ज्ञान जब और जहाँ होगा, उसी क्षण में, उसी स्थान पर मोक्ष धरा हुआ है; क्योंकि मोक्ष तो आत्मा ही की मूल शुद्धावस्था है, वह कुछ निराली स्वतंत्र वस्तु या स्थल नहीं ।
शि0 गी0 (13-32) में यह श्लोक है-
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।
अर्थात् ‘मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जो किसी एक स्थान में रखी हो, अथवा यह भी नहीं कि उसकी प्राप्ति के लिए किसी दूसरे गाँव या प्रदेश को जाना पड़े । वास्तव में हृदय की अज्ञानग्रन्थि के नाश हो जाने को ही मोक्ष कहते हैं ।’
पृ0 250-सारे मोक्ष-धर्म के मूलभूत अध्यात्म-ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीर दास, सूरदास, तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक अव्याहत चली आ रही है ।
पृ0 254-मूलारंभ के एक द्रव्य को सत् या असत्, आकाश या जल, प्रकाश या अन्धकार, अमृत या मृत्यु इत्यादि कोई भी परस्पर सापेक्ष नाम देना उचित नहीं; जो कुछ था, वह इन सब पदार्थों से विलक्षण था और यह अकेला एक ही चारो ओर अपनी अपरम्पार शक्ति से स्फूर्तिमान था, उसकी जोड़ी में या उसे आच्छादित करनेवाला अन्य कुछ भी न था।
[(कठ0=कठोपनिषद , ऋ०=ऋगवेद, तै0=तैत्तिरीय उपनिषद्, बृ०=बृहदारण्यकोपनिषद्, छां०= छांदग्योपनिषद् , शि0गी0=शिव गीता, महा0वन0=महाभारत-वनपर्व, गी0 = भगवद्गीता]
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।। गीता-रहस्य, कर्मविपाक और आत्म-स्वातंत्र्य, पृ0 275 ।।
वेद और स्मृति-ग्रन्थों में यज्ञ-याग आदि पारलौकिक कल्याण के अनेक साधनों का वर्णन है, परन्तु मोक्ष-शास्त्र की दृष्टि से ये सब कनिष्ठ श्रेणी के हैं; क्योंकि यज्ञ-याग आदि पुण्य कर्मों के द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु जब उन पुण्य कर्मों के फलों का अन्त हो जाता है, तब चाहे दीर्घकाल में क्यों न हो-कभी-न-कभी इस कर्म-भूमि में फिर लौटकर आना ही पड़ता है । (महा0 वन0 259, 260, गी0 8/25 और 9/20) इससे स्पष्ट हो जाता है कि कर्म के पंजे से बिल्कुल छूटकर अमृततत्त्व में मिल जाने का और जन्म-मरण की झंझट को सदा के लिए दूर कर देने का यह सच्चा मार्ग नहीं है ।
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संन्यास और कर्मयोग
पृ0 338-संसार के व्यवहारों की सिद्धि के लिए स्मृति- प्रणेताओं ने जो पहले तीन आश्रमों की श्रेयस्कर मर्यादा नियत कर दी थी, वह धीरे-धीरे छूटने लगी; और यहाँ तक स्थिति आ पहुँची कि यदि किसी को पैदा होते ही अथवा अल्प अवस्था में ही ज्ञान की प्राप्ति हो जावे, तो उसे इन तीनों सीढ़ियों पर चढ़ने की आवश्यकता नहीं है, वह एकदम संन्यास ले ले, तो कोई हानि नहीं ।
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भक्ति-मार्ग
पृ0 410-411-उपनिषदों में जिस श्रेष्ठ ब्रह्म-स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, वह इन्द्रियातीत, अव्यक्त, अनन्त, निर्गुण और ‘एकमेवाद्वितीय’ है, इसलिए उपासना का आरंभ उस स्वरूप से नहीं हो सकता । कारण यह है कि जब श्रेष्ठ ब्रह्म स्वरूप का अनुभव होता है, तब मन अलग नहीं रहता; किन्तु उपास्य और उपासक, अथवा ज्ञाता और ज्ञेय, दोनों एक रूप हो जाते हैं । निर्गुण ब्रह्म अन्तिम साध्य वस्तु है, साधन नहीं, और जबतक किसी-न-किसी साधन से निर्गुण-ब्रह्म के साथ एकरूप