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(काशी नागरीप्रचारिणी सभा की ‘कबीर-ग्रन्थावली’ से)
विरह (साखी)
लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार ।
कहौ संतौ क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।27।।
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परचा कौ अंग
अनहद बाजै नीझर1 झरै, उपजै ब्रह्म गियान ।
आवगति2 अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान ।।44।।
।। पीव पीछांणन ।।
संपटि3 मांहिं समाइया, सो साहिब नहिं होइ ।।
सकल मांड4 में रमि रह्या, साहिब कहिये सोइ।।1 ।।
रहै निराला मांड़ थैं, सकल मांड ता माहिं ।।
कबीर सेवै तास कूँ, दूजा कोई नाहिं ।। 2।।
जाकै मुँह माथा नहीं, नहीं रूपक रूप ।।
पुहुप बास थैं पतला, ऐसा तत्त अनूप ।। 3।।
(1) ज्योति ।
(2) अविगत, सर्वव्यापक (परम प्रभु) ।
(3) गर्भ ।
(4) पसार, रचना, विश्व ।
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।। रमैणी ।।
नैंना बैंन अगोचरी, श्रवणां करनी सार ।
बोलन कै सुख कारनैं, कहिये सिरजनहार ।
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।। रमैणी ।। पद-1
बाबा जोगी एक अकेला, जाकै तीर्थ व्रत न मेला
झोली पत्र विभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै ।
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै ।
पाँच जना की जमाति चलावै, तास गुरू मैं चेला ।
कहै कबीर उनि देसि सिधाये, बहुरि न इहि जग मेला ।
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।। रमैणी ।। पद-2
राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे ।। टेक।।
अंजन उतपति वो ॐकार, अंजन1 मांड्या सब विस्तार ।
अंजन ब्रह्मा शंकर इंद, अंजन गोपी संगि गोब्यंद ।।
अंजन वाणी अंजन वेद, अंजन कीया नाना भेद ।
अंजन विद्या पाठ पुरान, अंजन फोकट कथहि गियान ।।
अंजन पाती अंजन देव, अंजन की करै अंजन सेव ।
अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावै ।।
अंजन कहौं कहाँ लग केता, दान पुंनि तप तीरथ जेता ।
कहै कबीर कोइ बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै ।।
(1) माया
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।। रमैणी ।। पद-3
अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहु विचार ।।टेक।।
अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई ।
अंजन आवै अंजन जाइ, निरंजन सब घटि रह्यो समाइ ।।
जोग ध्यान तप सबै विकार, कहै कबीर मेरे राम अधार ।।337।।
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।। रमैणी ।।
अलख निरंजन लखै न कोई । निरभै निराकार है सोई ।।
सुंनि अस्थूल रूप नहिं रेखा । द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यो नहिं पेखा ।।
बरन अबरन कथ्यौ नहिं जाई । सकल अतीत घट रह्यौ समाई ।।
आदि अंत ताहि नहिं मधे । कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।।
अपरंपार उपजै नहिं बिनसै । जुगति न जानियैं कथिये कैसै ।।
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जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोइ ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ ।।
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भगति हेत गावै लैलीना । ज्यूँ बन नाद कोकिला कीन्हा ।।
बाजै शंख सबद धुनि बेना । तन मन चित हरि गोबिन्द लीना ।।
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साँच सील का चौका दीजै। भाव भगति की सेवा कीजै ।।
भाव भगति की सेवा मानै । सतगुरु प्रकट कहै नहिं छानै ।।
अनभै उपजि न मन ठहराई । पर कीरति मिलि मन न समाई ।।
जब लग भाव भगति नहिं करिहौ। तब लग भवसागर क्यूँ तिरिहौ ।।
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भाव भगति बिसवास बिन, कटै न संसै सूल ।
कहै कबीर हरि भगति बिन, मूकति नहिं रै मूल ।।
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साखी
कबीर मेरी सिमरनी, रसना ऊपरि रामु ।
