दादू साहब की वाणी

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।। साखी, गुरुदेव का अंग ।।

साचा सतगुर जे मिलै, सब साज सँवारै ।
दादू नाव चढ़ाइ करि, लै पार उतारै ।
सतगुर पसु माणस करै, माणस थैं सिध सोइ ।
दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ।
दादू काढ़ै काल मुख, अंधे लोचन देइ ।
दादू ऐसा गुर मिल्या, जीव ब्रह्म करि लेइ ।
सतगुरु मिलै तो पाइये, भग्ति मुक्ति भण्डार ।
दादू सहजै देखिये, साहिब का दीदार ।
साईं सतगुर सेविए, भग्ति मुक्ति फल होइ ।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागै कोइ ।
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।। सुमिरन ।।
दादू सिरजनहार के, केते नाँव अनन्त ।
चित्त आवै सो लीजिये, यौं साधू सुमिरै सन्त ।
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।। परचा को अंग ।।
निराधार निज देखिये, नैनहु लागा बन्द ।
तहँ मन खेलै पीव सौं, दादू सदा अनंद ।
नैनहुँ आगें देखिये, आतम अन्तर सोइ ।
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल-झिलमिल होइ ।
अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी िनवास ।
जोति सरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ।
सबद अनाहद हम सुन्या, नख सिख सकल शरीर ।
सब घटि हरि हरि होत है, सहजै ही मन थीर ।
सबदैं सबद समाइले, पर आतम सों प्राण ।
यहु मन मन सौं बाँधि ले, चित्तैं चित्त सुजाण ।
दृष्टै दृष्टि समाइ ले, सुरतैं सुरत समाइ ।
समझैं समझि समाइ ले, लै सों लै ले लाइ ।
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।। लय को अंग ।।
जोग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै सहजै आव ।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव ।
सहज सुन्नि मन राखिये, इन दुन्यूँ के माहिं ।
लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं ।
सुन्नहिं मारग आइया, सुन्नहिं मारग जाइ ।
चेतन पैंड़ा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ ।
सुरत समाइ सनमुख रहै, जुगि जुगि जन पूरा ।
दादू प्यासा प्रेम का, रस पीवै सूरा ।
दादू उलटि अपूठा1 आप में, अंतर सोधि सुजाण ।
सो ढिग तेरी बाबरे, तजि बाहिर की बाण2।
सुरति अपूठी फेरि कर, आतम माहैं आण ।
लागि रहै गुरुदेव सौं, दादू सोइ सयाण ।
सुरति सदा सनमुख रहै, जहाँ तहाँ लैलीन ।
सहज रूप सुमिरण करै, निहकर्मी दादू दीन ।
सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग ।
दादू पीवै राम रस, रहै निरंजन लाग ।

(1) पीछे । (2) आदत ।

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।। मन को अंग ।।
सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उल्टा माहिं समाइ ।
क्यों करि उल्टा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की, यौं आणै घेरि घेरि ।
साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साध सबद बिन क्यौं रहै, तबहीं बीखरि जाइ ।
तन में मन आवै नहीं, निसदिन बाहरि जाइ ।
दादू मेरा जिव दुखी, रहै नहीं ल्यौ लाइ ।
कोटि जतन करि करि मुए,यहु मन दह दिसि जाइ ।
राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ।
मनहीं सन्मुख नूर है, मन हीं सन्मुख तेज ।
मनहीं सन्मुख जोति है, मन हीं सन्मुख सेज ।
मनहीं सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
मनहीं सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।
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।। शब्द को अंग ।।
सबदैं बंध्या सब रहै, सबदैं सबही जाइ ।
सबदैं ही सब ऊपजै, सबदैं सबै समाइ ।
सबदैं ही सूषिम भया, सबदैं सहज समान ।
सबदैं ही निर्गुण मिलै, सबदैं निरमल ज्ञान ।
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगैं पीछैं तौ करै, जे बल हीणा होइ ।
जंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
पंचौं कारज नाद है, दादू बोलणहार ।
पंच ऊपना1 सबद थैं, सबद पंच सौं होइ ।
साईं मेरे सब किया, बूझै विरला कोइ ।
सबद जरै सो मिलि रहै, एकै रस पूरा ।
काइर भाजे जीव ले, पग माँड़े सूरा ।

(1) उत्पन्न हुआ ।

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।। कस्तूरिया मृग को अंग ।।
सब घट में गोविन्द है, संगि रहै हरि पास ।
कस्तूरी मृग में बसै, सँूघत डोले घास ।
केई दौडे़ द्वारिका, केई काशी जाहिं ।
केई मथुरा कौं चलै, साहब घटही माहिं ।
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।। सजीवन को अंग ।।
जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
जीवत काटै कर्म सब, मुकति कहावै सोइ ।
जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।
जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।
मूआँ पीछैं मुकति बतावैं, मूआँ पीछैं मेला ।
मूआँ पीछैं अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।
जे जन राखै रामजी, अपणै अंग लगाइ ।
दादू कुछ व्यापे नहिं, जे कोटि काल झखि जाइ ।
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।। शब्द 1 ।।
काहे रे नर करौ डफाँड़1। अंति काल घर गोर2 समाण ।।टेक।।
पहलै बलवंत गये बिलाइ । ब्रह्मा आदि महेसुर जाइ ।।1।।
आगै होते मोटे मीर3 । गये छाड़ि पैगम्बर पीर ।।2।।
काची देह कहा गरवाना । जे उपज्या सो सबै बिलाना ।।3।।
दादू अमर उपावणहारा । आपै आप रहै करतारा ।।4।।