होने की पात्रता मन में न आवे, तबतक इस श्रेष्ठ ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार हो नहीं सकता । अतएव साधन की दृष्टि से की जानेवाली उपासना के लिए जिस ब्रह्म-स्वरूप को स्वीकार करना होता है, वह दूसरी श्रेणी का, अर्थात् उपास्य और उपासक के भेद से मन को गोचर होनेवाला, यानी सगुण ही होता है, और इसीलिए उपनिषदों में जहाँ-जहाँ ब्रह्म की उपासना कही गई है, वहाँ-वहाँ उपास्य ब्रह्म के अव्यक्त होने पर भी सगुण रूप से ही इसका वर्णन किया गया है ।
पृ0 415-यह जो नाम-रूपात्मक वस्तु उपास्य परब्रह्म के चिह्न, पहचान, अवतार, अंश या प्रतिनिधि के तौर पर उपासना के लिए आवश्यक है, उसी को वेदान्त शास्त्र में ‘प्रतीक’ कहते हैं । प्रतीक (प्रति+इक) का धात्वर्थ यह है- प्रति=अपनी ओर, इक=झुका हुआ, जब किसी वस्तु का कोई एक भाग पहले गोचर हो और फिर आगे उस वस्तु का ज्ञान हो, तब उस भाग को प्रतीक कहते हैं । इस नियम के अनुसार, सर्वव्यापी परमेश्वर का ज्ञान होने के लिए उसका कोई भी प्रत्यक्ष चिह्न, अंशरूपी विभूति या भाग ‘प्रतीक’ हो सकता है ।
पृ0 420-साधन की दृष्टि से यद्यपि वासुदेव-भक्ति को गीता में प्रधानता दी गई है, तथापि अध्यात्म-दृष्टि से विचार करने पर वेदान्त-सूत्र की नाईं (वे0 सू01 4-1-41) गीता में भी यही स्पष्ट रीति से कहा है कि ‘प्रतीक’ एक प्रकार का साधन है-वह सत्य, सर्वव्यापी और नित्य परमेश्वर हो नहीं सकता । अधिक क्या कहें! नाम-रूपात्मक और व्यक्त अर्थात् सगुण वस्तुओं में से किसी को भी लीजिए, वह माया ही है । जो सत्य परमेश्वर को देखना चाहे, उसे इस सगुण रूप के भी परे अपनी दृष्टि को ले जाना चिाहए । भगवान की जो अनेक विभूतियाँ हैं, उनमें अर्जुन को दिखलाए गए विश्वरूप से अधिक व्यापक और कोई भी विभूति हो नहीं सकती। परन्तु जब यही विश्वरूप भगवान ने नारद को दिखलाया, तब उन्होंने कहा है-‘‘तू मेरे जिस रूप को देख रहा है, यह सत्य नहीं है, यह माया है, मेरे सत्य-स्वरूप को देखने के लिए इसके भी आगे तुझे जाना चाहिए’’ (शां02 339-44) । और गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट रीति से यही कहा है-
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।
यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ, तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त (गी0 7-24) अर्थात् मनुष्य-देहधारी मानते हैं (गी0 9-11); परन्तु यह बात सच नहीं है, मेरा अव्यक्त स्वरूप ही सत्य है । इसी तरह उपनिषदों में भी यद्यपि उपासना के लिए मन, वाचा, सूर्य, आकाश इत्यादि अनेक व्यक्त और अव्यक्त ब्रह्म-प्रतीकों का वर्णन किया गया है, तथापि अन्त में यह कहा है कि जो वाचा, नेत्र या कान को गोचर हो, वह ब्रह्म नहीं, जैसे-
यन्मनसा न मनुते येनाऽहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।
‘‘मन से जिसका मनन नहीं किया जा सकता; किन्तु मन ही जिसकी मनन-शक्ति में आ जाता है, उसे तू ब्रह्म समझ; जिसकी उपासना (प्रतीक के तौर पर) की जाती है, वह (सत्य) ब्रह्म नहीं है’’ (केन0 1-5-8) । ‘नेति-नेति’ सूत्र का भी यही अर्थ है ।