आदि जुगादि सगल भगत, ताको सुख विश्राम ।।121।।
सेख सबूरी बाहरा, क्या हज काबै जाइ ।
जाका दिल साबत नहीं, ताको कहाँ खुदाइ ।।
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पद
हरि महि तनु है तनु महि हरि है सर्व निरंतर सोई रे ।
कहि कबीर राम नाम न छोड़ौ सहजे होइ सु होई रे ।।
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इहु जीउ राम नाम लव लागै । जरा मरन छूटे भ्रम भागै ।।
अनहद सबद होत झनकार । जिह पौड़े प्रभु श्रीगोपाल ।।
राम जपतु तनु जरि किन जाइ । राम नाम चित्त रह्या समाइ ।।
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कहत कबीर अवर नहिं कामा। हमरे मन धन राम को नामा ।।
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गुरु मिलि ताके खुले कपाट । बहुरि न आवै योनी बाट ।।
।। ग्रंथसाहब, नानक-पंथ, पृ0 1250।।
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सुन्न संध्या तेरी देव देवा करि अधपति आदि समाई ।
सिद्ध समाधि अन्त नहिं पाया लागि रहे सरनाई ।।
लेहु आरती हो पुरुष निरंजन सतिगुरु पूजहु भाई ।
ठाढ़ा ब्रह्मा निगम विचारै अलख न लखिया जाई ।।
तत्तु तेल नाम कीया बाती दीपक देह उज्यारा ।
जोति लाय जगदीश जगाया बूझे बूझनहारा ।।
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ।
कबीरदास तेरी आरती कीनी निरंकार निरवानी ।।210।।
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बेलवेडियर प्रेस में छपी शब्दावली भाग 1 (शब्द 1)
मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर, सतसंग बिना जिय तरसे ।।1।।
इस सतसंग में लाभ बहुत है, तुरत मिलावै गुरु से ।।2।।
मूरख जन कोइ सार न जानै, सतसंग में अमृत बरसे ।।3।।
सब्द-सा हीरा पटक हाथ से, मट्ठी भरी कंकर से ।।4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, सुरत करो वही घर से ।।5।।
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भाग 1 (शब्द 2)
साधो सब्द साधना कीजै ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै ।।टेक।।
सब्दहि गुरू सब्द सुनि सिष भे, सब्द सो बिरला बूझे ।
सोई सिष्य सोइ गुरू महातम, जेहि अन्तरगति सूझे ।।1।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै ।
सब्दै सुर मुनि सन्त कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै ।
सब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, सब्द कहै अनुरागी ।
षट दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी ।
सब्दै माया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।
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भाग 1 (शब्द 3)
जिनकी लगन गुरू सों नाहीं ।।टेक।।
ते नर खर कूकर सम जग में, बिरथा जन्म गँवाहीं ।।1।।
अमृत छोड़ि विषय रस पीवैं, धृग-धृग तिन के ताईं ।।2।।
हरि बेल की कोरी तुमड़िया, सब तीरथ करि आई ।।3।।
जगन्नाथ के दरसन करके, अजहुँ न गई करुवाई ।।4।।
जैसे फूल उजाड़ को लागो, बिन स्वारथ झरि जाई ।।5।।
कहै कबीर बिन वचन गुरू के, अन्त काल पछिताई ।।6।।
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भाग 1 (शब्द 4)
गगन की ओट निसाना है ।।टेक।।
दहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।1।।
तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है ।।2।।
मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है ।।3।।
मार्यो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।।4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जिन जाना तिन माना है ।।5।।
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भाग 1 (शब्द 5)
भक्ती का मारग झीना रे ।।टेक।।
नहिं अचाह नहिं चाहना चरनन लौलीना रे ।।1।।
साधुन के सतसंग में रहे निसिदिन भीना रे ।।2।।
सब्द में सुर्त ऐसे बसे जैसे जल मीना रे ।।3।।
मान मनी को यों तजे जस तेली पीना रे ।।4।।
दया छिमा संतोष गहि रहे अति आधीना रे ।।5।।
परमारथ में देत सिर कछु बिलम्ब न कीना रे ।।6।।
