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।। कुण्डलिया ।।
पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देही ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।
हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
सुखिया जब ही होयगो, सुमिरेगो करतार ।
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।। राग सोरठ ।।
भया जी हरि रस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरणदास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।
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।। हरि तें गुरु की विशेषता ।।
(दोहा)
हरि किरपा जो होय तो, नाहीँ होय तो नाहिँ ।
पै गुरु किरपा दया बिनु, सकल बुद्धि बहि जाहिँ ।।11।।
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।। चौपाई ।।
राम तजूँ पै गुरु न विसारूँ । गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीँ । गुरु ने आवागमन छुटाहीँ ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा । गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी । गुरु ने काटी ममता बेरी1 ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ । गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ । गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ । गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमिुक्त गति लाये । गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।
(1) बेड़ी ।
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।। गुरु-विमुख ।।
(दोहा)
गुरु आज्ञा मानै नहीं, गुरुहिं लगावै दोष।
गुरु निन्दक जग में दुखी, मुए न पावै मोष।
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।। उपदेश गुरु-भक्ति का ।।
(दोहा)
सिष का माना सतगुरु, गुरु झिड़कै लख बार ।
सहजो द्वार न छोड़िये, यही धारना धार ।
गुरु दरसन कर सहजिया, गुरु का कीजै ध्यान ।
गुरु की सेवा कीजिये, तजिये कुल अभिमान ।
सतगुरु दाता सर्व के, तू किर्पिन कंगाल ।
गुरु महिमा जाने नहीं, फस्यौ मोह के जाल ।
गुरु सूँ कछु न दुराइये, गुरु सूँ झूठ न बोल ।
बुरी भली खोटी खरी, गुरु आगे सब खोल ।
सहजो गुरु रच्छा करैं, मेटैं सब दुख दुन्द ।
मन की जानैं सब गुरू, कहा छिपावै अन्ध ।
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।। गुरु-महिमा ।। (दोहा)
सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहिँ ।
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलैं, समझ देख मन माहिँ ।
परमेसर सूँ गुरु बड़े, गावत वेद पुरान ।
सहजो हरि के मुक्ति है, गुरु के घर भगवान ।
अष्टादस और चार षट, पढ़ि पढ़ि अर्थ कराहिँ ।
भेद न पावैं गुरु बिना, सहजो सब भर्माहिँ ।
सहजो गुरु परसन्न ह्वै, मूँद लिये दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसे कही, समझ लेहि यह सैन ।
चिउटी जहाँ न चढ़ि सकै, सरसों ना ठहराय ।
सहजो कूँ वा देश में, सतगुरु दई बसाय ।
सहजो सिष ऐसा भला, जैसे माटी मोय ।
आपा सौंपि कुम्हार कूँ, जो कछु होय सो होय ।
सहजो गुरु बहुतक फिरैँ, ज्ञान ध्यान सुधि नाहिँ ।
तार सकै नहिँ एक कूँ, गहैँ बहुत की बाहिँ ।
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।। साध-लक्षण ।।
तीनोँ बंध लगाय के, अनहद सुनै टकोर ।
सहजो सुन्न समाधि मेँ, नहीँ साँझ नहिँ भोर ।
ना सुख विद्या के पढ़े, ना सुख वाद विवाद ।
साध सुखी सहजो कहै, लागै सुन्न समाध ।
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।। वैराग-उपजावन का अंग ।।
(दोहा)
सहजो भज हरि नाम कूँ, तजो जगत सूँ नेह ।
अपनो तो कोइ है नहीँ, अपनी सगी न देह ।
यही कही गुरुदेव जू, यही पुकारैं सन्त ।
सहजो तज या जगत कूँ, तोहि तजैगो अन्त ।
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