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।। शब्दावली से ।।
सुरति सिरोमनि घाट, गुमठ मठ मृदंग बजै रे ।
किंगरी बीन संख सैनाई, बंक नाल की बाट ।
चितवत चाट खाट पर जागी, सोवत कपट कपाट ।
मुरली मधुर झाँझ झनकारी, रंभा नचत वैराट ।
उड़त गुलाल ज्ञान गुन गाँठी, भर-भर रंग रस माट ।
गाई गैल सैल अनहद की, उठै तान सुर ठाट ।
लगन लगाइ जाइ सोइ समझी, सुरति सैल नभ फाट ।
तुलसी निरख नैन दिन राती, पल-पल पहरौ आठ ।
यहि विधि सैल करै निस वासर, रोज तीन सै साठ ।
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जिन ने नर औतार लिया न लिया । जिनके हिरदे गुरु संत नहीं ।
सूरति विमल विरह नहिं जाके, बहु बकि ज्ञान किया न किया ।
करम काल बस उद्र निहारा, जग बीच मूढ़ जिया न जिया ।
अगम राह रस रीति न जानी, बहु सत्संग किया न किया ।
नाम अमल घट घोटि न पीना, अमल अनेक पिया न पिया ।
मोटे मात जात जिन्दगी में, सिर धर पैर छिया न छिया ।
तुलसी आद साध नहिं चीन्हा, तन धन मन न दिया न दिया ।
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सन्त सिरोमनि खेलै फाग । जहाँ अनहद मुरली उठत राग ।
जगत आस अघ उड़ै अबीर । गुन गुलाल धरि मारै धीर ।
सुरत निरत नित नैन जाग । अलल पच्छि अंड उलट भाग ।
रितु वसन्त जहाँ विमल ठौर । कंथ पंथ पर अगम और ।
हंस भवन अज अमर लाग । संग सखी सज सुरति पाग ।
जहाँ काल कर्म करता नसाइ । रज सत तम जम जहाँ न जाइ ।
निरगुन सरगुन टूट ताग । नहिं पाँच तत्त तन पौन आग ।
अजर लोक सत पुरुष धाम । सोइ सन्त सुझावत सतनाम ।
तुलसी तात सुत भरम त्याग । जहाँ पिण्ड ब्रह्मण्ड उन अगम थाग ।
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।। शब्द ।।
लख आतम अन्दर परम पास । और सकल तजि जग की आस ।
गज मन मकरन्द फन्द डार । फिर न पाँच पचबीस लार ।
क्रोध काम बस लोभ वास । इन सँग रँग रस परत फाँस ।
करि अदूर सखि मूर जान । सुरति अधर नभ लखै भान ।
सुखमनि सुन धुन धर अकास । इँगल पिंगल बिच विमल वास ।
जोग ध्यान धर जोति देख । आतम तत आली अलख लेख ।
मंदिर में आली दीप चास । सब ब्रह्मण्ड तकि लखि निवास ।
संत सैल सखी अंत रीति । अगम गुरू कर पावै प्रीति ।
तुलसी जोगी लखै न नास । तन मन सुरति होत नास ।
।। दोहा ।।
गगन गरज नित नादड़ी, खड़ी सुरति सुन कान ।
मान मनोहर रीति को, समझै चतुर सुजान ।।
धुन सुन कै सम दम लई, गई गगन के माहिं ।
नाहिं रही हिये होस में, सकल सोच नसि जाहिं ।।
फंद फाड़ि बाहेर गई, लई जो सतगुरु बाँह ।
जहाँ धूप रवि ससि नहीं, तुलसी पहुँचे ताँह ।।
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खेलो री हिरदे हरि होरी, पल में पल सुरति बहोरी ।। टेक।।
उनमुनि संग पवन पिचकारी, सुखमनि मार मचोरी ।
बंकनाल रंग माट भरो है, पिया पर लै छिरको री,
आज ऐसो मेल मिलो री ।।1।।
चन्द सुरज सुन संजम कीना, इंगल पिंगल पट पौरी ।
आस अबीर गुलाल गुनन को, करि सतसंग उड़ो री,