कहै कबीर मत भक्ति का परगट कह दीना रे ।।7।।
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भाग 1 (शब्द 6)
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत फिरत राह नहिं जाना ।
केहर1 सुत2 ले आयो गड़रिया, पाल पोस उन कीन्ह सयाना ।
करत कलोल रहत अजयन3 संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना ।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देख बहुतै रिसियाना ।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दसा देख मुसक्याना ।
जस कुरंग4 बिच बसत बासना, खोजत मूढ़ फिरत चौगाना5 ।
कर उसवास6 मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना7 ।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, उलटि आपु में आपु समाना ।
(1) सिंह । (2) बेटा । (3) बकरियों, भेड़ियों । (4) मृगा । (5) मैदान । (6) सोच । (7) मँहकता है ।
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भाग 1 (शब्द 7)
अपने घट दियना बारु रे ।।टेक।।
नाम का तेल सुरत कै बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे ।
जगमग जोत निहारु मंदिर में, तन मन धन सब वारु रे ।
झूठी जान जगत की आसा, बारम्बार बिसारु रे ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, आपन काज सँवारू रे ।
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भाग 1 (शब्द 8)
साधो भाई जीवत ही करो आसा ।।टेक।।
जीवत समुझै जीवत बूझै, जीवत मुक्ति निवासा ।
जियत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा ।
तन छूटे जिव मिलन कहत है, सो सब झूठी आसा ।
अबहुँ मिला सो तबहुँ मिलैगा, नहिं तो जमपुर वासा ।
दूर दूर ढूँढ़ै मन लोभी, मिटै न गर्भ तरासा ।
साध सन्त की करै न बंदगी, कटे करम की फाँसा ।
सत्त गहै सतगुरु को चीन्है, सत्तनाम विश्वासा ।
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा ।
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भाग 1 (शब्द 9)
मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा, मुसाफिर जैहौ कौनी ओर ।
मोह का शहर कहर नर नारी, दुइ फाटक घनघोर ।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर1 ।
संशय नदी अगाड़ी बहती, विषम धार जल जोर ।
क्या मनुवाँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।
निस दिन प्रीति करो साहेब से, नाहिंन कठिन कठोर ।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम2 दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहो निज ठौर ।
(1) झिकझोर (2) प्रकाश ।
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भाग 1 (शब्द 10)
अबधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।
उनमुनि3 रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।
(3) मनोलय की अवस्था ।
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भाग 1 (शब्द 11)
ससी परकास तें सूर ऊगा सही, तूर बाजै तहाँ सन्त भूलै ।
तत्त झनकार तहँ नूर बरसत रहै, रस्स पीवै तहाँ पाँच भूलै ।
दरियाव औ बुन्द ज्यों देखु अन्तर नहीं, जीव और सीव यों एक आहीं ।
कहै कबीर या सैन गूँगा तईं, वेद कतेब की गम्म नाहीं ।
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भाग 2 (शब्द 1)
मन तू मानत क्यों न मना रे ।
कौन कहन को कौन सुनन को, दूजा कौन जना रे ।
दर्पन में प्रतिबिम्ब जो भासै, आप चहूँ दिसि सोई ।
दुबिधा मिटै एक जब होवै, तौ लखि पावै कोई ।
जैसे जल तें हेम1 बनतु है, हेम धूम2 जल होई ।
तैसे या तत वाहू तत सों, फिर यह अरु वह सोई ।
जो समुझै तो खरी कहन है, ना समुझै तो खोटी ।
कहै कबीर दोऊ पख त्यागै, ताकी मति है मोटी ।
(1) बर्फ । (2) धुआँ ।
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भाग 2 (शब्द 2)
जाके नाम न आवत हिये ।। टेक।।
कहा भये नर कासी बसे से, का गंगा जल पिये ।।1।।
काह भये नर जटा बढ़ाये, का गुदरी के सिये ।।2।।
