दरिया साहब (बिहारी)

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।। चौपाई ।।
मन अब मीन चंचल है भाऊ। चंचल लोचन चहु दिसि धाऊ ।।1।।
दृष्टि भीतर अब दृष्टि समोऐ । लागी झरी अमृत रस पोऐ ।।2।।
इमि करि ईस होय उजियारा । ममता मद सभे मेटि डारा ।।3।।
अजहु चेतु चेतनि चित लाई । दयावन्त गुन कहा न जाई ।।4।।
मीन मासु त्यागो रस भोगा । सतगुरु चरन सुमिरु निजु जोगा ।।5।।
।। दोहा ।।
साधु भोजन नहिं भवन में, नहिं सतगुरु से प्रीत ।
सागर को जल अचवन, बारुन चाहत नीत ।।2।।
।। चौपाई ।।
साधु सोई निर्मल गुन सारा । बारै दृष्टि करै उजियारा ।।1।।
जौं मराल मन कबहुँ न मैला। मन अब ज्ञान तोला में तौला ।।2।।
कड़ी कमान घीचै दिन राती। तेहि नहिं काल करै उतपाती ।।3।।
ताके पास कामिनि नहिं पाई। मस्त हाल देखि दूरि पराई ।।4।।
भाँग अफीम पान नहिं खाई। झरै अमी चाखै लौ लाई ।।5।।
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।। ग्रंथ अमरसार से ।।
।। साखी ।।
सतगुरु चरन सुधा सम, विमल मुक्ति को मूल ।
पद पंकज लोचत हिया, अजर अनूपम फूल ।
जब लगि प्रेम न पाइये, तब लगि पिया न नेह ।
प्रेम सुरति साँची बसै, मिलिगो शब्द स्नेह ।
।। चौपाई ।।
ऐन पैठि जो देखु अँजीरा । सुरति झरोखा अहै शरीरा ।।1।।
ऐन अँजीर एक करु मेला। देखहु अविगत आपु एकेला ।।2।।
पीवै प्रेम होय मस्त देवाना । राव रंक एक सम जाना ।।3।।
जिअतहि मुक्ति जानै सो ज्ञानी। भव जल लाँघि चलै सो प्रानी ।।4।।
।। सोरठा ।।
सुखसागर निजु ज्ञान, सत्त शब्द जाके बसै ।
निर्मल निर्भै ध्यान, सतगुरु मिलै तो पाइये ।।
।। चौपाई ।।
जो बाहर सो भीतर देखो । बाहर भीतर एके लेखो ।।1।।
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।। ग्रंथ सरोदय से ।।
।। चौपाई ।।
जौं तुम नाम अमल शुचि चहहू। मिलै तबै सतगुरु पद गहहू ।।1।।
प्रेम प्रीति से देहिं पियाई। करि के साफ दिल रोशन भाई ।।2।।
दिन दिन अधिक मस्त संसारा। रहै सो कल्प कोटि मतवारा ।।3।।
महा प्रलय की डर नहिं आवै। जा कहँ सतगुरु ढारि पिलावै ।।4।।
ब्रह्म साफ जैसे ध्र्रुव तारा । परा परद में घटा पसारा ।।5।।
।। दोहा ।।
दरिया तन से नहिं जुदा, सब किछु तन के माहिं ।
जोग जुगत से पाइये, बिना जुगुति किछु नाहिं।।
।। चौपाई ।।
जो कोइ जोग जुगति में आवै । दीदम दरस देखि सो पावै ।।1।।
तुमहीं सुभग मुकुर है भाई । तोहि में साहेब सुरति देखाई ।।2।।
।। दोहा ।।
है खुशबोई पास में, जानि पड़ै नहिं सोय ।
भरम लगे भटकत फिरै, तीरथ व्रत सभ कोय ।
।। चौपाई ।।
जौं तुम निज आपन घर चहहू। आपु में आपु देखि मिलि रहहू ।।1।।
सभ तोहि पास जुदा कछु नाहीं। मानुख तन अनुपम जग माहीं ।।2।।
।। दोहा ।।
दरिया दिल दरियाव है, अगम अपार बेअन्त ।
सभ में तोहि तोहि में सभे, जानु मरम कोइ सन्त ।
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।। ग्रंथ दरिया सागर से ।।
।। चौपाई ।।
काया परचै निजु कहौं बुझाई। गुरु गमि ज्ञान बुझौ चित लाई ।।1।।
अष्टदल कमल रंग है सोई । मध्य बीच तेहि बोलता होई ।।2।।
अग्र नख तहाँ पैठे जाई । तिल भरि चौकी विलसै भाई ।।3।।
छव चक्र तहाँ मनि उजियारा । अझर झरै तहाँ जोति निजु सारा ।।4।।
अमृत बुन्द तहाँ झरि आवै । पीअत हंस अमर पद पावै ।।5।।
।। दोहा ।।
अमी ततु घर अमृत पिवै, देखो सुरति लगाय ।
कहत सुनत नहिं बनि आवै, जो गति काहु लखाय ।
।। चौपाई ।।
नाम बान जब हिरदय लागा। निफरि निरंतर सूरति जागा ।।1।।
कोटि तीरथ तहाँ जल परगासा । कोटिन्ह इन्द्र मेघ घन वासा ।।2।।
कोटिन्ह तेज जोति परगासा । कोटिन पंडित वेद निवासा ।।3।।
।। छन्द ।।
कोटि ज्ञानी ज्ञान गावहिं, शब्द बिन नहिं बाचहीं ।
शब्द सजीवन मूल ऐनक, अजपा दरस देखावहीं ।
सत्त शब्द संतोष धरि धरि, प्रेम मंगल गावहीं ।
मिलहिं सतगुरु शब्द पावहिं, फेरि न भौ जल आवहीं ।
ज्ञान रतन की खानि, मनि मानिक दीपक बरै ।