मुक्त नर देह धरो री ।।2।।
मेरु डंड तत तारी लागी, स्वासा सिमिटि भरोरी ।
उठत अवाज विमल अनहद की, धधकि धुनि संख बजोरी,
सखी चित चेत चलो री ।।3।।
तुलसी जोग जुगति जब जानै, करम टकर1 उतरो री ।
इन्द्री पाँच प्रपंच पचीसो, लै इनको पकरो री,
ज्ञान गुर बाँह मरोरी ।।4।।
(1) चोट
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।। धुरपद अलैयाका ।।
चन्द बन्द बदरहू में, छिपत तेज पद प्रकास ।
स्वास सो अकास बहत, नित न जात येहि न भाति ।
पवन थकित चढ़त गगन, भवन माहिं उत समात ।
लखन क्रान्ति उड़न भ्रान्ति, भँवर भनन कन्द्रहू पै ।
मंदर घोर घनन घनन, मृदुल पवन चलत सनन ।
घड़ड़ घड़ड़ घड़घड़ात, छम छमात तंदर हू पै ।
मुरली बीन बजत मधुर, मृदंग की टकोर धमक ।
त्रकुट ताल तुलसी हाल, सबद घोर अन्दर हू पै ।
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ततरंग रत रंग लौलाई ।
कंज कमल पर बाजत अनहद, उठत राग धमधम धरन ।।
दिस निस दिन सखी सुनि धुनि लागी, भागि भवन सुधि पाई ।
संख मृदंग मधुर धुनि धधकत, तादिम तादिम तुम तुम तरन ।
करत घोर घन घोर पपया पिउ, पलक पलक लख माहीं ।
महेल मरम मंदर घर तुलसी, चढ़त चालि चमचम चरन ।
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आज नर वतन की जतन करौ रे, ये हतन तन ।
घट भटक भूल आदि अपन मूल, जाल जवर सूल बंध बँधाई ।
मन मत न मरोरे ।। टेक।।
दो दिन जग में वास बसै, घर बिसार जम फाँस फँसै ।
गुरु को ध्यान धरि करि विधान काया, माया कौ मान तक तोड़ जराई ।
सुरति सज भज भमर अपनाई, द्वार डगर सम समुद्र सत माहीं ।
मछ मथन कछ काढ़ि निकार आई, काल धीमर केरी जाल निकाल ।।
वही पत न डरौरे। उदर बास बसि कौल दियो, धर नर तन नहिं भजन कियो।
गरभ कर कर मरे भरम जुग, सुग सरम पिया पद न चाही ।।
नाद अचल बिन्द बिमल बिनसाई, अस अमर कर बाट भुलाई जाई ।
पवन तत मत अली असर आई । काली में मन मग चित्त चलन ।
सुनि सत न अड़ौ रे ।।
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।। शब्द ।।
पिउ पिउ रटौ सुरति से पपिया प्यारे ।।
स्वाति बूँद अधर झरत, नार आस लखि अकाश ।
पिउ की प्यास अमी से बुझा रे ।
झिरिमिरि झिरिमिरि बरसत मेह, बीज बदर करि विदेह ।
अज अदीद देह से निनारे ।
बने रे चौ खलक खेल, पावै कोइ पलक सैल ।
गुरु कै वचन कहत हौं पुकारे ।
सन्त सरन भये अधीन, बूझे कोइ चरन चीन्ह ।
सतसँग करि मरम कौ सिहारे।
तुलसी सब तरक कीन, सुँ1 दर2 में सबद लीन ।
सुरत मुरति मगन होइ निहारे ।
1- सुन्न। 2- दरवाजा।
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गगन धार गंगा बहै, कहैं संत सुजाना हो ।।
चढ़ि सूरति सरवर गई, ससि सूर ठिकाना हो ।
बिरले गुरमुख पाइया, जिन शब्द पिछाना हो ।
सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्रान पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।
विमल विमल वाणी उठै, अदबुद असमाना हो ।
निरमल वास निवास में, कर कर कोइ जाना हो ।