का रे भये कंठी के बाँधे, काह तिलक के दिये ।।3।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, नाहक ऐसे जिये ।।4।।
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भाग 2 (शब्द 5)
तेरो को है रोकनहार, मगन से आव चली ।
लोक लाज कुल की मर्यादा, सिर से डारि अली ।
पटक्यो भार मोह माया को, निर्भय राह गही ।
काम क्रोधऽहंकार कल्पना, दुर्मति दूर करी ।
मान अभिमान दोउ धर पटक्यो, होइ निशंक रली ।
पाँच पचीस करे वश अपने, करि गुरु ज्ञान छड़ी ।
अगल बगल के मारि उड़ाये, सनमुख डगर धरी ।
दया धर्म हिरदे धरि राख्यो, पर उपकार बड़ी ।
दया सरूप सकल जीवन पर, ज्ञान गुमान भरी ।
छिमा शील संतोष धीर धरि, करि सिंगार खड़ी ।
भई हुलास मिली जब पिय को, जगत बिसारि चली ।
चुनरी सबद विवेक पहिरि के, घर की खबर पड़ी ।
कपट-किवरिया खोल अन्तर की, सतगुरु मेहर करी ।
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दीपक ज्ञान धरे कर अपने, पिय को मिलन चली ।
विहसत वदनऽरु मगन छबीली, ज्यों फूली कँवल कली ।
देख पिया को रूप मगन भइ, आनन्द प्रेम भरी ।
कहै कबीर मिली जब पिय से, पिय हिय लागि रही ।
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भाग 2 (शब्द 6)
अपनपौ आपुहि तें बिसरो ।।टेक।।
जैसे स्वान1 काँच मन्दिर में, भ्रम से भूकि मरोे ।।1।।
ज्यों केहरि2 बपु3 निरख कूप जल, प्रतिमा देखि गिरो ।।2।।
वैसे ही गज4 फटिक सिला में, दसनन5 आनि अड़ो ।।3।।
मरकट6 मूठि स्वाद नहिं बहुरै, घर घर रटत फिरो ।।4।।
कहै कबीर नलनी के सुगना, तोहि कवन पकरो ।।5।।
(1) कुत्ता । (2) सिंह । (3) शरीर । (4) हाथी । (5) दाँतों से । (6) बन्दर ।
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।। निरख प्रबोध की रमैणी ।।
अस सतगुरु बोले सतबानी । धन धन सत्तनाम जिन जानी ।।
नाम प्रतीति भई सब संता । एक जानि के मिटे अनन्ता ।।
अनन्त नाम जब एक समाना । तब ही साध परम पद जाना ।।
बिरला संत परम गति जानै । एक अनन्त सो कहा बखानै ।।
सब तें न्यारा सब के माहीं । माँझी सतगुरु दूजा नाहीं ।।
सत्तनाम जाके धन होई । धन जीवन ताही को सोई ।।
सत्तनाम है सब तें न्यारा । निर्गुन सर्गुन सबद पसारा ।।
निर्गुन बीज सर्गुन फल फूला । साखा ज्ञान नाम है मूला ।।
मूल गहे तें सब सुख पावै । डार पात में मूल गँवावै ।।
सतगुरु कही नाम पहिचानी । निर्गुन सर्गुन भेद बखानी ।।
अंस नाम तें फिरि फिरि आवै । पूरन नाम परम पद पावै ।।
।। दोहा ।।
कबीर महिमा नाम की, कहना कही न जाय ।
चारि मुक्ति औ चार फल, और परम पद पाय ।।
प्रथम एक सो आपै आप । निराकार निर्गुन निर्जाप ।।
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।। दोहा ।।
कहै कबीर विचारिके, तब कछु किरतम नाहिं ।
परम पुरुष तहाँ आपही, अगम अगोचर माहिं ।।
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भाग 3 (शब्द 1)
सखिया वा घर सब से न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा ।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा ।
नहिं दिन रैन चन्द नहीं सूरज, बिना जोति उँजियारा ।
नहिं तहँ ज्ञान ध्यान नहिं जप तप, वेद कितेब न बानी ।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब जहाँ हिरानी ।
धर नहिं अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्मण्ड कछु नाहीं ।
पाँच तत्त्व गुन तीन नहीं तहँ, साखी शब्द न ताहीं ।
मूल न फूल बेलि नहिं बीजा, बिना बृच्छ फल सोहै ।
ओअं सोहं अर्ध उर्ध नहिं, स्वासा लेख न कोहै ।
नहिं निर्गुन नहिं सर्गुन भाई, नहीं सूक्ष्म स्थूलं ।
नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूलं ।
जहाँ पुरुष तहवाँ कछु नाहीं, कहै कबीर हम जाना ।
हमरी सैन लखै जो कोई, पावै पद निरवाना ।
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भाग 3 (शब्द 3)
जो कोइ निरगुन दरसन पावै ।। टेक ।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।
बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमि रस अजर चुवावै ।
अजपा लागि रहै सूरति पर, नैन न पलक डुलावै ।
