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(भाग 1)
।। सतगुरु-महिमा, दोहा ।।
पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार ।
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार ।
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव ।
प्यार करैं औगुन हरैं, चरणदास शुकदेव ।
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।। अष्टपदी 1 ।।
गुरु बिन और न जान मान मेरो कहो ।
चरणदास उपदेश विचारत ही रहो ।
वेद रूप गुरु होहिं कि कथा सुनावहीं ।
पंडित को धरि रूप कि अर्थ बतावहीं ।
कल्पवृच्छ गुरुदेव मनोरथ सब सरैं ।
कामधेन गुरुदेव छुधा तृस्ना हरैं ।
गुरु ही सेस महेस तोहि चेतन करैं ।
गुरु ब्रह्मा गुरु बिस्नु होय खाली भरैं ।
गंगा सम गुरु होय पाप सब धोवहीं ।
सूरज सम गुरु होय तिमिर हरि लेवहीं ।
गुरु ही को धरि ध्यान नाम गुरु को जपो ।
आपा दीजै भेंट पुजन गुरु ही थपो ।
समरथ श्री शुकदेव कहा महिमा करौं ।
अस्तुति कही न जाय सीस चरनन धरौं ।
दोहा
हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा पल चार ।
तौभी नहीं बराबरी, वेदन किया विचार ।।3।।
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।। विरह और प्रेम ।।
दोहा
प्रेम बराबर जोग ना, प्रेम बराबर ज्ञान ।
प्रेम भक्ति बिन साधिवो, सबही थोथा ध्यान ।
[अनहद शब्द की महिमा और उसकी प्राप्ति का विलास]
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।। अष्टपदी ।।
अनहद शब्द अपार दूर सूँ दूर है ।
चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है ।
निःअच्छर है ताहि और निःकर्म है ।
परमातम तेहि मानि वही परब्रह्म है ।
या के कीने ध्यान होत है ब्रह्म ही ।
धारै तेज अपार जाहिं सब भर्म ही ।
वा पटतर कोइ नाहिं जो यों ही जानिये ।
चाँद सूर्य अरु सृष्टि के माहिं पिछानिये ।
या को छोड़ै नाहिं सदा रहै लीन हीं ।
यही जो अनहद सार जान परवीन हीं ।
यों जिव आतम जानि जो अनहद लीन हो ।
सो परमातम होय जीवता जाय खो ।
ध्यानी को मन लीन होय अनहद सुनै ।
आप अनाहद होय वासना सब भुनै ।
पाप पुन्य छुटि जायँ दोऊ फल ना रहैं ।
होय परम कल्याण जो तिरगुण ना गहैं ।
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।। दोहा ।।
करते अनहद ध्यान के, ब्रह्म रूप हो जाय ।
चरणदास यों कहत हैं, बाधा सब मिट जाय ।
गगन मध्य जो कँवल है, बाजत अनहद तूर ।
दल हजार को कँवल है, पहुँचै गुरु मत सूर ।
गगन मण्डल के कँवल में, सतगुरु ध्यान निहार ।
चरणदास शुकदेव परस के, मेटै सकल विकार ।
अनहद के सम और ना, फल बरन्यो नहिं जाय ।
पटतर कुछ ना दे सकूँ, सब कुछ है वा माँय ।
पाँच थके आनंद बढे़, अरु मन ही वश होय ।
शुकदेव कही चरणदास से, आप अपन जाय खोय ।
नाड़िन में सुषुम्ना बड़ी, सो अनहद की मात ।
कुंभक में केवल बड़ा, वह वाही का तात ।
मुद्रा बड़ी जो खेचरी, वा की बहिनी जान ।
अनहद सा बाजा नहीं, और न या सम ध्यान ।
सेवक से स्वामी होवे, सुने जो अनहद नाद ।
जीव ब्रह्म हो जाय हैं, पावे अपनी आद ।
खिड़की खोली नाद की, मिला ब्रह्म में जाय ।
दसो नाद के लाभ की, महिमा कही न जाय ।*
* 4 से 9 तक कल्याण योगांक, पृष्ठ 271 से लिया गया है ।
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।। छप्पय 1 ।।
नौ नाड़ी को खैंचि पवन लै उर में दीजै ।
बज्जर ताला लाय द्वार नौ बंद करीजै ।
तीनों बंद लगाय अस्थिर अनहद आराधै ।
सुरत निरत का काम राह चल गगन अगाधै ।
सुन्न शिखर चढ़ि रहै, दृढ़ जहाँ आसन करै ।
भन चरनदास ताड़ी लगै, सो राम दरस कलिमल हरै ।