शब्द सजीवन जानि, अमरपूर अमृत पिवै ।
।। दोहा ।।
प्रेम प्रीति लगाय के, सत्तै शब्द अधार ।
सत्त बिना नहिं बाँचिहौ, नर कोटिन्ह करु व्यापार ।
।। चौपाई ।।
सत्तै शब्द विचारै कोई । अभै लोक सिधारै सोई ।1।।
अभै निसान धुनि तहाँ होई । अजर अमर पद पावै सोई ।।2।।
कहन सुनन किमि करि बनि आवै। सत्तनाम निजु परचै पावै ।।3।।
गहै मूल तब निर्मल बानी। दरिया दिल बिच सुरति समानी ।।4।।
सार शब्द कहा समुझाई । सतगुरु मिलहिं तो देहि देखाई ।।5।।
जौं लगि मूल शब्द नहिं पावै । तौं लगि हंस लोक नहिं जावै ।।6।।
।। दोहा ।।
अष्टदल कमल भँवर तहाँ गूँजै, देखहु शब्द विचारि ।
कहै दरिया चित्त चेतहू, देहु भरम सभ डारि ।
।। चौपाई ।।
मूल शब्द धुन होत अँजोरा । सुरति बाँधि राखै एक ठौरा ।।1।।
सुरति डोरि चेतो चित लाई । मूल शब्द की यही उपाई ।।2।।
सूर चन्द एक घर आवै । तबहि डोरी ले बिलमावै ।।3।।
मूल शब्द धुनि होत उचारा । तहमा जाय करौ पैसारा ।।4।।
जो सत शब्दहिं करै विचारा । सोई हंस भौ सिन्धु उबारा ।।5।।
अकह बात कहा नहिं जाई । अगम गमी तहाँ सुरति लगाई ।।6।।
।। छन्द ।।
आगे मारग झीन अति है, शब्द सुरति विचारहीं।
अजर जोति अनूप बानी, देखि तहाँ सुख पावहीं ।
अगम गमि तहाँ अति झलाझलि, नेकु मन ठहरावहीं ।
सत सुकृत की सीढ़ी पगु दे, अमृत फल तहाँ चाखहीं ।
।। सोरठा ।।
अजरा जोति बराय, मूल शब्द निजु सार है ।
गहो सुरति चित लाय, कहै दरिया भौ रहित है ।।
।। दोहा ।।
सत्त नाम निजु सार है, अमर लोक के जाय ।
कहै दरिया सतगुरु मिलै, संसे सकल मेटाय ।।
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।। चौपाई ।।
सत्तनाम है निर्गुन अधारा। ताके काल न करै अहारा ।।1।।
माया तेजि शब्द लौ लावै। ताके माथा जगत नवावै ।।2।।
।। दोहा ।।
सतगुरु ज्ञान दीपक बरै, जो मन होखै थीर ।
कहै दरिया संसै मिटै, हरै सकल सभ पीर ।
।। चौपाई ।।
कहै दरिया जिन केवल जाना। सोई जन साहब पहचाना ।।1।।
जब निजु ज्ञान गमि करि पेखै। अवगति जोति दृष्टि में देखै ।।2।।
अनहद की धुनि करै विचारा। ब्रह्म दृष्टि होय उजियारा ।।3।।
यह कोई गुरु ज्ञानी बूझै । शब्द अनाहद आपहिं सूझै ।।4।।
ज्ञान मत है सब ते भीना। पुरुष नाम निजु हिरदय चीन्हा ।।5।।
हिरदय ध्यान नाम लौ लावै। विमल चरन पद पंकज पावै ।।6।।
।। दोहा ।।
जाके पूँजी नाम है, कबहिं न होखै हान ।
नाम बिहूना मानवा, जम के हाथ बिकान ।।6।।
।। चौपाई ।।
सतगुरु ध्यान रहौ लौ लाई। मिटहिं जरा जीव जम नहिं खाही ।।1।।
जनम जनम के प्राछित जावै। निर केवल होय छपलोक समावै ।।2।।
करहु ध्यान सतगुरु के सेवा। सकल मही का पूजहु देवा ।।3।।
संत सेवा करिहैं चित लाई। ताके जम निकट नहिं जाई ।।4।।
।। दोहा ।।
अँधियारे दीपक दीजिये, तब होखै परकाश ।
ज्ञान समुझि करि लीजिये, उतरि जाय भौ पार ।
।। चौपाई ।।
शब्दै तारै शब्द उबारै । शब्दै चढ़ि छपलोक सिधारै ।।1।।
शब्दै घोड़ा हंस सवारा । शब्दै चाबुक ज्ञान करारा ।।2।।
शब्दै पैठे माँझ मँझारा । शब्दै पीवै प्रेम अधारा ।।3।।
कहै दरिया जिन शब्द निमेरा । ताके हंसा पहुँच सबेरा ।।4।।
।। दोहा ।।
शब्द सरासन बान है, सत्तै शब्द निसान ।
कहै दरिया नर बाचिया, सतगुरु की पहचान ।।8।।
।। चौपाई ।।
शब्द विचार करै नर लोई । अमर लोक पहूँचै सोई ।।1।।
शब्द विवेखी भक्त कहावै । बिन शब्दै जग में भरमावै ।।2।।
शब्दै निरगुन नाह हमारा । ताके खोजहु ज्ञान करारा ।।3।।
शब्दै धरती शब्दै अकाशा । शब्दै भग्ति प्रेम परगासा ।।4।।
शब्दै रचल सकल संसारा । शब्दै बंधन लोक विस्तारा ।।5।।
चौथा लोक शब्द की बानी । शब्द समुन्दर बाँधल ज्ञानी ।।6।।
शब्द बिना होय नहिं पारा । शब्दै पंडित करौ विचारा ।।7।।
ॐ वेद जगत फैलाई । मूल वेद बिरला केहु पाई ।।8।।
मूल वेद शब्द निजु सारा । करनी कथा ज्ञान विस्तारा ।।9।।
।। दोहा ।।
मूल शब्द निजु सार है, कहनी कथा अपार ।
शिव शक्ति मन राधि के, उतरि जाय भौ पार ।