गगन मंदिर में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै ।
इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै ।
सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै ।
कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै ।
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भाग 3 (शब्द 4)
बिनु गुरु ज्ञान नाम ना पैहो, बिरथा जनम गँवाई हो ।
जल भरि कुंभ1 धरे जल भीतर, बाहर भीतर पानी हो ।
उलटि कुंभ जल जलहि समैहैं, तब का करिहौ ज्ञानी हो ।
बिन करताल पखावज बाजै, बिनु रसना गुन गाया हो ।
गावनहार के रूप न रेखा, सतगुरु अलख लखाया हो ।
है अथाह थाह सबहिन में, दरिया लहर समानी हो ।
जाल डारि का करिहौं धीमर, मीन के ह्वै गै पानी हो ।
पंछीक खोज औ मीन कै मारग, ढूँढ़े न कोइ पाया हो ।
कहै कबीर सतगुरु मिल पूरा, भूले को राह बताया हो ।
(1) घड़ा ।
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भाग 4 (शब्द 3)
छैल चिकनियाँ अभै घनेरे, छका फिरै दीवाना ।
छाया माया इस्थिर नाहीं, फिर आखिर पछिताना ।
छर अच्छर निःअच्छर बूझै, सूझि गुरू परिचावै ।
छर परिहरि अच्छर लौ लावै, तब निःअच्छर पावै ।
अच्छर गहै विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न ।
कहै कबीर निःअच्छरहिं, लहै पारखी चीन्ह ।
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जिला - संताल परगना, सबडिविजन-गोड्डा, ग्राम-रमला (बिहार प्रान्त) निवासी श्रीनारायण दासजी सत्संगी ने यह शब्द लिखवाया -
कोई चतुर न पावे पार नगरिया बाबरी ।
लाल लाल जो सब कोइ कहै सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि के परखै नाहीं तासे भयो कंगाल ।
काया बड़े समुद्र केरो थाह न पावै कोइ ।
मन मरि जैहैं डूबि के हो मानिक परखै सोइ ।
ऊँचा महल अगमपुर जहवाँ सन्त समागम होइ ।
जो कोइ पहुँचे वही नगरिया आवागमन न होइ ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो का खोजो बड़ी दूर ।
जो कोइ खोजै यही नगरिया सो पावै भरपूर ।
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ग्राम-सिकलीगढ़ धरहरा, जिला-पुरैनियाँ (बिहार) निवासी श्रीयुत लाली साहुजी कबीरपंथी सत्संगी ने लिखवाया-
विमल विमल अनहद धुनि बाजै, सुनत बने जाको ध्यान लगे ।
सिंगी नाद संख धुनि बाजै, अबुझा मन जहाँ केलि करे ।
दह की मछली गगन चढ़ि गाजै, बरसत अमी रस ताल भरे ।
पछिम दिसा को चलली बिरहिन, पाँच रतन लिये थार भरे ।
अष्ट कमल द्वादस के भीतर, सो मिलने की चाह करे ।
बारह मास बुन्द जहाँ बरषै, रैन दिवस वहाँ लखि न परे ।
बिरला समुझि परे वहि गलियन, बहुरि न प्रानी देह धरे ।
काया पैसि करम सब नासै, जरा मरन के संसे गये ।
निरंकार निर्गुन अविनासी, तीनि लोक में जोति बरे ।
कहै कबीर जिनको सतगुरु साहब, जन्म जन्म के कष्ट हरे ।
धन्य भाग्य जिनकी अटल साहिबी, नाम बिना नर भटकि मरे ।
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भागलपुर (बिहार) निवासी श्री बाबू तिलकधारी मोदीजी तथा श्री बाबू कमला प्रसादजी वकील सत्संगी महाशयों के पास से निम्नलिखित शब्द के दो तरह के पाठ मिले; दोनों का मिलान कर तथा शोधकर छापा गया-
।। शब्द ।।
जानता कोइ ख्याल ऐसा, जानता कोइ ख्याल ।।टेक।।
धरती बेध पताले गयऊ, शेषनाग को वश करि लिएऊ,
बाँसुरी बाजत सत की ताली, तासों भये सकल विस्तारी,
कमल बीच पट ताल ।।ऐसा0।।1।।
दिन को सोधि रैन मो लाओ, रैन के भीतर भानु चलाओ,
भानु के भीतर ससि के वासा, ससि के भीतर दो परकासा,
बोलत सारंग ताल ।।ऐसा0।।2।।
पूरब सोधि पछिम दिसि लावै, अर्ध उर्ध के भेद बतावै,
सिला नाथि दक्खिन को धाओ, उत्तर दिसा को सुमरन चाखो,
चारो दिसा का हाल ।।ऐसा0।।3।।
नौ को सोधि सिढ़ी सिढ़ी लाओ, एक बेर सुमेर चढ़ाओ,
मेरुदंड पर आसन मारो, सन्मुख आगे प्रेम दृढ़ाओ,
गगन गुफा का हाल ।।ऐसा0।।4।।
गगन गुफा में अति उजियाला, अजपा जाप जपै बिनु माला,
बीना संख सहनाई बाजै, अलख निरंजन चहुँ दिसि गाजै,
हीरा बरत मोहाल1 ।।ऐसा0।।5।।