मन और आकाश को लीजिए, अथवा व्यक्त उपासना मार्ग के अनुसार शालिग्राम, शिवलिंग इत्यादि को लीजिए, या श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि अवतारी पुरुषों की अथवा साधु पुरुषों की व्यक्त मूर्ति का चिन्तन कीजिए, मन्दिरों में शिलामय अथवा धातुमय देव की मूर्ति को देखिए, अथवा बिना मूर्ति का मन्दिर या मस्जिद लीजिए-ये सब छोटे बच्चे की लंगड़ी गाड़ी के समान मन को स्थिर करने के लिए अर्थात् चित की वृत्ति को परमेश्वर की ओर झुकाने के साधन हैं । प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी इच्छा और अधिकार के अनुसार उपासना के लिए किसी प्रतीक को स्वीकार कर लेता है, यह प्रतीक चाहे कितना प्यारा हो, परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सत्य परमेश्वर इस ‘‘प्रतीक में नहीं है,’’ ‘‘न प्रतीके न हि सः’’ (वे0 सू0 4-1-4)-उसके परे है ।
पृ0 423-यह मनुष्यों की अत्यंत शोचनीय मूर्खता का लक्षण है, कि वे इस सत्य तत्त्व को तो नहीं पहचानते कि ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और उसके भी परे अर्थात् अचिन्त्य है, किन्तु वे ऐसे नाम-रूपात्मक व्यर्थ अभिमान के अधीन हो जाते हैं कि ईश्वर ने अमुक समय, अमुक देश में, अमुक माता के गर्भ से, अमुक वर्ण का, नाम का या आकृति का जो व्यक्त स्वरूप धारण किया, वही केवल सत्य है-और इस अभिमान में फँसकर एक दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं ।
पृ0 434-स्मार्त मार्ग में चतुर्थाश्रम का जो महत्त्व है, वह भक्तिमार्ग में अथवा भागवत धर्म में नहीं है । वर्णाश्रम-धर्म का वर्णन भागवत धर्म में भी किया जाता है, परन्तु उस धर्म का सारा दारमदार भक्ति पर ही होता है, इसलिए जिसकी भक्ति उत्कट हो, वही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है-फिर चाहे वह गृहस्थ हो, वानप्रस्थ या वैरागी हो, इसके विषय में भागवत धर्म में कुछ विधि-निषेध नहीं है (भाग0 11-18-13-14 देखो) ।
पृ0 438-439-जिसकी बुद्धि सम हो जावे, वही श्रेष्ठ है; फिर चाहे वह सुनार हो, बढ़ई हो, बनियाँ हो या कसाई; किसी मनुष्य की योग्यता उसके धन्धे पर, व्यवसाय पर या जाति पर अवलम्बित नहीं, किन्तु सर्वथा उसके अन्तःकरण की शुद्धता पर अवलम्बित होती है ।
गीताध्याय-संगति
पृ0 444-उपनिषदों में तो यही कहा है कि ‘‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत’’ (जा0 4) अर्थात् जिस क्षण उपरति हो, उसी क्षण संन्यास धारण करो; विलम्ब न करो।
पृ0 450-केवल तिल और चावल को जलाना अथवा पशुओं को मारना, एक प्रकार का यज्ञ है सही, परन्तु यह द्रव्यमय यज्ञ हलके दर्जे का है और संयमाग्नि में काम-क्रोधादिक इन्द्रिय-वृत्तियों को जलाना अथवा ‘न मम’ कहकर सब कर्मों का ब्रह्म में स्वाहा कर देना ऊँचे दर्जे का यज्ञ है।
पृ0 451-ईश्वर तुमसे न यह कहता है कि कर्म करो, और न तुमसे यह कहता है कि उसका त्याग कर दो । यह तो सब प्रकृति की क्रीड़ा है; और बन्धन मन का धर्म है, इसलिए जो मनुष्य समबुद्धि से अथवा ‘‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’’ होकर कर्म किया करता है, उसे उस कर्म की बाधा नहीं होती । अधिक क्या कहें, इस (पाँचवें ) अध्याय (गी0 5-18) के अन्त में यह भी कहा है कि जिसकी बुद्धि कुत्ता, चाण्डाल, ब्राह्मण, गौ, हाथी इत्यादि के प्रति सम हो जाती है और जो सर्वभूतान्तर्गत आत्मा की एकता को पहचान कर अपना व्यवहार करने लगता है, उसे बैठे-बिठाये ब्रह्म-निर्वाणरूपी मोक्ष प्राप्त हो जाता है- मोक्ष- प्राप्ति के लिए उसे भटकना कहीँ पड़ता, वह सदा मुक्त ही है ।