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।। ग्रंथ प्रेम मूला से ।।
।। दोहा ।।
सत्त शब्द जाके बसे, अमर लोक के जाय ।
अमृत फल जहँ प्रेम रस, जुग जुग छुधा बुताय ।।
।। चौपाई ।।
अब कहौं चुम्बक कर भाऊ। चुम्बक देखत गाँसी आऊ ।।1।।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।।2।।
मृतु अन्ध जबही नियरावै । चुम्बक शब्द जीव मुक्तावै ।।3।।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा । सत्तशब्द जो बसै शरीरा ।।4।।
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अबरि के बार बकसु मोरे साहेब, जनम जनम के चेरि हे ।।1।।
चरण कमल में हृदय लगायेब, कपट कागज सब फाड़ि हे ।।2।।
मैं अबला किछुओ नहिं जानौं, परपंचन के साथ हे ।।3।।
पिया मिलन बेरि इन्ह मोरा रोकल, तब जिव भयल अनाथ हे ।।4।।
जब दिल में हम निहचे जानल, सूझि पड़ल जम फन्द हे ।।5।।
खूलल दृष्टि दिया मनि नेसल, मानहु शरद के चन्द हे ।।6।।
कह दरिया दरसन सुख उपजल, दुख सुख दूरि बहाय हे ।।7।।
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भीतर मैल चहल1 के लागी, ऊपर तन का धोवै है ।।1।।
अविगत मूरति महल के भीतर, वाका पन्थ न जोवै है ।।2।।
जुगति बिना कोइ भेद न पावै, साधु संगति का गोवै है ।।3।।
कहै दरिया कुटने बे2 गीदी3, शीश पटकि का रोवै है ।।4।।
घट-घट कपाट खोलिये रे, अखण्ड ब्रह्म को देखना है ।।1।।
देवल दरस महल मूरति, पथल का पूजना पेखना है ।।2।।
आतम पूजा नहीं देव दूजा, सो जाति जनेऊ लेखना है ।।3।।
कहै दरिया दिल देखि विचारि के, सतनाम भजो सत देखना है ।।4।।