तुलसी तलब तलबी करै, नित सुरति निसाना हो ।
अंड अलख लखिहैं सोई, चढ़ि करि धरि ध्याना हो ।
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।। रेखता ।।
अजब अनार दो बहिश्त के द्वार पै ।
लखै दुरवेश कोई फकीर प्यारा ।
ऐनि के अधर दो चश्म के बीच में ।
खसम को खोज जहाँ झलक तारा ।
उसी बीच फक्त खुद खुदा का तख्त है ।
सिश्त से देख जहाँ भिस्त सारा ।
तुलसी सत मत मुरशिद के हाथ है ।
मुरीद दिल रूह दोजख न्यारा ।
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।। लावनी ।।
पिया दरस बिना दीदार दरद दुख भारी ।
बिन सतगुरु के धृग जीवन संसारी ।।
कोइ भेटैं दीन दयाल डगर बतलावैं ।
जेहि घर से आया जीव तहाँ पहुँचावैं ।।
दरसन उनके उर माहिं करैं बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।
कहिं वे दाता मिल जायँ करैं भव पारी ।
बिन सतगुरु के धृग जीवन संसारी ।।
सत्संग करना मन तोड़ शरण संतन की ।
अन्दर अभिलाषा लगी रहे चरनन की ।।
सूरत तन मन से साँच रहै रस पीती ।
कोइ जावै सज्जन कुफुर काल को जीती ।।
अमृत हरदम कर पान चुवै चौधारी ।
बिन सतगुरु के धृग जीवन संसारी ।।
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घटरामायण से
।। सोरठा ।।
स्त्रुति बुन्द सिंध मिलाप । आप अधर चढ़ि चाखिया ।
भाषा भोर भियान । भेद भान गुर स्त्रुति लखा ।।
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।। श्रुति सिंध छन्द 1 ।।
सत सुरत समझि सिहार साधौ। निरखि नित नैनन रहौ ।।1।।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली। मरम मन मारग गहौ ।।2।।
सम सील लील अपील पेलै। खेल खुलि खुलि लखि परै ।।3।।
नित नेम प्रेम पियार पिउ कर । सुरति सजि पल पल भरै ।।4।।
धरि गगन डोरि अपोड़ परखै। पकरि पट पिउ पिउ करै ।।5।।
सर साधि सुन्न सुधारि जानौ। ध्यान धरि जब थिर थुवा ।।6।।
जहाँ रूप रेख न भेष काया। मन न माया तन जुवा ।।7।।
आली अंत मूल अतूल कँवला। फूल फिरि फिरि धरि धसै ।।8।।
तुलसी तार निहार सूरति । सैल सत मत मन बसै ।।9।।
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।। छन्द 2 ।।
हिये नैन सैन सुचैन सुन्दरि। साजि स्त्रुति पिउ पै चली ।।1।।
गिरि गवन गोह गुहारि मारग। चढ़त गढ़ गगना गली ।।2।।
जहाँ ताल तट पट पार प्रीतम । परसि पद आगे अली ।।3।।
घट घोर सोर सिहार सुनिकै। सिंध सलिता जस मिली ।।4।।
जब ठाट घाट वैराट कीना । मीन जल कँवला कली ।।5।।
आलि अंस सिंध सिहार अपना। खलक लखि सुपना छली ।।6।।
अब सार पार सम्हारि सूरति । समझि जग जुगजुग जली ।।7।।
गुरु ज्ञान ध्यान प्रमान पद बिन। भटकि तुलसी भौ भिली ।।8।।
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।। छन्द 3 ।।
आली अधर धार निहार निजकै । निकरि सिखर चढ़ावहीं ।।1।।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना । जतन धार बहावहीं ।।2।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि । धुर गुरू गति गावहीं ।।3।।
