संत गरीबदासजी की वाणी 

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निरगुन निरमल नाम है, अवगत नाम अबंच ।
नाम रते सो धनपती, और सकल परपंच ।
ऐसा सतगुरु हम मिला, सुरत सिंधु की सैल ।
बजर पौरि1 पट खोलि कर, ले गया झीनी गैल ।
सतगुरु के लच्छन कहँू, अचल विहंगम चाल ।
हम अमरापुर ले गया, ज्ञान शब्द के नाल2 ।
साहिब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साध ।
ये तीनों अंग एक हैं, गति कछु अगम अगाध ।
साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये संत ।
धर धर भेष विलास अंग, खेलैं आद अरु अन्त ।
ऐसा सतगुरु सेइये, शब्द समाना होय ।
भव सागर में डूबते, पार लगावै सोय ।
ऐसा सतगुरु सेइये, सोहं शब्द मिलाप ।
तुरिया मध आसन करै, मेटै तीनों ताप ।
तुरिया पर पुरिया3 महल, पार ब्रह्म का देश ।
ऐसा सतगुरु सेइये, शब्द विज्ञाना नेस4 ।
सुन बेसुन से अगम है, पिंड ब्रह्मण्ड से न्यार ।
सब्द समाना सब्द में, अवगत वार न पार ।
सतगुरु को कुरबान जाँ, अजब लखाया देश ।
पारब्रह्म परवान है, निरालंब निज वेश ।
अल्लह अविगत राम है, बेचगून5 चित माहिं ।
सब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नाहिं ।
अल्लह अविगत राम है, बेचगून निरबान ।
मेरा मालिक है सही, महल मढ़ीं नहिं थान ।
बिन रसना ह्वै बंदगी, बिन चस्में दीदार ।
बिन सरबन बानी सुनै, निर्मल तत्त निहार ।
अविनासी के नाम में, कौन नाम निज मूल ।
सुरत निरत से खोज ले, बास बड़ी अक6 फूल ।
ऐसा नाम अगाध है, निरभय निःचल पीर ।
अनहद नाद अखंड धुन, तन मन हीन शरीर ।
ऐसा नाम अगाध है, बाजीगर भगवंत ।
निरसंध निरमल देखिया, वार पार नहिं अंत ।
सोहं ऊपर और है, कोउ का जानै भेव ।
गोप गुसाईं गैब धुन, ताकी कर ले सेव ।
सुरत लगै अरु मन लगै, लगै निरत धुन ध्यान ।
चार जुगन की बन्दगी, एक पलक परमान ।
अधम उधारण भगति है, अधम उधारण नावँ ।
अधम उधारण संत हैं, जिनके मैं बल जावँ ।
जाके नाद न बिन्दु है, घट मठ नहीं मुकाम ।
गरीबदास सेवन करै, आदि अनादं राम ।
गगन गरज घन बरसहीं, बाजै दीरघ नाद ।
अमरापुर आसन करै, जिन्हके मते अगाध ।
गगन गरज घन बरसहीं, बाजै अनहद तूर ।
लै लागी तब जानिये, सन्मुख सदा हजूर ।
गगन गरज घन बरसहीं, दामिन खिमै अखण्ड ।
दास गरीब कबीर है, सकल दीप नौ खण्ड ।
अनंत कोटि धुन होत है, अनंत कोटि झनकार ।
एती सुन जरना जरै, सो जोगी करतार ।
निरगुन सरगुन सब कला, बहुरंगी वरियाम7।
पिंड ब्रह्माण्ड पूरन पुरुष, अवगत रमता राम ।
शब्द अनाहद जो रतै, दूजा नहीं उपाव ।
सुन्न मंडल में रम रहा, ना जहँ करम लगाव ।

(1) दरवाजा। (2) साथ। (3) बनाया। (4) निष्ठावान। (5) अनुपम । (6) कि, या । (7) सर्वश्रेष्ठ ।

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।। अरिल ।। (1)
मौला मगन मुरारि बिसंभर चीन्ह रे ।
दिल अंदर दीदार अरस दुरबीन रे ।
इला पिंगला फेर सुखमना ध्यावहीं ।
त्रिकुटि झरोखे बैठि परम पद पावहीं ।
झलकै सिंध अपार मुक्ति का धाम रे ।
अचल अगोचर देख पुरुष वरियाम रे ।
निकट निरंजन नूर जहूर जुहारिये ।
मीनी मारग खोज सिंधु यूँ फारिये ।
नैनों ही में लाल बिसाल अलेख है ।
अरे हाँ रे कहता दास गरीब रूप निंहं रेख है ।

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।। मंगल ।।
(1)
नारद पूरै नाद, सकल सुर आवहीं ।
सुन्न मंडल सतलोक, अगम घर छावहीं ।
जहाँ सेत धजा फहराहि, अरस1 तम्बू तना ।
अनहद नाद अगाध, लाये नूरी2 बना3 ।
नाद तूर डफ झाँझ, संख मुरली बजै ।
मिरदंग झालर4 भेरि, अजब तुरही सजै ।
रंग महल में रास, विलास अपार है ।
चलो सखी उस धाम, सु कंत हमार है ।
दस प्रकार अपार, अजब धुनि ध्यान है ।
दूलह बर बरियाम, पिया निःकाम है ।
बिषम दुहेली5 बाट, पंथ नहिं पाइये ।
सुन्न मंडल सतलोक, कौन विधि जाइये ।
सुन्न मंडल सतलोक, दुलहिनी दूर है ।
सब्द अतीत पिछान, नूर भरपूर है ।
नूर रहा भरपूर, दिवाना देश है ।
दुलहिन दास गरीब, तखत जिस पेस6 है ।

(1) अर्श-सहस्त्रदल कमल । (2) प्रकाशवन्त । (3) बन्ना-दूल्हा। (4) झाल। (5) मुश्किल । (6) आगे ।

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