सूरस्वामीजी के शब्द

(हाथरस के तुलसी साहब के गुरुमुख शिष्य) 

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प्रात समय नित प्रति सतगुरु की, आरति मंगल साजही ।।टेक।।
महिमा अगम अपार गुरन की, जिनके निकट बिराजई ।।1।।
झाँझ मृदंग गैब धुनि घंटा, शब्द अनाहद बाजई ।।2।।
बत्ती पाँच तत्त की बरई, सब घट जोति प्रकाशई ।।3।।
गगन थाल मूलै कपूर, जहाँ रवि ससि दीपक चासई ।।4।।
झारी धरी विमल जल भरी, अच्छत नभ तारे राजई ।।5।।
मुक्ताहल फूलन की माला, हिये गुहि अधिक छवि छाजई ।।6।।
प्रीति धूप चन्दन चित हित, घृत अगर अरूप समाजई ।।7।।
होत आरती अधर पुरुष की, सुर नर मुनि जहँ लाजई ।।8।।
अमी प्रसाद साध जन पावैं, नाना भौ भर्म भाजई ।।9।।
‘सूर’ लीन तुलसी के चरन, अब वहि साहब को लाजई ।।10।।

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गिरिधारी साहब के समाधि-स्थान पर [महल्ला नौवस्ता (लखनऊ) के रहनेवाले साधु बाबा दीहल दास साहब ने लिखवाये]

आली स्वामी की सुरत न दृगन सों टरत ।
विरहा के जलन में जलत निसदिन, बिन चरण कमल मन धीर न धरत ।।
जा दिन से लगन लाग प्रीतम से, चित न चलत कहुँ अन्ते और सखी ।।
भावै न सुहावै घरी पिया बिन पल छिन, बिछुड़त जस मीन मरत ।।
पिया अपनावें जब सब दुख जावे हिया हरष समावे धीर आवे विरहिन को ।।
सुन्नि वर पावें तुलसी गुरु दरसावें ‘सूर’ बार-बार ऐसी विनती करत ।।

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मिलकर बिछुड़न को बड़ा दुख भारी ।
कहा कहौं कछु कहत न आवै कोइ जाने री दरद जिस पर गुजरा री।।
प्रथम लगन तो करत में लगत नीकि पुनि पड़े मुश्किल निभाना विरहिन की।
बिन पिया दरस फिरत बियाकुल तन निसदिन रहत दृगन जल जारी।।
एक तो जगत की शरम भरमावै दूजे विरहा सतावै तीजे हरष न आवै।
‘सूर’ सुरती बड़े भागी जो पिया के हिये लागी वर पायो तुलसी सतगुरु दाता री।।

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