(1) कीचड़। (2) अबे, अरे (सम्बोधन)। (3) डरपोक, कायर, बेहया, बेगैरत।


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।। आरती ।।
संझा आरति समरथ की है । सिर पर छत्र सुगन्ध सही है ।।1।।
नहिं तहँ चौका चन्दन पानी । अविगत ज्योति है अमृत बानी ।।2।।
नहिं तहँ तिलक जनेउ न माला, पूरण ब्रह्म अखण्डित काला ।।3।।
नहिं तहँ जाति बरन कुल कोई। बरसत अमृत चाखहिं सोई ।।4।।
अजर अमर घर लेहिं निवासा। नहिं तहँ काल कुबुधि के त्रसा ।।5।।
आवागमन गर्भ नहिं वासा । कहै दरिया सोइ सतगुरु दासा ।।6।।

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आरति समरथ करौं तुम्हारी । दीन-दयाल भगत हितकारी ।।1।।
ज्ञान दीपक लै मन्दिर बारौं । तन मन धन लै आगे वारौं ।।2।।
चित चन्दन लै रगड़ि बनावौं । ब्रह्म पुहुप ले आनि चढ़ावौं ।।3।।
अनहद धुनि गहि घंट बजावौं। शब्द सिंहासन चरण मनावौं ।।4।।
आपहि छत्र चँवरि सिर छाजै । कहै दरिया तहँ सन्त विराजै ।।5।।

