दरिया साहब (मारवाड़ी)

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।। साखी ।।
सोई कन्थ कबीर का, दादू का महराज ।
सब सन्तन का बालमा, दरिया का सिरताज ।।
।। सतगुरु का अंग ।।
डूबत रहा भव सिन्ध में, लोभ मोह की धार ।
दरिया गुरु तैरू मिला, कर दिया पैले पार ।
दरिया मिरतक देखकर, सतगुरु कीनी रीझ ।
नाम सजीवन मोहि दिया, तीन लोक को बीज ।
तीन लोक को बीज है, ररो ममो दो अंक ।
दरिया तन मन अर्पि के, पीछे होय निसंक ।
जन दरिया गुरुदेव जी, सब विधि दई बताय ।
जो चाहो निज धाम को, तो साँस उसाँसो ध्याय ।
सोता था बहु जन्म का, सतगुरु दिया जगाय ।
जन दरिया गुर शब्द सों, सब दुख गये बिलाय ।
सतगुर शब्दाँ मिट गया, दरिया संसय सोग ।
औषद दे हरिनाम का, तन मन किया निरोग ।
दरिया सतगुर कृपा करि, शब्द लगाया एक ।
लागत ही चेतन भया, नेत्तर खुला अनेक ।
दरिया गुर पूरा मिला, नाम दिखाया नूर ।
निसा1 भई सुख ऊपजा, किया निशाना दूर ।
शब्द गहा सुख उपजा, गया अन्देशा मोहि ।
सतगुर ने किरपा करी, खिड़की दीनी खोहि ।

(1) तसल्ली ।

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।। सुमिरन का अंग ।।
दरिया नर तन पाय कर, किया न राम उचार ।
बोझ उतारन आइआ, सो लिये चले सिर भार ।
जो कोइ साधू गृही में, माहिं राम भरपूर ।
दरिया कह उस दास की, मैं चरनन की धूर ।
बाहर बाना भेष का, माहिं राम का राज ।
कह दरिया वे साधवा, हैं मेरे सिर का ताज ।
दरिया दूजे धर्म से, संसय मिटे न सूल ।
राम नाम रटता रहै, सर्व धर्म का मूल ।

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।। नाद परचे का अंग ।।
दरिया त्रिकुटी संध में, मन ध्यान धरै कर धीर ।
अवस चलत है सुषमना, चलत प्रेम की सीर ।
घुरै नगारा गगन में, बाजे अनहद तूर ।
जन दरिया जहाँ थिवि रची, निसि दिन बरसै नूर ।
सुरत गगन में बैठकर, पति का ध्यान सँजोय ।
नाड़ि नाड़ि रूँ रूँ विषे, ररंकार धुन होय ।
नौबत बाजै गगन में, बिन बादल घन गाज ।
महल विराजै परम गुरु, दरिया के महराज ।

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।। ब्रह्म परचे का अंग ।।
मन बुध चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर ।
मन बुध चित हंकार यह, रहैं अपनी हद माहिं ।
आगे पूरन ब्रह्म है, सो इनकी गम नाहिं ।
काया अगोचर मन्न अगोचर, शब्द अगोचर सोय ।
जन दरिया लवलीन होय, पहुँचेगा जन कोय ।
आँखों से दीखै नहीं, शब्द न पावै जान ।
मन बुध तहाँ पहुँचैं नहीं, कौन कहै सेलान1 ।

(1) निशान।
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