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।। दोहा ।।
अल्लाहू त्रिकुटी लखा, जाय लखा हा सुन्न ।
शब्द अनाहू पाइया, भँवर गुफा की धुन्न ।।
हक्क हक्क सतनाम धुन, पाई चढ़ सच खण्ड ।
सन्त फकर बोली जुगल, पद दोउ एक अखण्ड ।।
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।। शब्द ।।
सुरत क्यों भूल रही, अब चेत चलो स्वामी पास ।।टेक।।
हे मनुवाँ तुम सदा के संगी, त्यागो जगत की आस ।
हे इन्द्रियन तुम भोग दिवानी, क्यों फँसो काल की फाँस ।।
जल्दी से अब मुख को मोड़ो, अन्तर अजब विलास ।
जैसे बने तैसे करो कमाई, धर चरनन विश्वास ।।
राधास्वामी दीन दयाला, दैहैं अगम निवास ।
तब सुख साथ रहो घर अपने, फिर होय न तन में वास ।।
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सखी री क्यों देर लगाई, चटक चढ़ो नभ द्वार ।।टेक।
इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार । ।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।। ।
सहस कँवल चढ़ त्रिकुटी धाओ, भँवरगुफा सतलोक निहार ।
अलख अगम के पार सिधारो, राधास्वामी चरण सम्हार ।।
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क्या सोवे जग में नींद भरी । उठ जागो जल्दी भोर भई ।।
पंथी सब उठ के राह लई । तू मंजिल अपनी बिसर गई ।।
सतगुरु की खोज करो प्यारी । संग उनके बाट चलो न्यारी ।।
भौसागर है गहिरा भारी । गुरु बिन को जाय सके पारी ।।
भक्ती की रीति सुनो प्यारी । गुरु चरनन प्रीति करो सारी ।।
तज संशय भरम करम जारी । तब सुरत अधर घर पग धारी ।।
चढ़ गगन शिखर तन मन वारी । धुन बीन सुनो सत पद न्यारी ।।
फिर अलख अगम जा परसा री । राधास्वामी चरण पर बलिहारी ।।
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तू तो सुरत जमा नभ द्वार । शब्द मिले छूटे जंजार ।।
शब्द भेद तू जान गँवार । क्यों भरमै तू मन की लार ।।
सुरत खैंच तक तिल का द्वार । दहिनी दिशा शब्द की धार ।।
बाईं दिशा काल का जार । ताहि छोड़कर सुरत सम्हार ।।
घण्टा संख सुनो कर प्यार । तिस के आगे धुन ओंकार ।।
सुन्न माहिं सुन रारंकार । भँवर गुफा मुरली झनकार ।।
सत्तलोक धुन बीन सम्हार । अलख अगम धुन कहुँ न पुकार ।।
राधास्वामी भेद सुनाया झाड़ । पकड़ धरो अब हिये मँझार ।।
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शब्द कमाई कर हे मीत । शब्द प्रताप काल को जीत ।।
शब्द घाट तू घट में देख । शब्दहि शब्द पीव को पेख ।।
शब्द कर्म की रेख कटावे । शब्द शब्द से जाय मिलावे ।।
शब्द बिना सब झूठा ज्ञान । शब्द बिना सब थोथा ध्यान ।।
शब्द छोड़ मत अरे अजान । राधास्वामी कहै बखान ।।
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सब की आदि शब्द को जान । अन्त सभी का शब्द पिछान ।।
तीन लोक और चौथा लोक । शब्द रचे यह सब ही थोक ।।
शब्द सुरत दोउ धार समान । पुरुष अनामी के यह प्राण ।।
चेतनता सब इनकी मान । शब्द बिना कोइ और न आन ।।
शब्द गुप्त तब हुआ अनाम । शब्द प्रगट तब धरिया नाम ।।
नाम अनाम शब्द परिनाम । शब्द बिना होय सब की हान ।।
भव सागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर ।
नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोइ सूर ।।
बिन सतगुरु सतनाम बिन, कोइ न बाचे जीव ।
सत्तलोक चढ़कर चलो, तजो काल की सीव ।।
क्या हिन्दू क्या मुसलमान, क्या ईसाई जैन ।
गुरुभक्ति पूरन बिना, कोइ न पावै चैन ।।
गुरु भक्ती दृढ़ के करो, पीछे और उपाय ।
बिन गुरु भक्ती मोह जग, कभी न काटा जाय ।।
मोटे बन्धन जक्त के, गुरु भक्ति से काट ।
झीने बन्धन चित्त के, कटें नाम परताप ।।
मोटे जब लग जायँ नहिं, झीने कैसे जायँ ।
ताते सबको चाहिये, नित गुरु भक्ती कमायँ ।।
सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार ।
मध्य सुखमना तिल बसे, तिल में जोत अकार ।।
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