सुतीक्ष्ण दास

(रामानन्दी साधुजी)

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[सुतीक्ष्ण दास रामानन्दी साधुजी से सुनकर निम्नलिखित शब्द लिखा गया। ज्ञात होता है कि रामानन्द सम्प्रदाय के किसी अभ्यासी साधु का बनाया हुआ है।]

।। शब्द ।।
अकठ बिकठ रे भाई । कायर उठि चढ़ि नहीं जाई ।।
पश्चिम साँकर घाटी । फौज खड़ी है ठाठी ।।
नाद बिन्दु दोउ हाथी । सतगुरु मिल ले संग साथी ।।
सतगुरु जहाँ साहेब बिराजै । जहाँ नाम के नौबत बाजै ।।
अष्ट कँवल दल फूला । हंसा सरवर में भूला ।।
राग रंग बहु खासे । जहाँ हौए हंसन के बासे ।।
शब्द के सुनले शब्द के बुझले, शब्द से शब्द पहिचान कर भाई ।
शब्द तो हिरदे बसे शब्द तो नैंनों बसे शब्द की महिमा चार वेद गाई ।।
शब्द तो आकाश बसे शब्द तो पाताल बसे शब्द तो पिंड ब्रह्माण्ड छाई ।
आपु में देखले सकल में पेखले आपु मध्ये विचार कर भाई ।।
कहे श्री गुरु रामानन्द जी सत्य के शब्द सुन ले भाई ।
फकीरी अदल बादशाही कोई बिरले सन्त पाया ।।
सन्तो बन्दगीदार सहजे उतरे सागर पार ।
सोहं शब्द से कर ले प्रीत । अनुभव अखण्ड घर का जीत ।।
जहाँ नगर बसता है खूब । जिसमें करले आतम से मेल ।।
इन्द्रियाँ सिन्धु भूल मिलया। जिस पर परखना पाँ पाँव दहिने मध को चढ़ना।
आसन अमरलोक को करना । द्वादस पवन भरि पीना ।
उलटी अधार सीस को चढ़ना । दोनों नैनों के करले बान ।
भौआँ उलटि कस कमान । करले त्रिवेणी स्नान ।
मेट जाय तेरी आवा जान । बाजार उनके बाजे बोल ।
सिंधु रम राजे लगे हैं गीओं के बाजार । सन्तों बन्दों सौदा पार ।
दोउ है सरवर दोउ है पहार । जहाँ है कुदरत की छार ।
नौ लाख काला इनका मूल । आम कटे तो देख मत भूल ।
भौआँ ब्रह्म की ठाठी । पड़ी है प्रेम की फाँसी ।
बाजन बाजे बिना तंतूर । सहजे ऊगे पश्चिम सूर ।।
भौंरा है सुगन्ध के प्यासे । जहाँ है कमल में बासे ।
इन्द्री राम को देना । जिनको चोलना होवै जाल ।।
उनमति छरेद मतल अमोघ वस्य भाव अगनन छाऊ ।
अमृत निर्झर लाऊ ।।
एहि विधि चढ़नी चौंसठ सिढ़ियाँ तहाँ साहब बैठो थीर ।
निश दिन मोहबत उनसे कीजिये हृतम प्रेम के प्यारे, नहीं है नैनों से न्यारे ।
राम इनमें रम रहे, मरम न जानै कोय ।
जाके सतगुरु मिलया, ताके महरम होय ।।
कहे श्री गुरु रामानन्द जी छन हराग पग उषका दोउ सरवर के तीर ।
साधू खेले नटकला दिव्य दृष्टि को बन्द ।।
साधू परखे सबद को सुरत निरत के खेल ।
मोतिन की झाड़न लगी, हीरन का परगास ।
चाँद सूरज जहाँ गम नहीं तहाँ दरसन पावै दास ।।

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