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।। श्री गुरुदेव को अंग, मनहर छन्द ।।
गुरु के प्रसाद बुद्धि उत्तम दशा को गहै ।
गुरु के प्रसाद भव दुःख विसराइये ।
गुरु के प्रसाद प्रेम प्रीतिहु अधिक बाढ़ै ।
गुरु के प्रसाद राम नाम गुण गाइये ।
गुरु के प्रसाद सब योग की युगति जानै ।
गुरु के प्रसाद शून्य में समाधि लाइये ।
सुन्दर कहत गुरुदेव जू कृपालु होइ ।
तिन के प्रसाद तत्त्वज्ञान पुनि पाइये ।
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।। मनहर छन्द ।।
गोविन्द के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै यम फन्द तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ, फिरत है स्वछंद तैं ।।
गाविन्द के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुन्दर कहत गुरु, काढ़ै दुख द्वन्द्व तें ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तो महिमा, अधिक है गोविन्द तें ।।
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।। ज्ञान-समुद्र, पमंगल छन्द ।।
शब्दब्रह्म परिब्रह्म, भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन, मृषा1 करि मानिये ।।
बुद्धिवन्त सब सन्त, कहैं गुरु सोइ रे ।
और ठौर शिष जाइ, भ्रमे जिनि कोइ रे ।।
(1) मिथ्या, झूठ ।
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।। चाणक को अंग, इंदव छन्द ।।
कोउक जात प्रयाग बनारस, कोउ गया जगनाथहि धावै ।
कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार जु, कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै ।।
कोउ पुष्कर ह्वै पँच तीरथ, दौरिहि दौरि जु द्वारका आवै ।
सुन्दर वित्त गड्यो घर माहिंसु, बाहिर ढूँढ़त क्यूँ करि पावै ।।
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।। सांख्य ज्ञान को अंग, मनहर छन्द ।।
क्षिति जल पावक, पवन नभ मिलि करि ।
शब्द अरु सपरस, रूप रस गंध जू ।।
श्रोत्र त्वक चक्षु घ्राण, रसना रस को ज्ञान ।
वाक पाणि पाद पायु2, उपस्थहि3 बंध जू ।।
मन बुद्धि चित्त अहंकार, ये चौबीस तत्त्व ।
पंचविंश जीवतत्त्व, करत है द्वन्द्व जू ।।
षटविंश जानु ब्रह्म, सुन्दर सु निहकर्म ।
व्यापक अखण्ड एक, रस निरसंध जू ।।
(2) गुदा । (3) मूत्रेन्द्रिय ।
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।। मनहर छन्द ।।
ब्रह्म तें पुरुष अरु, प्रकृति प्रगट भई ।
प्रकृति तें महतत्त्व, पुनि अहंकार है ।।
अहंकारहू तें तीन गुण-सत्त्व रज तम ।
तमहू तें महाभूत, विषय पसार है ।।
रजहू तें इन्द्री दश, पृथक पृथक भईं ।
सत्त्वहू तें मन आदि, देवता विचार है ।।
ऐसे अनुक्रम करि, शिष्य सूँ कहत गुरु ।
सुन्दर कहत यह, मिथ्या भ्रम जार है ।।
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तू तौ कछु भूमि नाहिं, अप तेज वायु नाहिं ।
व्योम पंच विष नाहिं, सो तौ भ्रम कूप है ।।
तू तौ कछु इन्द्रिय रु, अन्तःकरण नाहिं ।
तीन गुण तू तौ नाहिं, न तौ छाहिं धूप है ।।
तू तौ अहंकार नाहिं, पुनि महतत्त्व नाहिं ।
प्रकृति पुरुष नाहिं, तू तौ स्वअनूप है ।।
सुन्दर विचार ऐसे, शिष्य सूँ कहत गुरु ।
नाहिं नाहिं कहत रहै, सोई तेरो रूप है ।।
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भूमि पर अप आपहू के, परे पावक है ।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परातपर, सुन्दर कहत है ।।