सब्द ही दिल दिल बिच राखै, दया धर्म सन्तोष दृढ़ावै,
कहै कबीर कोइ बिरला पावै, जाको सतगुरु आप लखावै,
चढ़त हमारो लाल ।।ऐसा0।।6।।
(1) दुर्लभ ।
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बीजक-कबीर साहब, पाखण्ड खण्डनी टीका-सहित, टीकाकार-रीवाँ नरेश श्रीविश्वनाथ सिंह जू । श्री वेंकटेश्वर यन्त्रलय में मुद्रित, बम्बई, संवत् 1961 । पृष्ठ 645, साखी 336 के अर्थ-प्रमाण में कबीर साहब के शब्द-(1)
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरंतर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।
चाम चश्म2 सों नजरि न आवै खोजु रूह3 के नैना ।
चुन4 चगून5 वजूद6 न मानु तैं सुभानमूना ऐना7 ।
जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।
जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं ।
रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।
जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।
बाबा अगम अगोचर कैसा, तातें कहि समझाओ ऐसा ।
जो दीसै सो तो है नाहीं, है सो कहा न जाई ।
सैना बैना कहि समझाओं, गूँगे का गुर भाई ।
दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, विनसे नाहिं नियारा ।
ऐसा ज्ञान कथा गुरु मेरे, पण्डित करौ विचारा ।
बिन देखे परतीत न आवै, कहे न कोउ पतियाना ।
समुझा होय सो सब्दै चीन्है, अचरज होय अयाना ।
कोई ध्यावै निराकार को, कोई ध्यावै साकारा ।
वह तो इन दोऊ तें न्यारा, जानै जाननहारा ।
काजी कथै कतेब कुराना, पंडित वेद पुराना ।
वह अच्छर तो लखा न जाई, मात्र लगै न काना ।
नादी बादी पढ़ना गुनना, बहु चतुराई भीना ।
कह कबीर सो पड़ै न परलय, नाम भक्ति जिन चीना ।
(2) आँख । (3) चेतन (सुरत) । (4) उपमा । (5) वैसा । (6) शरीर । (7) ठीक आइने के ऐसा ।
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।। रेखते ।। (1)
गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,
गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं ।
गुरुदेव बिन जीव का तिमर नासे नहीं,
समुझि विचारि ले मने माहीं ।।
राह बारीक गरुदेव तें पाइये,
जन्म अनेक की अटक खोलै ।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै,
जीव और सीव तब एक तोलै ।।
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।। रेखते ।। (2)
गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं,
जीव तो आपनी बुद्धि ठानै ।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिन्धु तें,
फेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै ।।
बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।
कहै कबीर तू देख संसार में,
गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै ।।
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।। रेखते ।। (3)
रैन दिन संत यों सोवता देखता,
संसार की ओर से पीठि दीये ।
मन औ पवन फिर फूटि चालै नहीं,
चंद औ सूर को सम्म कीये ।।
टकटकी चंद चक्कोर ज्यों रहतु है,
सुरत औ निरत का तार बाजै ।
नौबत घुरत है रैन दिन सुन्न में,
कहै कबीर पिउ गगन गाजै ।।
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कबीर-साखी-संग्रह
गुरु साहब करि जानिये, रहिये सब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, पल पल ध्यान लगाय ।
गुरु सीढ़ी तें ऊतरै, सब्द विहूना होय ।
ताको काल घसीटि है, राखि सकै नहिं कोय ।
तीन लोक नौ खण्ड में, गुरु तें बड़ा न कोइ ।
करता करै न करि सकै, गुरू करै सो होइ ।
साँचे गुरु के पच्छ में, मन को दे ठहराय ।
चंचल तें निःचल भया, नहिं आवै नहिं जाय ।
घर में घर दिखलाय दे, सो सतगुरु संत सुजान ।
पंच सब्द धुनकार धुन, बाजै गगन निसान ।
कबीर पूरे गुरु बिना, पूरा सिष्य न होय ।
गुरु लोभी सिष लालची, दूनी दाझन* होय । * जलन
गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरू में भाव ।
सोई गुरु नित बंदिये, (जो) सब्द बतावै दाव ।
झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै सब्द का, भटकै बारम्बार ।
गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु सिष्य न कोइ ।
नाद बिन्दु तें अगम अगोचर, पाँच तत्त तें न्यार ।
तीन गुनन तें भिन्न है, पुरुष अलक्ख अपार ।
संपुट माहिं समाइया, सो साहब नहिं होय ।
सकल माँड़ में रमि रहा, मेरा साहब सोय ।
(सर्गुन की सेवा करौ, निर्गुन का करु ज्ञान ।
निर्गुन सर्गुन के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।) **
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़े वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ।
आदिनाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।
आदिनाम निज सार है, बूझि लेहु सो हंस ।
जिन जान्यो निज नाम को, अमर भयो सो बंस ।
आदिनाम निज मूल है, और मन्त्र सब डार ।
कहै कबीर निज नाम बिनु, बूड़ि मुआ संसार ।
कोटि नाम संसार में, तातें मुक्ति न होय ।
आदिनाम जो गुप्त जप, बूझे बिरला कोय ।
राम नाम सब कोइ कहै, नाम न चीन्है कोय ।
नाम चीन्ह सतगुरु मिलै, नाम कहावै सोय ।
कबीर सब्द सरीर में, बिन गुन बाजै तांत ।
बाहर भीतर रमि रहा, तातें छूटी भ्रांति ।
सब्द सब्द बहु अंतरा, सब्द सार का सीर ।
सब्द सब्द का खोजना, सब्द सब्द का पीर ।
सब्द सब्द बहु अन्तरा, सार सब्द चित देय ।
जा सब्दै साहब मिलै, सोइ सब्द गहि लेय ।
सब्द सब्द सब कोइ कहै, वो तो सब्द विदेह ।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।
सब्द हमारा आदि का, पल-पल करिये याद ।
अन्त फलैगी माहिं की, बाहर की सब बाद ।
सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्तसब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।
सब्द हमारा हम सब्द के, सब्द ब्रह्म का कूप ।
जो चाहै दीदार को, परख सब्द का रूप ।
सब्द बिना स्त्रुति आँधरी, कहो कहाँ को जाय ।
द्वार न पावै सब्द का, फिरि फिरि भटका खाय ।
यही बड़ाई सब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
बिना सब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय ।
ज्ञान दीप परकास करि, भीतर भवन जराय ।
तहाँ सुमरि सतनाम को, सहज समाधि लगाय ।
नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छानि ।
कंचन मंदिर जारि दे, जहँ गुरु भक्ति न जानि ।
कबीर मुख सोई भला, जा मुख निकसै नाम ।
जा मुख नाम न नीकसै, सो मुख कौने काम ।
नाम जपत इस्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
सुरति सबद एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।
सुपनहु में बर्राय के, धोखेहु निकरै नाम ।
वाके पग की पैंतरी, मेरे तन को चाम ।
नाम जपत कुष्टी भला, चुइ चुइ पड़ै जो चाम ।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम ।
सुख के माथे सिल परै, (जो) नाम हृदय से जाय ।
बलिहारी वा दुक्ख की, पल पल नाम रटाय ।
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।
गुरु साहब करि जानिये, रहिये सब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, पल-पल ध्यान लगाय ।
बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साँइयाँ, आदि अन्त का यार ।
गगन मण्डल के बीच में, तहँवाँ झलके नूर* । * ज्योति
निगुरा महल न पावई, पहँुचेगा गुरु पूर ।
**(कबीर-वचनावली, सम्पादक-श्रीश्यामसुन्दर दास, बी0 ए0)
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चेतावनी और उपदेश
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय ।
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अँधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।
संगति सों सुख ऊपजै, कुसंगति सों दुख जोय ।
कहै कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ।
कबीर संगति साध की, हरै और की व्याधि ।
संगति बुरी असाध की, आठो पहर उपाधि ।
कबीर संगति साध की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिलै, साकट संग न जाय ।
कबीर संगति साध की, ज्यों गन्धी का बास ।
जो कुछ गन्धी दे नहीं, तौभी बास सुबास ।
मथुरा भावै द्वारिका, भावै जा जगन्नाथ ।
