पलटू साहब की वाणी 

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।। भाग 1, शब्द 1 ।।

।। कुण्डलिया ।।

धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
शब्द में है गलतान1 अवस्था ऐसी जाकी ।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।।
तुरिया सेति अतीत सोधि फिरि सहज समाधी ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
(1) मस्त

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।। शब्द 2 ।।
सतगुरु सिकलीगर मिलैं तब छुटै पुराना दाग ।
छुटै पुराना दाग गड़ा मन मुरचा माहीं ।
सतगुरु पूरे बिना दाग यह छूटै नाहीं ।
झाँवाँ लेवै जोग तेग को मलै बनाई ।
जौहर देय निकार सुरत को रंद चलाई ।
शब्द मस्कला करै ज्ञान का कुरँड1 लगावै ।
जोग जुगत से मलै दाग तब मन का जावै ।
पलटू सैफ को साफ करि बाढ़ धरै वैराग ।
सतगुरु सिकलीगर मिलैं तब छुटै पुराना दाग ।

(1) एक तरह का पत्थर, जो सिकल करने के काम में आता है ।

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।। शब्द 3 ।।
संत सनेही नाम है नाम सनेही संत ।
नाम सनेही संत नाम को वही मिलावैं ।
वे हैं वाकिफकार मिलन की राह बतावैं ।
जप तप तीरथ बरत करै बहुतेरा कोई ।
बिना वसीला संत नाम से भेंट न होई ।
कोटिन करै उपाय भटक सगरो से आवै ।
संत दुवारे जाय नाम को घर तब पावै ।
पलटू यह है प्राण पर आदि सेती और अंत ।
संत सनेही नाम है नाम सनेही संत ।

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।। शब्द 4 ।।
दीपक बारा नाम का महल भया उजियार ।
महल भया उजियार नाम का तेज विराजा ।
शब्द किया परकास मानसर ऊपर छाजा ।
दसो दिसा भई सुद्ध बुद्ध भई निर्मल साँची।
छुटी कुमति की गाँठि सुमति परगट होय नाची ।
होत छतीसो राग दाग तिरगुन का छूटा ।
पूरन प्रगटे भाग करम का कलसा फूटा ।
पलटू अँधियारी मिट गई बाती दीन्ही टार ।
दीपक बारा नाम का महल भया उजियार ।

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।। शब्द 5 ।।
साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय ।
जैसो हरि यस होय ताहि को गरहन कीजै ।
तन मन धन सब वारि चरन पर तेकरे दीजै ।
नाम से उत्पति राम संत अनाम समाने ।
सब से बड़ा अनाम नाम की महिमा जाने ।
संत बोलते ब्रह्म चरन कै पिये पखारन ।
बड़ा महा परसाद सीत संतन कर छाड़न ।
पलटू संत न होवते नाम न जानत कोय ।
साध महातम बड़ा है जैसो हरि यस होय ।

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।। शब्द 6 ।।
बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ।
जल में खोजै राम जाय के तीरथ छानै ।
भरमै चारिउ खूँट नहीं सुधि अपनी आनै ।
फूल माहिं ज्यों बास काठ में अगिन छिपानी ।
खोदे बिनु नहिं मिलै अहै धरती में पानी ।
दूध मँहै1 घृत रहै छिपी मिँहदी में लाली ।
ऐसे पूरन ब्रह्म कहूँ तिल भरि नहिं खाली ।
पलटू सत्संग बीच में करि ले अपना काम ।
बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ।

(1) में ही, अंदर ।

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।। शब्द 7 ।।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ।
सो ध्यानी परमान सुरत से अंडा सेवै ।
आप रहै जल माहिं सूखे में अंडा देवै ।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।
फनि मनि धरै उतारि आपु चरने को जावै ।
वह गाफिल ना पड़ै सुरति मनि माहिं रहावै ।
पलटू सब कारज करै सुरति रहै अलगान ।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान ।


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।। शब्द 8 ।।
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास ।
साहिब तेरे पास याद करु होवे हाजिर ।
अन्दर धसि के देखु मिलैगा साहिब नादिर ।
मान मनी हो फना नूर तब नजर में आवै ।
बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै ।
रुह करै मेराज1 कुफर का खोलि कुलाबा2 ।
तीसो रोजा रहै अन्दर में सात रिकाबा3 ।
लामकान में रब्ब को पावै पलटू दास ।
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास ।

(1) चढ़ाई । (2) जंजीर, सिकरी । (3) पद, स्थान ।

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।। शब्द 9 ।।
बंसी बाजी गगन में मगन भया मन मोर ।
मगन भया मन मोर महल अठवें पर बैठा ।
जहाँ उठै सोहंगम सब्द सब्द के भीतर पैठा ।
नाना उठैं तरंग रंग कुछ कहा न जाई ।
चाँद सुरज छिपि गये सुषमना सेज बिछाई ।
छूटि गया तन गेह नेह उनही से लागी ।
दसवाँ द्वारा फोड़ि जोति बाहर ह्वै जागी ।
पलटू धारा तेल की मेलत ह्वै गया भोर ।
बंसी बाजी गगन में मगन भया मन मोर ।

