केशव दासजी की अमीघूँट 

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।। राग मंगल ।।
(शब्द 1)
धनि सो घरी धनि बार, जबहिं प्रभु पाइये ।
प्रगट प्रकास हजूर, दूर नहिं जाइये ।
नहिं जाइ दूर हजूर साहिब, फूलि सब तन में रह्यो ।
अमर अछय सदा जुगन जुग, जक्त-दीपक उगि रह्यो ।
निरखि दसो दिसि सर्व सोभा, कोटि चन्द सुहावनं ।
सदा निरभय राज नित सुख, सोई केसो ध्यावनं ।
पूरन सर्व निधान, जानि सोइ लीजिये ।
निर्मल निर्गुन कंत, ताहि चित्त दीजिये ।
दीजिये चित रीझि के उत, बहुरि इतहिं न आइये ।
जहँ तेजपुंज अनंत सूरज, गगन में मठ छाइये ।
लिये घट पट खोलि के प्रभु, अगम गति तब गति करीे ।
बढ़ो अधिक सुहाग केसो, बीछुरत नहिं इक घरी ।
अद्भुत भेख बनाय, अलेख मनाइये ।
निसि बासर करि प्रेम, तो कंठ लगाइये ।
लाइये घट छाड़ि के मठ, उमँगि सोहं भरि रहो ।
बढ़ो अधिक सुहाग सुंदरि, अलख स्वामी रमि रहो ।
मिल्यो प्रभु अनूप उदै अति, सर्व गति जा सों भई ।
आदि अंत अरु मध्य सोई, मिलि पिया केसो मई ? ।
फूलि रह्यो सब ठाँव, तो धरनि अकास में ।
सो त्रिभुवन पति नाथ, निरखि लियो आप में ।
निरखि आपु अघात नाहीं, सकल सुख रस सानिये ।
पिवहिं अमृत सुरति भर करि, संत बिरला जानिये ।
कोटि विस्नु अनंत ब्रह्मा, सदा सिव जेहि ध्यावहीं ।
सोइ मिल्यो सहज सरूप केसो, अनंद मंगल गावहीं ।

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।। शब्द 2 ।।
निरखि रूप मन सहज समाना। मैं तैं मिटि गो भर्म पराना1 ।।1।।
अच्छर माहिं निअच्छर देखा । सोई सब जीवन का लेखा ।।2।।
ऐसो भेद जो जानै कोई । ताको आवागमन न होई ।।3।।
जैसे उग्र ऋनि कहवाया । मिटि गा रूप भेष नहिं माया ।।4।।
ऐसे निर्मल हैं ब्रह्म ज्ञानी । सदा बखानहिं अमृत बानी ।।5।।
उदित पुरुष निरमल जेहि काया । सोई साहिब केसो छाया ।।6।।

(1) भाग गया ।

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।। शब्द 3 ।।
छाया काया तें प्रभु न्यारा । धरनि अकास के बाहर पारा ।।1।।
अगम अपार निरंतर वासी । हलै न टलै अगम अविनासी ।।2।।
वा कहँ अद्भुत रूप न रेखा । अगम पुरुष प्रभु सब्द अलेखा ।।3।।
निज जन जाय तहाँ प्रभु देखा । आदि न अंत नाहिं कछु भेखा ।।4।।
मिलि अंगम सुख सहज समाया। या बिधि केसो बिसरी काया ।।5।।

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।। शब्द 4 ।।
गगन मगन धुनि लगन लगी । सुनत सुनत तन तृप्त भई ।।1।।
जगर मगर नहिं डगर बगर1 नहिं । रवि ससि निसु दिन भाव नहीं ।।2।।
प्रान गवन हरि पवन मवन 2 करि । मिलि सन्मुख पिय बाँह गही ।।3।।
सत रति सत्त पती हम पावल । केसो दास सुहाग सही ।।4।।

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।। साखी ।।
सात दीप नौ खंड के, ऊपर अगम अवास ।
सब्द गुरू केसो भजे, सो जन पावै वास ।
आसा मनसा सब थकी, मन निज मनहिं मिलान ।
ज्यों सरिता समुन्दर मिली, मिटिगो आवन जान ।
केसो दुविधा डारि दे, निर्भय आतम सेव ।
प्रान पुरुष घट-घट बसै, सब महँ सब्द अभेव ।

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