जहाँ संत आस विलास वेनी । विमल अजब अन्हावहीं ।।4।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल । कर्म धोइ बहावहीं ।।5।।
हिये हेरि हरष निहार घर कौ । पार हंस कहावहीं ।।6।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी । धाम अविचल बसि रही ।।7।।
आली आदि अन्त विचारि पद कौ । तुलसी तब पिउ की भई ।।8।।
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।। छन्द 4 ।।
आली देख लेख लखाब मधुकर। भरम भौ भटकत रही ।।1।।
दिन तीनि तन संग साथ जानौ । अंत आनन्द फिरि नहीं ।।2।।
जग हीन सार असार सखी री । भ्रमत विधि बस भौ मही ।।3।।
धन धाम काम न कनक काया । मुलक माया लै बही ।।4।।
येही समझि बूझि विचारि मन में । निरखि तन सुपना सही ।।5।।
जम जाल जवर कराल सजनी । काल कुल करतब लई ।।6।।
सब तीरथ बरत आचार आली री । कर्म बस बंधन भई ।।7।।
तुलसी तनक तरक विचारि तन मन । संत सतगुरु अस कही ।।8।।
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।। छन्द 5 ।।
सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौ । ठाट ठट सतसंग करै ।।1।।
जब रंग संग अपंग आली री । अंग सत मत मन मरै ।।2।।
मन मीन दिल जब दीन देखै। चीन्ह मधुकर सिर धरै ।।3।।
आली डगर मिलि जब सुरति सरजू । कँवल दल चल पद परै ।।4।।
थिर थोब ठुमुकि टिकाव नैना । नीर थीर जिमि थम थीरै ।।5।।
यहि भाँति साथ सुधारि मन कौ । पलक गिरि गगना भरै ।।6।।
लखि द्वार दिढ़ दरवार दरसै । परसि पद पुनि पिउ धरै ।।7।।
गुरु गैल मेल मिलाप तुलसी । मन्त्र विषधर बस करै ।।8।।
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।। छन्द 6 ।।
जब बल विकल दिल देखि विरहिन । गुरु मिलन मारग दई ।।1।।
सखी गगन गुरु पद पार सतगुरु । सुरति अंस जो आवई ।।2।।
सुरति अंस जो जीव घर गुरु । गगन बस कंजा मई ।।3।।
आली गगन धार सवार आई । ऐनि बस गो गुन रही ।।4।।
सखी ऐन सूरति पैन पावै । नील चढ़ि निर्मल भई ।।5।।
जब दीप सीप सुधार सज कै । पछिम पट पद में गई ।।6।।
गुरु गगन कंज मिलाप करि कै । ताल तज सुनि धुनि लई ।।7।।
सुनि शब्द से लखि शब्द न्यारा । प्रालबद जद क्या कही ।।8।।
जेहि पार सतगुरु धाम सजनी । सुरति सजि भजि मिलि रही ।।9।।
जस अलल अंड अकार डारै । उलटि घर अपने गई ।।10।।
यहि भाँति सतगुरु साथ भेंटै । कर अली आनन्द लई ।।11।।
दुख दाव कर्म निवास निस दिन । धाम पिया दरसत बही ।।12।।
सतगुरु दया दिल दीन तुलसी । लखत भै निरभै भई ।।13।।
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।। सदा ।।
अरे ऐ तकी दीदार1 आदिल2 दिल दिलों में तिल में दिल ।।1।।
नैना नजर से जाय मिल खिल खिल खुशी3 यों कर अमल4 ।।2।।
चल गेंद तक तू एक पल मुर्शद5 शकल देखै असल ।।3।।
झोंका6 न दे दर्दी7 जलल8 अरे जाय मिल फिर ना निकल ।।4।।
दिल दूर दुरबीने फजल इस राह से पहुँचै मजल9 ।।5।।
अरे बुझ ले सूझै असल उसका महल दिल में शकल ।।6।।