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।। शब्द 10 ।।
ऐसा ब्राह्मण मिलै जो ताके परछौं पायँ ।
ताके परछौं पायँ ब्रह्म अपने को पावै ।
भर्म जनेऊ तोड़ि प्रेम तिरसूत बनावै ।
सब कर्मन को करै कर्म से रहता न्यारा ।
दुतिया देइ बहाय ब्रह्म का करै विचारा ।
ज्ञान दिवस में शयन मोह रजनी में जागै ।
पार ब्रह्म भगवान ताहि घर भिच्छा माँगै ।
चेतन देय जगाय ब्रह्म की गाँठि को खोलै ।
करै गायत्री गुप्त शब्द ब्रह्माण्ड में बोलै ।।
पलटू तजै अठारह सहस वरन ह्वै जाय ।
ऐसा ब्राह्मण मिलै जो ताके परछौं पायँ ।।

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।। भाग 2, शब्द 11, रेखता ।।
कोटि हैं बिस्नु जहँ कोटि सिव खडे़ हैं, कोटि ब्रह्मा तहाँ कथैं बानी ।
कोटि देवी जहाँ खड़ी हैं चेरियाँ, कोटि फन सहस ना मरम जानी ।।
कोटि आकास पाताल फिरि कोटि हैं, कोटि ब्रह्माण्ड सौ कोटि ज्ञानी ।
दास पलटू कहै बड़े दरबार में, इन्द्र हैं कोटि तहँ भरैं पानी ।।

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।। शब्द 12 ।।
पूरब में राम है पश्चिम में खुदाय है,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता ।
साहिब वह कहाँ है कहाँ फिर नहीं है,
हिन्दू और तुरक तोफान करता ।।
हिन्दू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि1 में,
आपनी वर्ग2 दोउ दीन3 कहता ।
दास पलटू कहै साहिब सब में रहै,
जुदा ना तनिक मैं साँच कहता।।

(1) तरफदारी। (2) दर्जा, पक्ष। (3) फिरका, मजहब।

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।। शब्द 13 ।।
घट औ मठ ब्रह्माण्ड सब एक है, भटकि कै मरत संसार सारा ।
मृगा की वासना वही छूटै नहीं, आपको भूलि बहु बार हारा ।।
आपको खोज तू भर्म को छोड़ि दे, कोटि बैकुण्ठ ससि भानु तारा ।
दास पलटू कहै बहुत तहकीक4 करि, बोलता ब्रह्म है राम प्यारा ।।

(4) खोज।

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।। शब्द 14, झूलना ।।
जो गया साहिब के खोजने को, सो आपै गया हेराय है जी ।
समुन्दर के बीच में बुन्द परा, उसी में गया समाय है जी ।।
पानी लहरि लहरि पानी, को भेद सकै अलगाय है जी ।
पलटू हरफ मसी5 दोय नाहीं, यह बात ले ठीक ठहराय है जी ।।

(5) स्याही।

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।। शब्द 15 ।।
मुक्ति मुक्ति सब खोजत है, मुक्ति कहो कहँ पाइये जी।
मुक्ति को हाथ औ पाँव नहीं, किस भाँति सेति दिखलाइये जी।
ज्ञान ध्यान की बात बूझिये, या मन को खूब समझाइये जी।
पलटू मुए पर किन्ह देखा, जीवत ही मुक्त हो जाइये जी।

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।। शब्द 16, अरिल ।।
जो कोइ चाहै नाम सो नाम अनाम है ।
लिखन पढ़न में नाहिं निअच्छर काम है ।
रूप कहौं अनरूप पवन अनरेख ते ।
अरे हाँ पलटू गैब दृष्टि से सन्त नाम वह देखते ।

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।। शब्द 17 ।।
जो तुझको है चाह सजन को देखना ।
करम भरम दे छोड़ि जगत का पेखना1 ।
बाँध सुरत की डोरि शब्द में पिलेगा2 ।
अरे हाँ पलटू ज्ञान ध्यान के पार ठिकाना मिलेगा ।

(1) तमाशा । (2) घुसेगा ।

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।। शब्द 18 ।।
अं अः औघै ओअं एक और नाहीं कोइ दूजा ।
एक ब्रह्म संसार करौं मैं किसकी पूजा ।
समुझ पड़ा करतार करम को किया भगूरा3 ।
अरे हाँ पलटू दुरमति भागी दूति, मिला जब सतगुरु पूरा ।

(3) कर्म को भगा दिया ।

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।। भाग 3, शब्द 19 ।।
पिया है प्रेम का प्याला । हुआ मन मस्त मतवाला ।।1।।
भया दिल होस से भाई । बेहोसी जगत विसराई ।।2।।
बिंद में नाद का मेला । उलटि के खेल यह खेला ।।3।।
जोग तजि जुक्ति को पाई । जुक्ति तजि रूप दरसाई ।।4।।
रूप तजि आपु को देखा । आपु में पवन की रेखा ।।5।।
उसी की गिरह संसारा । पलटू दास है न्यारा ।।6।।

