बाबा धारनीदासजी 

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।। शब्द 1 ।।
सुमिरो हरि नामहिं बौरे ।।टेक।।
चक्रहुँ चाहि चलै चित चंचल, मूल मता गहि निस्चल कौरे ।
पाँचहुँ तें परिचै करु प्राणी, काहे के परत पचीस के झौरे3 ।।1।।
जौं लगि निरगुन पंथ न सूझै, काज कहा महि मंडल दौरे ।।2।।
शब्द अनाहद लखि नहिं आवे, चारोपन चलि ऐसहि गौरे ।।3।।
ज्यों तेली को बैल बेचारा, घरहिं में कोस पचासक भौरे ।।4।।
दया धरम नहिं साधु की सेवा, काहे के सो जनमे घर चौरे ।।5।।
धरनीदास तासु बलिहारी, झूठ तजो जिन्ह साँचही धौरे4 ।।6।।

(1) राह-कुराह। (2) चुप। (3) झमेला। (4) धारण किया, गहा।

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।। शब्द 2 ।।
नाम नौका चढ़ो चित दे, बिना वाद विवाद ।
तहाँ लै मन पवन राखो, जहाँ अनहद नाद ।।
थकित होइहैं पाँच, अरु पचीस रहिहैं थीर ।
दसे द्वारे झलमले, मनि मोति मानिक हीर ।

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।। शब्द 3 ।।
सेत झलाझल झलकै जहाँ । सुरति निरति लव लावो तहाँ ।।
सहजहिं रहो गहो सेवकाई । सन्मुख मिलिहैं आतम राई ।।

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।। शब्द 4, पहाड़ा ।।
एका एक मिलै गुरु पूरा, मूल मंत्र जो पावै ।
सकल संत की बानी बूझै, मन परतीत बढ़ावै ।
दूआ दूइ तजै जो दुविधा, रज गुन तम गुन त्यागै ।
सतगुरु मारग उलटि निरखै, तब सोवत उठि जागै ।
तीया तीन त्रिवेणी संगम, सो बिरले जन जाना ।
तृष्णा तामस छोड़ि दे भाई, तब करु वहँ प्रस्थाना ।
चौथे चारि चतुर नर सोई, चौथे पद कहँ लागी ।
हँसि कै परम हिंडोलना झूलै, निरखत भा अनुरागी ।
पंचयें पाँच पचीसहिं बस करि, साँच हिये ठहरावै ।
इंगला पिंगला सुखमन सोधै, गगन मंडल मठ छावै ।
छठयें छवो चक्र को बेधे, सुन्न भवन मन लावै ।
विगसत कमल काया करि परचै, तब चन्दा दरसावै ।
सतयें सात सहस धुनि उपजै, सुनि धुनि आनंद बाढ़ै ।
सहजहिं दीन दयाल दया करि, बूड़त भव जल काढ़ै ।
अठयें आठ अकासहिं निरखो, दृष्टि अलोकन होई ।
बाहर भीतर सर्व निरंतर, अंतर रहै न कोई ।
नवें नवो दुवारहिं निरखै, जगमग जगमग जोती ।
दामिनि दमकै अृमत बरसै, निझर झरै मनि मोती ।
दसयें दस दहाइ पाइ के, पढ़ि ले एक पहारा ।
धरनीदास तासु पद बंदे, अहि निसु बारम्बारा ।

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।। साखी, ध्यान ।।
धरनी ध्यान तहाँ धरो, उलटि पसारो दृष्टि ।
सहज सुभावहिं होत जहँ, पुहुप माल की वृष्टि ।
धरनी ध्यान तहाँ धरो, जहवाँ खुलहिं किवार ।
निरखि निरखि परखत रहो, पल पल बारम्बार ।
धरनी ध्यान तहाँ धरो, प्रगट जोति फहराहिँ ।
मनि मानिक मोती झरै, चुगि चुगि हंस अघाहिँ ।
धरनी ध्यान तहाँ धरो, त्रिकुटी कुटी मझार ।
धर के बाहर अधर है, सनमुख सिरजनहार ।
धरनी अधरे ध्यान धरु, निसिवासर लौ लाइ ।
कर्म कीच मगु बीच है, (सो) कंचन गच ह्वै जाइ ।
धरनी निर्मल नासिका, निरखो नयन के कोर ।
सहजै चन्दा ऊगिहैं, भवन होइ उजियोर ।

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