(1) दम्भ । (2) कब्र । (3) अमीर।

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।। शब्द 2 ।।
भाई रे घर ही में घर पाया ।
सहजि समाइ रह्यौ ता माहीं, सतगुर खोज बताया ।।टेक।।
ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया ।
खोलि कपाट महल के दीन्हे, थिर अस्थान दिखाया ।
भय और भेद भरम सब भागा, साच सोई मन लाया ।
प्यंड परे जहाँ जिव जावै, ता में सहज समाया ।
निहचल सदा चलै नहि कबहूँ, देख्या सब में सोई ।
ताही सूँ मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ।
आदि अंत सोई घर पाया, इब मन अनत न जाई ।
दादू एक रंगै रंग लागा, ता में रह्या समाई ।
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।। शब्द 3 ।।
नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।
सहज समरपण सुमिरण सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकरा ।
बिन रसना मोहन गुण गावै, नाना वाणी अनभै अपरा ।
दादू अनहद ऐसैं कहिये, भगति तत्त यहु मारग सकरा ।
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।। शब्द 4 ।।
जोगिया बैरागी बाबा । रहै अकेला उनमनि1 लागा ।।टेक।।
आतमा जोगी धीरज कंथा । निहचल आसण आगम पंथा ।।1।।
सहजैं मुद्रा अलख अधारी । अनहद सिंगीं रहणि हमारी ।।2।।
काया बनखंड पाँचौं चेला । ज्ञान गुफा में रहै अकेला ।।3।।
दादू दरसन कारनि जागै । निरंजन नगरी भिष्या माँगै ।।4।।

(1) मनोलय, मन का संकल्प-विकल्पहीन होना ।

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।। शब्द 5 ।।
ये हौं बूझ रही पिव जैसा, तैसा कोइ न कहै रे ।
अगम अगाध अपार अगोचर, सुधि बुधि कोइ न लहै रे।
वारपार कोइ अंत न पावै, आदि अंत मधि नाहीं रे ।
खरे सयाने भये दिवाने, कैसा कहाँ रहावै रे ।
ब्रह्मा बिसुन महेसुर बूझै, केता कोइ बतावै रे ।
सेख मसाइख पीर पगंबर, है कोइ अगह गहै रे ।
अंबर धरती सूर ससि बूझै, बाव बरण सब सोधै रे ।
दादू चक्रित है हैराना, को है करम दहै रे ।।3।।
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।। शब्द ।।
नाँउ रे नाँउ रे , सकल सिरोमणि नाँउ रे ,
मैं बलिहारी जाँउ रे ।।टेक।।
दूतर तारै पार उतारै, नरक निवारै नाँउ रे ।।1।।
तारणहारा भौजल पारा, निर्मल सारा नाँउ रे ।।2।।
नूर दिखावै तेज मिलावै, जोति जगावै नाँउ रे ।।3।।
सब सुख दाता अमृत राता, दादू माता नाँउ रे ।।4।।
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।। शब्द 7 ।।
मेरा मनके मन सौं मन लागा । सबद के सबद सौं नाद बागा ।।टेक।।
स्त्रवण के स्त्रवण सुणि सुख पाया। नैन के नैन सौं निरखि राया ।।1।।
प्राण के प्राण सौं खेलि प्राणी । मुख के मुख सौं बोलि वाणी ।।2।।
जीव के जीव सौं रंगि राता । चित्त के चित्त सौं प्रेम माता ।।3।।
सीस के सीस सौं सीस मेरा । देखिरै दादूवा भाग तेरा ।।4।।
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।। शब्द 8 ।।
आरती जग जीवन तेरी । तेरे चरन कँवल पर वारी फेरी ।।टेक।।
चित चाँवरी हेत हरि ढारै । दीपक ज्ञान जोति विचारै ।।1।।
घंटा शब्द अनाहद बाजै । आनन्द आरति गगना गाजै ।।2।।
धूप ध्यान हरि सेती कीजै । पुहुप प्रीति हरि भाँवरि लीजै ।।3।।
सेवा सार आतमा पूजा । देव निरंजन और न दूजा ।।4।।
भाव भगति सौं आरति कीजै । इहि विधि दादू जुग जुग जीजै ।।5।।
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।। शब्द 9 ।।
[यह शब्द ‘संत-संग्रह, भाग 2’ (राधास्वामी मत से प्रकाशित) में और घटरामायण में भी है, परन्तु वेलवेडियर प्रेस से प्रकाशित दादू दयालजी की वाणी में नहीं है ।]

दादू जानै न कोई, संतन की गति गोई ।।टेक।।
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।1।।
अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई ।
निराकार आकार न जोती, पूरन ब्रह्म न होई ।
इनके पार सार सोइ पइहैं, मन तन गति पति खोई ।
दादू दीन लीन चरनन चित, मैं उनकी सरनोई ।

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