मन मार दिल में कर अमल माशूक10 आवै यौं निकल ।।7।।
ये वक्त फिर आवै न कल मशहूर है ये सच मसल ।।8।।
तुलसी तकी मुर्शद से मिल और आशकी11 कर बेखलल12 ।।9।।
अफलाक13 हफ्रतम14 जाय खुल मुर्शद से हो असली बसल15 ।।10।।
(1) दर्शन। (2) न्यायशील। (3) क्रमशः बढ़-बढ़कर आनन्दित हो। (4) अभ्यास। (5) गुरु। (6) आघात। (7) दयालु, दुःखित। (8) गुमराही, भ्रष्टपथगामीपन। (9) मंजिल, ठहराव। (10) प्रेम-पात्र।
(11) प्रेम, आसक्ति। (12) बिना रोक, बिना बाधा। (13) आसमान। (14) सातवाँ । (15) वस्ल, मिलाप, मिलन।
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।। गजल ।।
अरे ऐ तकी तकते रहो मुर्शद6 ने ये पंजा7 दिया ।
बेहोश हो मत छोड़ियो गर चाहै तू जलवा8 पिया ।
होगा फजल9 दर्गाह10 तक खौफो11 खतर12 की जा13 नहीं ।
सीधे चला जाना वहाँ मुर्शद ने यह फतवा14 दिया ।
मनसूर सरमद, बूअली और शम्श मौलाना हुए ।
पहुँचे सभी इस राह से जिसने कि दिल पुख्ता किया ।
यह राह मंजिल इश्क15 है पर पहुँचना मुश्किल नहीं ।
मुश्किल कुशा16 है रोबरू17 जिसने तुझे पंजा दिया ।
तुलसी कहै सुन ऐ तकी यह राज18 बातिन19 है जुदा20 ।
रखना हिफाजत से इसे तुझको निशाँ21 ऊँचा दिया ।
(6) गुरु। (7) आज्ञा। (8) जल्वा, शोभा, तड़क-भड़क, प्रकाश। (9) कृपा। (10) दरबार। (11) डर। (12) डर, जोखिम। (13) जगह, स्थान। (14) राय, हुक्म। (15) प्रेम। (16) कठिनाई को दूर करनेवाला । (17) रू-ब-रू, सम्मुख । (18) भेद, युक्ति। (19) अन्दर का, भीतरी भाग। (20) पृथक्, भिन्न। (21) निशाना।
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।। गजल ।।
सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार1 देखना ।
अपने में आप जलवए2 दिलदार3 देखना ।
पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल।
इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।
चौदह तबक का हाल अयाँ4 हो तुझे जरूर ।
गाफिल न हो ख्याल से हुशियार देखना ।
सुन लामकाँ5 पै पहुँच के तेरी पुकार है ।
है आ रही सदा6 से सदा7 यार देखना ।
मिलना तो यार का नहीं मुश्किल मगर तकी ।
दुशवार8 तो ये है कि दुशवार देखना ।
तुलसी बिना करम9 किसी मुर्शद रसीदा10 के ।
राहे निजात11 दूर है उस पार देखना ।
(1) हरगिज, कदापि। (2) जल्वा, तड़क- भड़क, शोभा, तेज । (3) उदार, प्रेमी, प्रिय । (4) जाहिर, व्यक्त ।
(5) शून्य भवन । (6) हमेशा । (7) शब्द । (8) कठिन । (9) कृपा, अनुग्रह, दया । (10) पहुँचा हुआ । (11) मुक्ति, छुटकारा ।
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।। जीव का निबेरा, चौपाई ।।
तुलसी निरख देखि निज नैना । कोइ कोइ संत परखिहैं बैना ।।1।।
जो कोइ सन्त अगम गति गाई । चरन टेकि पुनि महूँ सुनाई ।।2।।
अब जीवन का कहूँ निबेरा । जासे मिटै भरम बस बेरा ।।3।।
जब या मुक्ति जीव की होई । मुक्ति जानि सतगुरु पद सेई ।।4।।
सतगुरु संत कंज में बासा । सुरत लाइ जो चढ़ै अकासा ।।5।।