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।। शब्द 20 ।।
नहीं मुख राम गाओगे। आगे दुख बड़ा पाओगे ।।1।।
राम बिन कौन तारेगा । पकड़ जमदूत मारेगा ।।2।।
कबौं1 सत्संग ना कीन्हा। भूखे को नाहिं कुछ दीन्हा ।।3।।
माया औ मोह में झूले। कुटुम परिवार लखि फूले ।।4।।
पुछै धर्मराज जब भाई। वचन मुख नाहिं कहि आई ।।5।।
पलटू दास लखि रोया। सुघर तन पाय के खोया ।।6।।

(1) कभी ।

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।। शब्द 21।।
पलटू कहै साच कै मानौ । और बात झूठ कै जानौ ।।
जहवाँ धरती नहिं अकासा । चाँद सुरुज नाहीं परगासा ।।
जहवाँ ब्रह्मा विष्णु न जाहीं । दस अवतार न तहाँ समाहीं ।।
जहवाँ पवन जाय नहिं पानी । वेद कितेब मरम ना जानी ।।
आदि जोति ना बसै निरंजन । जहवाँ शून्य शब्द नहिं गंजन ।।
निरंकार ना उहाँ अकारा । सत्य शब्द नाहीं विस्तारा ।।
जहवाँ जोगी जोग न पावै । महादेव ना तारी लावै ।।
जहवाँ हद अनहद नहिं जावै । बेहद वह रहनी ना पावै ।।
जहवाँ नाहिं अगिनि परगासा । पाँच तत्त ना चलता स्वाँसा ।।
ब्रह्मज्ञान ना पहुँचै उहवाँ । अनभौ पद ना बोलै तहवाँ ।।
सात सर्ग अपवर्ग न कोई । पिण्ड उहाँ ब्रह्मण्ड न होई ।।
जहँवा करता करै न पावै । सिद्धि समाधि ध्यान ना लावै ।।
अजपा गिरा लंबिका2 नाहीं । जगमग झिलमिल उहाँ न जाहीं ।।
सोहं सोहं उहाँ न बोलै । चलै न जुक्ति सुरति ना डोलै ।।
उहवाँ नहीं रहै अविनासी । पूरन ब्रह्म सकै ना जासी ।।
निर्भौ नाद नहीं वंकारा । निर्गुन रूप नहीं विस्तारा ।।
पलटू दास तहाँ चलि गया । आगे होइ पाछे ना भया ।।
पलटू देखि हाथ को मलै । आगे कहौं तो परदा खुलै ।।
आदि न अंत मध्य नहि, रंग रूप नहिं रेख ।
गुप्त बात गुप्तै रही, पलटू तोपा देख ।

(2) हठयोग की एक क्रिया ।

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।। शब्द 22 ।।
भक्त के मैं कहूँ लच्छन साधू करहु विचारनं ।
प्रथम दासातन कर के सन्त से हित लावनं ।
रहत चलिकै सन्त सेवा द्रव्य तन मन वारनं ।
तिलक कै स्नान पूजा कर्म में चित लावनं ।
इक पहर एकांत ह्वै के सुन्न ध्यान लगावनं ।
इक पहर सुन स्त्रवन हरिजस अर्थ सहित मिलावनं ।
पहर भरि कै नाद रसना सकल जंत्र बजावनं ।
इक पहर कै कर्मकिरिया रैन दिवस कटावनं ।
चढै़ गगन अकास गरजै द्वार दसम निकासनं ।
जोति झिलमिल झरै मोती हंस कँहै1 चुगावनं ।
सुरत से जब निरत होवै सुरत शब्द कहावनं ।
दिव्य दृष्टि विलोकि सरवन शब्द सुरत मिलावनं ।
भूख और पियास निद्रा काम क्रोध विसारनं ।
आँख मूँदि के ध्यान लावै द्वार दसवाँ खोलनं ।
नाम कै सुर नाद अनहद शब्द के झनकारनं ।
गैब कँहै स्त्रवण सूच्छम शब्द कहै सुनावनं ।
भजन में है जुगल मारग विहंग और पपीलनं ।
पपील मद्धे सिद्ध कहिये विहंग संत कहावनं ।
अनेक जन्म जब सिद्ध होवे अन्त सन्त कहावनं ।
सिद्ध से जब सन्त होवै आवागमन मिटावनं ।
सन्त हरि के निकट रहते सिद्ध से हरि दूरिनं ।
सिद्ध चिन्ता रहत निसि दिन सन्त भजन अचिन्तनं ।
बिन्दु में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनं ।
दास पलटू होय ऐसन सोई विस्नु सरूपनं ।
राम नाम जेहि मुखन तें, पलटू होय प्रकास ।
तिनके पद वन्दन करौं, वो साहिब मैं दास ।
राम नाम जेहि उच्चरै, तेहि मुख देहुँ कपूर ।
पलटू तिनके नफर2 की, पनही का मैं धूर ।
राम का मिलना सहज है, सन्त का मिलना दूर ।
पलटू सन्त के मिले बिनु, राम से परै न पूरि ।

(1) को ही । (2) सेवक ।

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