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अन्नमयकोश सो तौ, पिण्ड है प्रकट यह ।
प्राणमयकोश पंच, वायु ही बखानिये ।।
मनोमयकोश पंच, कर्म इन्द्रि है प्रसिद्ध ।
पंच ज्ञान इन्द्रिय, विज्ञानमय जानिये ।।
जाग्रते स्वप्न विषे, कहिये चत्वार कोश ।
सुषुपति माँहि कोश, आनन्दमय मानिये ।।
पंचकोश आतमा को, जीव नाम कहियत ।
सुन्दर शांकर-भाष्य, सांख्य ये बखानिये ।।
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जैसे व्योम कुम्भ के, बाहिर रु भीतर है ।
कोऊ नर कुम्भ कूँ, हजार कोश लै गयो ।।
ज्यूँ ही व्योम इहाँ त्यूँ ही, उहाँ पुनि है अखण्ड ।
इहाँ न विछोह, न वहाँ मिलाप के भयो ।।
कुम्भ तो नयो पुरानो, होइ के विनशि जाइ ।
व्योम तो न ह्वै पुरानो, न तो कछू ह्वै नयो ।।
तैसे ही सुन्दर देह, आवै रहै नाश होइ ।
आतमा अचल, अविनाशी है अनामयो ।।
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।। मनहर छन्द ।।
भावै देह छूटि जाहु, काशी माहिँ गंगा तट ।
भावै देह छूटि जाहु, क्षेत्र मगहर में ।।
भावै देह छूटि जाहु, विप्र के सदन मध्य ।
भावै देह छूटि जाहु, श्वपच के घर में ।।
भावै देह छूटै देश, आरय अनारय में ।
भावै देह छूटि जाहु, वन में नगर में ।।
सुन्दर ज्ञानी के कछु, संशय रहत नाहिं ।
स्वरग नरक सब, भागि गयो भरमें ।।
भावै देह छूटि जाहु, आज ही पलक माहिँ ।
भावै देह रहु चिरकाल, युग अन्त जू ।।
भावै देह छूटि जाहु, ग्रीषम पावस ऋतु ।
शरद शिशिर शीत, छूटत वसंत जू ।।
भावै दक्षिणायनहु, भावै उत्तरायणहु ।
भावै देह सर्प सिंह, बिजली हनत जू ।।
सुन्दर कहत एक, आतमा अखण्ड जानि ।
याही भाँति निरसंशै, भये सब सन्त जू ।।
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[आत्म-अनुभव को अंग]
।। इंदव छंद ।।
है दिल में दिलदार सही अखियाँ, उलटी करि ताहि चितैये ।
आब1 में खाक2 में बाद3 में आतश4, जान में सुन्दर जानि जनैये ।।
नूर5 में नूर है तेज में तेजहि, ज्योति में ज्योति मिले मिलि जैये ।
क्या कहिये कहते न बने कछु, जो कहिये कहते हि लजैये ।।1।।
व्योम को व्योम अनंत अखण्डित, आदि न अंत सुमध्य कहाँ है ।
को परमान करै परिपूरन, द्वैत अद्वैत कछू न जहाँ है ।।
कारण कारज भेद नहीं कछु, आप में आपहिं आप तहाँ है ।
सुन्दर दीसत सुन्दर माहिं सु, सुन्दरता कहि कौन उहाँ है ।।2।।
(1) पानी । (2) मिट्टी । (3) हवा । (4) अग्नि । (5) रोशनी ।
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।। मनहर छन्द ।।
जबही जिज्ञासा होइ चित्त एक ठौर आनि,
मृग ज्यूँ सुनत नाद श्रवण सो कहिये।
जैसे स्वाति बूँदहू कूँ चातक रटत पुनि,
ऐसेहि मनन करै कब बूँद लहिये।।
राति में चकोर जैसे चन्द्रमा को धरै ध्यान,
ऐसे जानी निदिध्यास दृढ़ करि गहिये।
यहै अनुभव यहै कहिये साक्षातकार,
सुन्दर पारे ते गलि पानी होइ रहिये।।1।।
[ज्ञान-समुद्र : पराभक्ति-वर्णन]
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।। छप्पय छन्द ।।
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
।। दोहा ।।
तुरिया साधन ब्रह्म को, अहं ब्रह्म सो होय ।
तुरियातीत अनुभव यहै, मैं तूँ रहै न कोय।।
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