शिवनारायण स्वामी के वचन 

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।। ग्रन्थ शब्दावली से ।।
(1)
तू ऐसो मन गगन में मगन रहो ।।
आवत जात उर्ध मुख पीवत संसा दाम दियो ।
सुरति सम्हारि ब्रह्म परगासो द्वादस मध्य गयो ।।
इंगला पिंगला दुइ नारि सिधारो सुषमन आनि दियो ।
ताटक नाटक घंट बजावत श्रवण सुधारि धरो ।।
शब्द अनाहत होत महाधुनि मकरा तार दियो ।
शिवनारायण बड़े भाग्य सों अजपा जाप पायो ।।

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(2)
सुरतिया हो नैना से न टरै ।
यह सुरतिया मेरो मन हर लीन्हा नाहिं जरै न मरै ।।
जब देखत तब सन्मुख दरसै क्रोटिन रूप धरै ।
शिवनारायण कहि समुझावत बिरलहि सूझि परै ।।

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(3)
मन रे तू लागि रहो यहि ओर ।।
सार शब्द कपाल भीतर होत अनहद शोर ।
सुनि समुझहिं मन मुदित नेहारत पलक परो जनि भोर ।।
मिलै गंगा सहित जमुना सुषमना की ओर ।
उलटि नैन निहारो भीतर क्रोटिन होत इंजोर ।।
सुन्न आसन आपु साईं बसन रँग रस भेार ।
शिवनारायण कहि समुझावल चितवत नैन के कोर ।।

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(4)
निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो तब उर होत इंजोर ।।
छूटत कर्म तार सब टूटत फूटत कठिन कठोर ।
शुभ अरु अशुभ कर्म ना लागे जागि धरो गृह चोर ।।
ससि ना सूर्य दिवस ना रजनी नहीं शाम नहिं भोर ।
आप देखै तो कर्म मिटावत शिवनारायण ओर ।।

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।। ग्रन्थ गुरु अन्यास से ।।
।। दोहा ।।
निसि बासर से ध्यान धरु, पलक न लावहु भोर ।
राह समारहु सुरति सों, तब पहुँचत सारशब्द की ओर ।।
।। चौपाई ।।
द्वादस अंगुली से ध्यान परवाना ।
पैसत सोई जन चतुर सुजाना ।।

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।। चोर-खंड ।।
।। चौपाई ।।
मारत सेंध प्रीति अति आवै । मगन रूप से ध्यान लगावै ।।
द्वादस अंगुल सेंध परमाना । पैसत सेइ जे चतुर सुजाना ।।

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।। ज्ञान चौंतीसा ।।
मूल है मस्तक पर सुन में गुपुत ।
पिया पहिचाने जो जाने जुगुत ।।
कलबुद में करसमा1 कहर2 ।
जरूर से जरा उड़ाना है लहर ।।
रेखे ना रूपे सरूपे ना अंग ।
चौ जुग का जुग है जगत है पतंग ।।
लागी है कुंजी केवाड़ी ताला ।
लखाई हंसा जाको गुरु मिला ।।
बरता है बाती बिना तेल से ।
खेलता है खेलवाड़ी बिना खेल से ।।
सकल है निरंकार सुनकार सुझता ।
काहू का डर नहीं सो जम से लड़ता ।।
सुनके मंदिल में अनहद के धमक ।
दामिन में दो मिल में बिजुली की छटक ।।
छटक जोति चाँद सुरज के शिवनारायण ।
आजमाबै जो कोई करेगा धियान ।।

(1) करतूत । (2) जुल्मी, अचरजी ।

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।। चाँचरी ।।
।। चौपाई ।।
सुनहु साधु तुम मन चित लाई ।
भोजन भेद कहूँ समझाई ।।
जीव पाले ओ मारे नाहीं ।
गो विप्र माने मन माहीं ।।
पर की नारि मातु सम धरहू ।
बिना सुवास के भोजन करहू ।।
गुरु के वचन सदा मन मानो ।
संत साधु से प्रीति लगानो ।।
राम नाम निरंतर से गावे ।
राम का द्रोही गुरु न बचावे ।।
गुरु का द्रोही सरन न पावै ।
मन बच करम से ध्यान लगावै ।।
नेम पूजा में दुनिया अटकी ।
सारी भगति हिरदे से खटकी ।।
पाँच तत्त के माला लाओ ।
पाँच बीस सब सखी बनाओ ।।
तीन गुनन के रोटी खाओ ।
सुखमनि घाट में ताड़ी लाओ ।।
आगे जोति एक झिलमिल बारो ।
सुरति डोरि ताकि के धारो ।।
द्वादस बीच एही परमाना ।
होत संत जो करे पयाना ।।
संसा सोच सकल विसराऊ ।
भजहु नाम अमर पद पाऊ ।।

