सूरदासजी महाराज के वचन 

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।। दोहा ।।
नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास ।
अविनासी विनसै नहीं, हो सहज जोति परकास ।।
(कल्याण के वेदान्त-अंक, 1993 वि0 सं0, पृ0 585 में उद्धृत)

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।। सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, राग कान्हरा, पद्य 2, भक्त-अंग ।।
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर अमित तोष उपजावै ।
मन बानी को अगम अगोचर सो जानै जो पावै ।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालम्ब मन चकृत धावै ।
सब विधि अगम विचारहिं तातें ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै ।।

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।। राग विलावल ।।
अपने जान मैं बहुत करी ।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी समुझी न परी ।।
दूरि गयो दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब विसरी ।
मनसा वाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी ।।
गुण बिनु गुणी स्वरूप रूप बिनु, नाम लेत श्री स्याम हरी ।
कृपा सिन्धु अपराध अपरमित, क्षमो ‘सूर’ तें सब बिगरी ।

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।। राग कान्हरा ।।
ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमडै़ सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितिय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई ।।

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।। स्कन्ध 2, राग बिहाग ।।
जो मन कबहुँक हरि को जाँचै ।
आन प्रसंग उपासना छाड़ै मन वच क्रम अपने उर साँचै ।।
निसिदिन स्याम सुमिरि यश गावै कल्पन मेटि प्रेम रस पाचै ।
यह व्रत धरै लोक में विचरै सम करि गनै महामणि काँचै ।।
शीत उष्ण सुख दुख नहिं मानै हानि भये कछु सोच न राचै ।
जाइ समाइ सूर वा निधि में बहुरि न उलटि जगत में नाचै ।।

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।। राग केदारा ।।
जा दिन सन्त पाहुने आवत ।
तीरथ कोटि अन्हान करे फल दरसन ते ही पावत ।।
नेह नयो दिन दिन प्रति उनको चरन कमल चित लावत ।
मन वच कर्म और नहिं जानत सुमिरत औ सुमिरावत ।।
मिथ्यावाद उपाधि रहित ह्वै विमल विमल जस गावत ।
बन्धन कठिन कर्म जो पहिले सोऊ काटि बहावत ।।
संगति रहै साधु को अनुदिन भव दुख दूरि नसावत ।
सूरदास या जनम मरण तें तुरत परम गति पावत ।।

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।। राग नट ।।
अपुनपौ आपुन ही विसर्यो ।
जैसे स्वान काँच मन्दिर में भ्रमि भ्रमि भूकि मर्यो ।।
हरि सौरभ मृग नाभि बसत है द्रुम तृन सूँघि मर्यो ।
ज्यों सपने में रंक भूप भयो तस करि अरि पकर्यो ।
ज्यों केहरि प्रतिबिम्ब देखि कै आपुन कूप पर्यो ।
जैसे गज लखि फटिक शिला में दसननि जाइ अर्यो ।
मरकट मूठि छाँड़ि नहिं दीनी घर घर द्वार फिर्यो ।
सूरदास नलनी को सुवटा कहि कौने जकर्यो ।

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।। राग नट ।।
जौं लौं सत स्वरूप नहिं सूझत ।
तौं लौं मृग मद नाभि विसारे, फिरत सकल वन बूझत ।
अपनो ही मुख मलिन मन्दमति, देखत दर्पन माहिं ।
ता कालिमा मेटिबे कारन, पचत पखारत छाहिं ।
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न बिना प्रकासत ।
कहत बनाइ दीप की बतियाँ, कैसे धौं तम नासत ।
सूरदास यह गति आये बिनु, सब दिन गये अलेखे ।
कहा जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे ।

(पुनः दूसरा पाठ-ग्रन्थ सूरपंचरत्न, विनय 48, पृ0 22, राग नट, संकलयिता-लाला भगवान दीन, प्रकाशक-रामनारायण लाल पब्लिशर तथा बुक्सेलर, इलाहाबाद)

जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत ।
तौं लौं मनु मणि कण्ठ विसारे, फिरत सकल वन बूझत ।
अपनो ही मुख मलिन मन्द मति, देखत दरपन माँह ।
ता कालिमा मेटिबे कारण, पचत पखारत छाँह ।
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत ।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत ।
सूरदास जब यह मति आई, वे दिन गये अलेखे ।
कह जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे ।

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।। स्कन्ध 4, राग नया ।।
अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो ।
राज कुँआर कंठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो ।
दियो बताइ और सतजन तब, तनु को पाप नसायो ।।
सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहूँ हिरायो ।
जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहुँ गयो न आयो ।।
सूरदास समुझे की यह गति, मन ही मन मुसकायो ।
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुर खायो ।।

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।। स्कन्ध 6, राग सारंग ।।
गुरु बिनु ऐसी कौन करै ।
माला तिलक मनोहर बाना लै सिर छत्र धरै ।।
भव सागर से बूड़त राखै दीपक हाथ धरै ।
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ छिन में लै उधरै ।।

स्कन्ध 7-
हरि की भक्ति करै जो कोई। सूर नीच सों ऊँच सु होई।।8।।

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।। कल्याण-साधानांक, पृ0 585 ।।
अबके माधव मोहि उधारि ।
मगन हौं भव-अंबु-निधि में, कृपा-सिंधु मुरारि ।।
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग ।
लिये जात अगाध जल में, गहे ग्राह अनंग ।।
मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोट अघ सिर भार ।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सेंवार ।।
काम क्रोध समेत तृष्णा, पवन अति झक झोर ।
नाहिं चितवन देत तिय सुत, नाक1 नौका ओर ।।
थक्यो बीच बेहाल विहवल, सुनहु करुणा मूल ।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु, ‘सूर’ ब्रज के कूल ।।

(1) आकाश ।

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।। संत-संग्रह, भाग 2 से उद्धृत ।।
जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं ।
ता दिन तेरे तन तरवर के, सबै पात झड़ जैहैं ।।
या देही का गर्व न करिये, स्यार काग गिध खइहैं ।
तीन नाम तन विष्ठा कृम होय, नातर खाक उड़इहैं ।।
कहाँ वह नैन कहाँ वह शोभा, कहँ रंग रूप दिखइहैं ।
जिन लोगन सों नेह करत हौ, सो तोहि देखि घिनइहैं ।।
जिन पुत्रन को बहु विधि पाल्यो, देवी देव मनइहैं ।
तेहि ले बाँस दियो खोपड़ी में, शीश फाड़ि बिखरइहैं ।।
घर के कहत सबेरे काढ़ो, भूत होय घर खइहैं ।
अजहूँ मूढ़ करो सत संगत, सन्तन में कछु पइहैं ।।
नर वपु धर जो जन नहिं गुरु के, जम के मारग जइहैं ।
सूरदास भगवन्त भजन बिन, वृथा सो जनम गँवइहैं ।।
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