पृ0 462-भगवान ने अर्जुन को यह उपदेश दिया है कि क्षर और अक्षर दोनों के परे जो पुरुषोत्तम है, उसे पहचान कर उसकी ‘भक्ति’ करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है-तू भी ऐसा ही कर । [यह उपदेश गीता के पंद्रहवें अध्याय के अन्त में है।]
पृ0 465-चूँकि मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है, इसलिए पिण्ड-ब्रह्माण्ड के तत्त्व को पहचानना ही उसका मुख्य काम या पुरुषार्थ है; और इसी को धर्मशास्त्र में मोक्ष कहते हैं ।
पिण्ड में और ब्रह्माण्ड में जो तत्त्व है, उसका ज्ञान हुए बिना मोक्ष नहीं मिलता ।
पृ0 468-यदि फलाशा का त्यागकर सब कर्म किये जावें तो यही एक बड़ा भारी यज्ञ हो जाता है ।
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उपसंहार
पृ0 470-किसी भी दृष्टि से विचार कीजिए, अन्त में गीता का सच्चा तात्पर्य यही मालूम होगा कि ‘ज्ञान-भक्तियुक्त कर्मयोग’ ही गीता का सार है ।
पृ0 483-गीता के सिद्धान्त ये हैं-(1) बाह्य कर्म की अपेक्षा कर्त्ता की (वासनात्मक) बुद्धि ही श्रेष्ठ है, (2) व्यवसायात्मक बुद्धि आत्मनिष्ठ होकर जब सन्देह-रहित तथा सम हो जाती है, तब फिर वासनात्मक बुद्धि आप-ही-आप शुद्ध और पवित्र हो जाती है, (3) इस रीति से जिसकी बुद्धि सम और स्थिर हो जाती है, वह स्थितप्रज्ञ पुरुष हमेशा विधि और नियमों से परे रहा करता है, (4) और उसके आचरण तथा उसकी आत्मैक्यबुद्धि से सिद्ध होनेवाले नीति-नियम सामान्य पुरुषों के लिए आदर्श के समान पूजनीय तथा प्रमाणभूत हो जाते हैं, (5) पिण्ड अर्थात् देह में तथा ब्रह्माण्ड में अर्थात् सृष्टि में एक ही आत्मस्वरूपी तत्त्व है, देहान्तर्गत आत्मा अपने शुद्ध और पूर्ण स्वरूप (मोक्ष) को प्राप्त कर लेने के लिए सदा उत्सुक रहता है तथा उस शुद्धस्वरूप का ज्ञान हो जाने पर सब प्राणियों के विषय में आत्मौपम्य दृष्टि हो जाती है ।
पृ0 489, 490-सगुण परमेश्वर तथा दृश्य सृष्टि, दोनों उस आत्मा के ही व्यक्त स्वरूप हैं, जो सर्वभूतान्तर्गत, सर्वव्यापी और अव्यक्त है ।
पृ0 502-कबीर जैसे भक्त इस देश की सन्त-मण्डली में मान्य हो गये ।
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परिशिष्ट
पृ0 540-वैदिक धर्म का अत्यंत प्राचीन स्वरूप न तो भक्ति-प्रधान, न तो ज्ञान-प्रधान और न योग प्रधान ही था, किन्तु वह यज्ञमय अर्थात् कर्म-प्रधान था और वेदसंहिता तथा ब्राह्मणों में विशेषतः इसी यज्ञ-याग आदि कर्म-प्रधान धर्म का प्रतिपादन किया है ।
गीता-रहस्य, पृ0 162, 164-प्रकृति सगुण है, पुरुष निर्गुण है ।
पृ0 165, 167-पुरुष निर्गुण है और असंख्य है ।
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[1 वे0 सू0 = वेदान्त सूत्र । 2 शां0 = शान्ति-पर्व (महाभारत) । शांति-पर्व, मोक्षधर्म-उत्तरार्द्ध, अध्याय 164, पृ0 799, भारती अनुवादक केनिंग कॉलेज, लखनऊ के भूतपूर्व संस्कृत के प्रोफेसर स्वर्गीय पं0 कालीचरणजी चौरसिया गौड़, 1926 ई0 में प्रकाशित चतुर्थावृत्ति, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ में देखो । गी0 = भगवद्गीता । केन0 = केनोपनिषद् । भाग0 = श्रीमद्भागवतपुराण । जा0 = जाबालोपनिषद् । उपरति = विरति, विषयों से इन्द्रियों को हटाना ।]
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