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सत्य पुरुष दाया किन्ह मोही । चरण कमल चित्त रहौं समोई ।।1।।
सुख-सागर दुख मेटनिहारा । दीनदयालु उतारहिं पारा ।।2।।
जहँ-जहँ गाढ़ सन्तन्ह कहँ डारा । समरथ बन्दि छोड़ावनिहारा ।।3।।
जाके डर काँपे धर्म धीरा । बुड़त उबारेउ दास कबीरा ।।4।।
दयासिन्धु गुण गहिर गंभीरा । कहै दरिया मेटे दुख पीरा ।।5।।

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सुमिरहु सतपद प्राण-अधारा । सत्त शब्द ले उतरहु पारा ।।1।।
गुरु के वचन पावल जब बीरा। अचल अमर निश्चय घर थीरा ।।2।।
हंसा जाय मिले करतारा । बहुरि न आवै एहि संसारा ।।3।।
तीन लोक से न्यारे डेरा । पुरुष पुराण जहँ हंस घनेरा ।।4।।
गुरु के वचन शिष्य जो धरई । जाय छपलोक नरक नहिं परई ।।5।।
कहै दरिया जब बीरा पावै । जाय सतलोक बहुरि नहिं आवै ।।6।।

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मैं कुलवन्ती खसम पियारी । पाँच तत्त्व ले दीपक वारी ।।1।।
गंधा सुगंध थार भरि लीन्हा । चंदन चर्चित आरति कीन्हा ।।2।।
फूलन सेज सुगंध बिछायो । आपन पिया पलंग पौढ़ायो ।।3।।
सेवत चरण रैनि गइ बीती । प्रेम प्रीति तुमही सों रीती ।।4।।
कहै दरिया ऐसो चित लागा । भई सुलच्छनि प्रेम अनुरागा ।।5।।

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।। शब्द 1।।
याफ्रत तदबीर है दिल के बीच में कुदरत मस्जीद बनाय दीता ।
दोय बीच जो लाल अजब लागे तहाँ जोति का नूर परगट्ट कीता ।
यह चित्त के चोभ में बाँग देवै यह नाम नीसान नजर लीता ।
कहै दरिया दाना दिल के बीच अलफ अलह को याद कीता ।

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।। शब्द 2 ।।
सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम। सब विधि पूँजी सुफल काम ।।1।।
निर्गुन नाह से करहु प्रीति । लेहु काया गढ़ काम जीति ।।2।।
ऐनक मूल है शब्द सार । चहुँ ओर दीसै रंग करार ।।3।।
झरत झरी तहाँ झमके नूर । चित चकमक गहि बाजु तूर ।।4।।
झलकत पदम गगन उजियार । दिव्य दृष्टि गहु मकर तार ।।5।।
द्वादश इँगला पिंगला जाय । परिमल बास अग्र सो पाय ।।6।।
बंक कमल मध हीरा अमान । स्वेत बरन भौंरा तहाँ जान ।।7।।
खोजहु सतगुरु सत्त निसान। जुगति जानि जिन्ह कथहिं ज्ञान ।।8।।
कहै दरिया यह अकह मूल । आवा गमन के मेटै सूल ।।9।।

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।। शब्द 3 ।।
जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।
ऐन के भवन में बैन बोला करै चैन चंगा हुआ जीति दाना ।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै जागता जिन्द है देखु ध्याना ।
पीर पंजा दिया रसद दाया किया मसत माता रहै आपु ज्ञाना ।
हूआ बेकैद यह और सभ कैद में झूमता दिव्य निशान बाना ।
गगन घहरान वए जिन्द अमान है जिन्हि यह जगत सब रचा खाना ।
कहै दरिया सर्वज्ञ सब माहिं है कफा सब काटि के कुफुर हाना ।
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