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33. वैष्णव सम्प्रदाय के साधु श्रीइन्द्रनारायण दासजी ने लिखवाया
[श्री जगन्नाथपुरी, पापड़िया मठ बड़ा अखाड़ा सिंह दरवाजा ]
।। श्री गणेशाय नमः ।।
।।0।। अथ श्रीराम रक्षा स्तो=म् ।।0।।
ॐकार विन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।
ॐ संध्या तारिणी, सर्व दुःख निवारिणी,
संध्या उच्चरै विघ्न टरै, पिण्ड प्राण की रक्षा, श्रीनाथ निरंजन करै।
ज्ञान धूपं मनः पुष्पं पंचेन्द्रिय हुताशनम् ।
क्षमा जप समाधिश्च नमः देव निरंजनम् ।।
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
परम गुरवे नमः परात्पर गुरवे नमः ।
परमात्मा गुरवे नमः आत्मा गुरवे नमः ।।
आदि गुरुदेव, अनादि गुरुदेव, अनन्त गुरुदेव, अखिल गुरुदेव, चरण गुरुदेव, शरण गुरुदेव, श्री गुरु महाराज ! चरणारविन्द नमो नमस्ते । हरत सकल व्याधि, शोक, संताप, दुःख, दारिद्र, कलह, कल्पना, रोग, पीड़ा सकल विघ्न खण्ड खण्ड तस्मै श्री राम रक्षा निराकार वाणी।। अनुभव तत्त्व निर्भय मुक्ति जानी।। बाँधिया मूल देखिया स्थूल गर्जिया गगन धुन ध्यान लागा।। त्रिगुण रहित शील संतोष में राम रक्षा लिये प्राण ॐ कार जागा । पाँच तत्त्व, पाँच भूत, पचीस प्रकृति, पाँच भूतात्मा, पंच वायु, सम दृष्टि, सम घट और प्राण अपान उदान व्यान समान मिलि अनहद शब्द की खबर पाई।। उलटिया सूर गगन भेदी, नव ग्रह डंक छेदन किया, पेखिया चन्द्र जहाँ कला सारी।। अग्नि प्रकट भई, जरा वेदन जरि गई। डाकिनी साकिनी घेर मारी। धरणि आकाश बीच पन्थ चलता किया।। आगम निगम महारस अमृत पिया।। भूत प्रेत दैत्य दानव, संध्या तथा वज्र की कोठरी वज्र का दण्ड ले वज्र के खड्ग से काल मारा।। गरुड़ पक्षी उड़ा, नाग नागिन डस्या, विष की लहर से निद्रा न झपे। पिण्ड निर्मल हुआ पिंजरे पर सुवा रोग पीड़ा मिथ्या नहीं देह व्यापे रूम रूम ररंकार की उचरन्ति वाणी।। श्रवण सूँ नाद सुनता रहे सम दृष्टि मिष्टि मिला झिलमिल ज्योति ररंकार झलकता रहे नाद बिन्दु मिला भया रंग रेला। शून्य का नेहरा शून्य सूझता रहे आप से आप मिलि आप जाइ लागा। शरीर से शरीर मिलि शरीर स्वरस्ता रहे जीव सों जीव मिलि ब्रह्म जागा।। नयन सों नयन मिलि नयन निरखता रहे। मुख सों मुख मिलि बोल बोल्या, श्रवण सों श्रवण मिलि नाद सुनता रहे, शब्द सों शब्द मिलि शब्द खोल्या।। नृत्य सों नृत्य मिलि नृत्य लागी रहे, श्रुति सों श्रुति मिलि श्रुति आवे।। ध्यान धर ध्यान धर ध्यान सूझता रहै, ध्यान सों ध्यान मिलि जाप अजपा जपे सो इन्द्रिय मिलाय लेखे, चित्त सों चित्त मिलि चित्त चेतन हुआ। उन्मुनी दृष्टि स्वभाव देखे, द्वार सों द्वार मिलि शीश सों शीश मिलि जीव सों जीव मिलि देह सों देह मिलि भेद भेदा। मिट गया घोर अंधार तिहुँ लोक में स्वतः स्फटिक मणि हीरा भेदा। उघरंत नयन उचरंत वयन।। चन्द्र सूर्य दोऊ घर राखि एक स्थिरम् । हाँक हूँकार हनूमान ललकार किलकार मचता रहे, पकड़ि सो किया बावन वीर गंग उलटि चले भानु पश्चिम मिलि निरखिया ब्रह्म प्रकाश किया। आत्मा राम आप महि दीदार दर्शता रहे आप अजर जरि अमर हुआ। कंण कंणि कंण कंणि कुण कंणि हण हणि झुण झुणि नाद नादं।। चाचरी भूचरी खेचरी अगोचरी उन्मनि पाँच मुद्रा साधते साधु राजा डरो डुगरो जले अरु थले बाटे घाटे अघाटे निरंजन निराकार रक्षा करे । बाघ बाघनी का करो मुख काला, चौसठ योगिनी मारि कूट करे खेचरी भूचरी क्षेत्र पाला। अखिल ब्रह्माण्ड तीन लोक में दोहाई फिरबो करे, अलख पुरुष निरंजन निराकार के चक्र सूँ बाट बाटिया दृष्टि और मुष्टि छल छिद्र में वीर वैताल में ब्रह्माण्ड नव ग्रह अवधूत दूत पाखण्ड डार्या सोर में पंथ में घोर में चोर में देश में प्रदेश में राजा के तेज में अग्नि की झील में संकट परे तो राम रक्षा करे ।। पिण्ड ब्रह्माण्ड में खेलते मालते जागते ।। सोते बैठते उठते श्रीराम रक्षा करे ।। संत के शीश पै हाथ दिया रहे चरण अरु शीश सों आप रक्षा करे ।। गुप्त का जाप ले गुप्त साधे, चन्द्र सूर्य दोउ एक घर रहबो करे। जीतिया संग्राम देवादिदेव करि कमल सुधा किया। उलटि अमृत पिया विष का दर्द सब दूर भागा । कमल दल कमल दल ज्योति जले । भँवर गुंजार आकाश लागा, रोम नाड़ी त्वचा रक्त बिन्दु सोखता रहे । गर्जते गगन बाजते वेणु शंख शब्द त्रिकुटी सारंग दास रामानन्द निज तत्त्व विचारं । निज तत्त्वते होय ब्रह्म ज्ञानी श्री रक्षा दीयते उधरते प्राणी राजद्वारे पंथे घोरे संग्रामे शत्रु संकटे जाइ लागा, भनन्ते श्री राम रक्षा रामचंद्र उचरंते जानकीजी सुनन्ते, हनुमानजी सुनन्ते पावते लभ्यते मन स्थिर रहन्ते सन्ध्या काले मध्याह्न काले यो नरा मोक्ष फल पावते । पुनर्जन्म न विद्यते ।।
।। इति रामरक्षा रामानन्दजी की सम्पूर्ण शुभम् ।।
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