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।। छप्पय 2 ।।
जहाँ चंद नहिं सूर जहाँ नहिं जगमग तारे ।
जहाँ नहीं त्रैदेव त्रिगुण माया निंहं लारे ।
जहाँ वेद नहिं भेद जहाँ नहिं जोग जज्ञ तप ।
जहाँ पवन नहिं धरनि अगिन नहिं जहाँ गगन अप ।
जहाँ रात नहिं दिवस है, पाप पुन्य नहिं व्यापई ।
आदि अंत अरु मध्य है, कहै चरणदास ब्रह्म आपही ।
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।। छप्पय 3 ।।
जहाँ आतम देव अभेव सेव कबहूँ न करावै ।
इच्छा दुई न द्रोह कर्म नहिं भ्रम सतावै ।
जहँ जाप ताप नहिं आप तहाँ नहिं रूप न रेखा ।
जासु जाति नहिं पाँति नारि नहिं पुरुष विसेखा ।
पारब्रह्म पूरन सदा, है अखण्ड नहिं खंडिता ।
भन चरणदास ताड़ी लगै, जो सुन्न शिखर में मंडिता ।
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।। दोहा ।।
मन पवना वश कीजिये, ज्ञान युक्ति सों रोक ।
सुरति बाँधि भीतर धसै, सूझै काया लोक ।
चरणदास यहि विधि कही, चढ़िबे कूँ आकास ।
सोध साधि साधन अगम, पूरन ब्रह्म विलास ।
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।। शब्द 1 ।।
वह अच्छर कोइ बिरला पावै ।
जा अच्छर के लाग न बिन्दी, सतगुरु सैनहिं सैन बतावै ।
छर ही नाद वेद अरु पंडित, छर ज्ञानी अज्ञानी ।
बांचन अच्छर छर ही जानो, छर ही चारो बानी ।
ब्रह्मा सेस महेसर छर ही, छर ही त्रैगुण माया ।
छर ही सहित लिये औतारा, छर ह्वाँ तक जहँ माया ।
पाँचो मुद्रा जोग युक्ति छर, छर ही लगै समाधा ।
आठो सिद्धि मुक्ति फल छर ही, छर ही तन मन साधा ।
रवि ससि तारा मंडल छर ही, छर ही धरनि अकासा ।
छर ही नीर पवन अरु पावक, नर्क स्वर्ग छर वासा ।
छर ही उत्पति परलय छर ही, छर ही जाननहारा ।
चरणदास शुकदेव बतावैं, निःअच्छर सब सूँ न्यारा ।
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।। शब्द 2 ।।
जब से अनहद घोर सुनी ।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी ।
घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी ।
रोम रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी ।
मतवारे ज्यों शब्द समाये, अंतर भींज कनी ।
करम भरम के बन्धन छूटे, दुविधा विपति हनी ।
आपा विसरि जक्त कूँ विसरो, कित रहि पाँच जनी ।
लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी ।
हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहै शुकदेव मुनी ।
ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी ।
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(शब्द 3)
।। राग वसंत ।।
वह वसंत रे वह वसंत ।।टेक।।
कोइ बिरला पावै वह वसंत । जाकी अद्भुत लीला रँग अनंत ।।1।।
जहँ झिलिमिलि झिलिमिलि है अपार । जहँ मोती बरसै निराधार ।।2।।
जहँ फूलन की लागी फुहार । जहँ अनहद बाजै बहु प्रकार ।।3।।
जहँ ताल जो बाजै बिना हाथ । जहँ शंख पखावज एक साथ ।।4।।
जहँ बिन पग घुघरू की टकोर । जहँ बिन मुख मुरली घनाघोर ।।5।।
जहँ अचरज बाजे और और । जहँ चंद सूर नहिं साँझ भोर ।।6।।
जहँ अमृत दरवै कामधेन । जहँ मान क्रोध नहिं मोह मैन ।।7।।
जहँ पाँचों इन्द्री एक रूप । जहँ थकित भये हैं मनुष भूप ।।8।।
शुकदेव बतावैं ऐसा खेल । चरणदास करो क्यूँ न वासूँ मेल ।।9।।
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।। दोहा ।।
दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।
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।। श्री ब्रह्मज्ञान-सागर से ।।
नाभि मध्य वाणी परा, हिय पश्यन्ती सुख्य ।
कंठ मध्यमा जानिये, कहूँ वैखरी मुख्य ।।
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