स्याम कंज लीला गिरि सोई । तिल परिमान जान जन कोई ।।6।।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै । एक पलक छूटन नहिं पावै ।।7।।
स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा । तिल खिरकी में निसदिन वासा ।।8।।
गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ।।9।।
अनहद सुनै गुनै नहिं भाई । सूरति ठीक ठहर जब जाई ।।10।।
चूवै अमृत पिवै अघाई । पीवत पीवत मन छकि जाई ।।11।।
सूरत साध संध ठहराई । तब मन थिरता सूरति पाई ।।12।।
सूरति ठहरि द्वार जिन पकरा । मन अपंग होइ मानो जकरा ।।13।।
चमकै बीज गगन के माईं । जबहिं उजास पास रहै छाई ।।14।।
जस जस सुरति सरकि सतद्वारा । तस तस बढ़त जात उजियारा ।।15।।
सेत स्याम स्त्रुति सैल समानी । झरि झरि चूवै कूप से पानी ।।16।।
मन इस्थर अस अमी अघाना । तत्त पाँच रंग विधि बखाना ।।17।।
स्याही सुरख सफेदी होई । जरद जाति जंगाली सोई ।।18।।
तल्ली ताल तरंग बखानी । मोहन मुरली बजै सुहानी ।।19।।
मुरली नाद साध मन सोवा । विष रस बादि विधी सब खोवा ।।20।।
खिरकी तिल भरि सुरति समाई । मन तत देखि रहै टकलाई ।।21।।
जब उजास घट भीतर आवा । तत्त तेज और जोति दिखावा ।।22।।
जैसे मंदिर दीपक बारा । ऐसे जोति होत उजियारा ।।23।।
जोति उजास फाटि पुनि गयऊ । अंदर तेज चंद अस भयऊ ।।24।।
देखै तत सोइ मन है भाई । पुनि चन्दा देखै घट माईं ।।25।।
चन्द्र उजास तेज भया भाई । फूला चन्द चाँदनी छाई ।।26।।
सूरति देखि रहै ठहराई । ज्यों उजियास बढ़त जिमि जाई ।।27।।
ज्यों ज्यों सुरति चढ़ी चलि गयऊ । सेता ठौर ठाम लखि लयऊ ।।28।।
देख सैल ब्रह्माण्ड समाई । तारा अनेक अकास दिखाई ।।29।।
महि और गगन देखि उर माईं । और अनेकन बात दिखाई ।।30।।
कछु कछु दिवस सैल अस कीना । ऊगा भान तेज को चीना ।।31।।
तारा चन्द तेज मिटि गयऊ । जिमि मध्यान भान घट भयऊ ।।32।।
ज्यों दुपहैर गगन रवि छाई । ता से उजास भया घट माईं ।।33।।
ताके मधि में निरखि निहारा । घट में देखा अगम पसारा ।।34।।
सात दीप पिरथी नौ खंडा । गगन अकाश सकल ब्रह्मण्डा ।।35।।
समुन्दर सात प्रयाग पद बेनी । गंगा जमुना सरसुती भैनी ।।36।।
औरे नदी अठारा गण्डा । ये सब निरखि परा ब्रह्मण्डा ।।37।।
चारो खानि जीव निज होई । अंडज पिंडज उष्मज सोई ।।38।।
अस्थावर चर अचर दिखाई । ये सब देखा घट के माईं ।।39।।
भिनि भिनि जीवन कर विस्तारा । चारि लाख चौरासी धारा ।।40।।
और पहार नार बहुतेरा । जो ब्रह्माण्ड में जीव बसेरा ।।41।।
कछु कछु दिवस सैल अस कीना । तीनि लोक भीतर में चीना ।।42।।
जो जग घट घट माहिं समाना । घट घट जग जीव माहिं जहाना ।।43।।
ऐसे कइ दिन बीति सिराने । एक दिवस गये अधर ठिकाने ।।44।।
परदा दूसर फोड़ि उड़ानी । सुरत सोहागिन भइ अगवानी ।।45।।
शब्द सिन्ध में जाइ सिरानी । अगम द्वार खिड़की नियरानी ।।46।।
चढ़ि गइ सूरति अगम ठिकाना । हिय लखि नैना पुरुष पुराना ।।47।।