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।। ग्रन्थ लौ परमाना ।।
शब्द निरभै, शब्द निरमल है। शब्द आदि और अन्त,
शब्द संत का मंत, शब्द सुरति तार, शब्द है निरधार ।
शब्द से शब्द निरखे, शब्द उतरे पार ।।
शब्द फल गुन करम, शब्द वेद का धरम ।
शब्द हिया महँ शब्द बेधे, शब्द जानत मरम ।।
शब्द निरगुन सरगुन सरूप, शब्द वक्ता चूप ।
शब्द हिया महँ शब्द बेधे, शब्द निरखे रूप ।।
शब्द आवे जाय, शब्द सल1 समाय ।
शब्द रूप सरूप अपना, शब्द रूप लखाय ।।
शब्द अण्ड अरु खण्ड, शब्द भरि ब्रह्मण्ड ।
शब्द गुरु सिष साधक, शब्द से प्रचण्ड ।।
शब्द सायर सूर, शब्द बाजे तूर ।
शब्द होय मन पूर, तब सखी अनन्त हजूर ।।
शब्द सब विधि शक्ति, शब्द सेवा भक्ति ।
शब्द जागता ज्योति, शब्द गति और मुक्ति ।।
शब्द वेद विचार, शब्द मिले तार ।
शब्द मथि कर शब्द पीवे, शब्द उतरे पार ।।
शब्द आदि अरु अंत, शब्द से प्रसंग ।
शब्द सखी अनन्त, शिवनारायण कन्त ।।
।। दोहा ।।
संत शब्द से सकल सभ, भये आप आय ।
शब्द सब मो मिलि रहे, शब्द सुरति धरि जाय ।।
शब्द आए याद नहिं, शब्द रूप सरूप ।
शब्द आपहु आपु है, शब्द नाम के रूप ।।

(1) शल = भाला।

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।। ग्रन्थ बीजक मूल ।।
।। दोहा ।।
आसन पदुम लगाय के, सुरत सँवारहु बाट ।
नयन नासिका बीच रखु, उतरे त्रिकुटी घाट ।।

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।। ग्रन्थ ब्रह्म-प्रकाश ।।
।। चौपाई ।।
द्वादश अंगुल अग्र परवाना ।
नयन नासिका सन्मुख जाना ।।

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।। ग्रन्थ हुकुमनामा, मुरदा का जवाब ।।
।। दोहा ।।
मुर्दा मन ठहराय ले, अंते मति कहिं जाउ ।
अदग रूप देखि आपना, दिल चाहे सो खाउ ।।
पंथ बराबरि सामने, निराधार धरु राह ।
राह रूप निज चढ़ि चलो, रस अनन्त गुन खाह ।।

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।। ग्रन्थ पाप-खण्डन ।।
नयन नासिका के आगे दोनों दृष्टि इकट्ठा कर दृष्टि अपना देखे, यही अंजोर जो है सोई दृष्टि है, सोई रूप है, सोई शब्द है, सोई नाम है ।
शिवनारायण सुनो दे काना । शब्द डोरि है नाम अपाना ।।
सोहं तार का खबर जो जाना । सोई पावे नाम अपाना ।।
जपे नाम गहे मन लाई । आपु देखे घर अपनो जाई ।।
शब्द सुरति के तार लगाई । तेहि चढ़ि आपन देश को जाई।।
।। दोहा ।।
लगा तार है शब्द का, जोउ सुरति धरि होइ।
रवि के रस्मि1 समेटि के, गगन विराजै सोइ।।
नयन नासिका आगरे, खड़ा सुरति गहो तार ।
मन के राखे हाथ में, देखते लागु न बार।।
।। चौपाई ।।
तन मन समेटि के एक बनावे । शब्दे ही ते शब्द मिलावे।।
मिले शब्द में तब होय न्यारा । जरा मरन से होत निबेरा।।
।। दोहा ।।
शब्द है देश शब्द रूप होई । शब्द आपहु आप कहाई।।
सब मिलि के एक होई । कहाँ हम कहाँ तुम कहाई।।

1- किरण


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।। दोहा ।।
ग्रन्थ 3 बानी-
शब्द आदि अरु अंत है, शब्द रूप सरूप ।
शब्द आपही आप है, शब्द नाम का रूप ।।
सभ मत मथि महरमी होय, देखि परखि सब बात ।
ब्रह्मज्ञान मन बसि करे, तब देखो निज गात ।।

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