तामें पैठि अधर में देखा । रोम-रोम ब्रह्मण्ड का लेखा ।।48।।
अंड अनेक अन्त कछु नाहीं । पिंड ब्रह्मण्ड देखि हिय माँहीं ।।49।।
जहँ सतगुरु पूरन पद वासी । पदम माहिं सतलोक निवासी ।।50।।
सेत बरन वह सेतइ साईं । वहँ सन्तन ने सुरति समाई ।।51।।
सत्तहि लोक अलोक सुहेला । जहँ वह सुरति करै निज केला ।।52।।
सूरति सन्त करै कोइ सैला । चौथा पद सत नाम दुहेला ।।53।।
परदा तीसर फोड़ि समानी । पिंड ब्रह्मण्ड नहीं अस्थानी ।।54।।
जहाँ वो अगम अगाधि अघाई । जहाँ की सतगति सन्तन पाई ।।55।।
महुँ उन लार लार लरकाई । उन संग टहल करन नित जाई ।।56।।
महुँ पुनि चीन्ह लीन्ह वह धामा । बरनि न जाइ अगमपुर ठामा ।।57।।
निःनामी वह स्वामी अनामी । तुलसी सुरति तहाँ धरि थामी ।।58।।
जो कोइ पूछै तेहि कर लेखा । कस कस भाखों रूप न रेखा ।।59।।
तुलसी नैन सैन हिय हेरा । सन्त बिना नहिं होइ निबेरा ।।60।।
निज नैना देखा हिय आँखी । जस जस तुलसी कह-कह भाखी ।।61।।
पिंड माहिं ब्रह्मण्ड, ताहि पार पद तेहि लखा ।
तुलसी तेहि की लार, खोलि तीनि पट भिनि भई ।।
ध्यान की सुरति गगन के ऊपर नयन नासिका के अग्र बीच में है ।
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घट में बैठे पाँचो नादा । घट में लागी सहज समाधा ।।
पाँच शब्द का कहूँ विधाना । न्यारा न्यारा ठाम ठिकाना ।।
सत्त शब्द पहिले परवाना । सो कोइ साधू बिरले जाना ।।
सत्त शब्द सतलोक निवासा । जहाँ वा सत्त पुरुष का वासा ।।
दूजा शब्द सुंनि के माईं । तीजा अक्षर शब्द कहाई ।।
चौथा ओंकार विधि गाई । पंचम शब्द निरंजन राई ।।
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सन्त दयाल दया जो करई । लख लख भेद जीव निस्तरई ।।
सन्त अगम कोइ बिरले पावा । होइ दीन जब भेद लखावा ।।
अपना ज्ञान मान मद डारै । नीच होइ सोइ सहज निहारै ।।
दीन दयाल नाम उन केरा । दीन होइ जब होय निबेरा ।।
मोट ऊँचाई अपनी मानै । अपना ज्ञान ऊँच कर ठानै ।।
तासै सन्त नजर नहिं आवैं । नीचा होइ ताहि दरसावैं ।।
बिना सन्त नहिं होइहैं न्यारा । सन्त सरनि से उतरै पारा ।।
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सतगुरु मिलै तो भेद बतावै । नरियर मोड़त बास उड़ावै ।।
तन मन धन सन्तन पर वारै । निज नित सत्संगति की लारै ।।
दास भाव सत्संगति लीना । दीन हीन मन होय अधीना ।।
चित्त भाव दिल मारग पावै । सब साधन की टहल सुहावै ।।
ये विधि भाँति रहै रस लाई । सब सतगुरु सत दया लखाई ।।
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तज मन मूढ़ कूड़ पाखण्ड को, झूर झूठ सब धोखा खाई ।
तन कर नास वास चौरासी, फिरि फिरि जम धरि खाई ।।
या से मान मनी मति डारौ, लख गुरु गगन गवन बतलाई ।
सूरति डोर लील बिच खोलौ, फोड़ि के पछिम समाई ।।
सत्संग रंग दीन दिल पावै, मोटे मन तन बूझ न आई ।
जिन मन नीच कीच सम कीन्हा, उनकी दृष्टि समाई ।।
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