साध संगति हरि भजन बिनु, कछू न आवै हाथ ।
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुण्ठ न होय ।
भक्ति निसेनी1 मुक्ति की, सन्त चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय ।
भक्ति बिनु नहिं निस्तरै2, लाख करै जो कोय ।
शब्द सनेही ह्वै रहै, घर को पहुँचे सोय ।
टोटे3 में भक्ती करै, ताका नाम सपूत ।
माया धारी मस्खरे, केते ही गये ऊत ।
प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिंभ4 विचार ।
उद्र भरन के कारने, जनम गँवायो सार ।
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दसवें भाव ।
मन ऐरावत ह्वै रहा, कैसे होय समाव ।
जब लगि भक्ति सकाम है, तब लगि निष्फल सेव ।
कहै कबीर वह क्यों मिलै, निःकामी निज देव ।
भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ सन्त को सन्त ।
(1) सीढ़ी। (2) उद्धार पावै । (3) हानियों । (4) दम्भ, कपट ।
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जोगी जंगम सेवड़ा, संन्यासी दुरवेस1 ।
बिना प्रेम पहुँचे नहीं, दुर्लभ सतगुरु देस ।
प्रेम भक्ति का गेह है, ऊँचा बहुत एकंत ।
सीस काटि पग तर धरे, तब पहुँचे घर सन्त ।
पंज2 असमाना जब लिया, तब रन3 धसिया सूर4 ।
दिल सौंपा सिर ऊबरा, मुजरा धनी हजूर ।
धुजा फरक्कै सुन्न में, बाजै अनहद तूर ।
तकिया5 है मैदान में, पहुँचेगा कोइ सूर ।
गागर ऊपर गागरी, चोले6 ऊपर द्वार ।
सूली7 ऊपर साँथरा8, जहाँ बुलावै यार ।
बास सुरति ले आवई, सब्द सुरति लै जाय ।
परिचय स्त्रुति है इस्थिरे, सो गुरु दई बताय ।
हम चाले अमरापुरी, टारे टूरे टाट ।
आवन होय तो आइयो, सूली ऊपर बाट ।
कबीर का घर सिखर9 पर, जहाँ सिलहिली10 गैल11 ।
पाँव न टिकै पपीलिका12, पण्डित लादै बैल ।
जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राई ना ठहराय ।
मनुवाँ तहँ ले राखिया, तहईं पहुँचे जाय ।
बिन पाँवन की राह है, बिन बस्ती का देस ।
बिना पिंड का पुरुष है, कहै कबीर संदेस ।
करता की गति अगम है, चलु गुरु के उनमान13 ।
धीरे धीरे पाँव दे, पहुँचोगे परमान ।
कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।
मैं मरजीवा14 समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।
(1) फकीर । (2) पाँच । (3) लड़ाई । (3) बहादुर लड़ाका । (5) सहारा, अवलम्ब । (6) शरीर । (7) एक धार, सारशब्द । (8) बिछावन। (9) चोटी । (10) पिच्छड़ । (11) गली । (12) चींटी । (13) अनुमान। (14) पानी में बहुत देर तक डूबनेवाला ।
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डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।
मैं मरजीवा समुँद का, पैठा सप्त पताल ।
लाज कानि कुल मेटि के, गहि ले निकसा लाल ।
ऊँचा तरवर1 गगन फल, बिरला पंछी खाय ।
इस फल को तो सो चखै, जो जीवत ही मरि जाय ।
मरते-मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ।
मरिये तो मरि जाइये, छूट पडै़ जंजार ।
ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ-सौ बार ।
जीवन से मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरने पहिले जो मरै, (तो) अजर अरु अम्मर होय ।
जा मरने से जग डरै, मेरे मन आनन्द ।
कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरन परमानन्द ।
आपा मेटे गुरु मिले, गुरु मेटे सब जाय ।
अकथ कहानी प्रेम की, कहे न कोई पतियाय ।
निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।
आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल ।
आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब ।
पल में परलै होयगा, बहुरि करेगा कब्ब ।
पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।
हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार ।
हारा सतगुरु सों मिलै, जीता जम की लार ।
कथा कीरतन कलि विषे, भवसागर की नाव ।
कह कबीर जग तरन को, नाहीं और उपाव ।
जाकी जिभ्या बन्ध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
ताके संग न लागिये, घाले बटिया काँच ।
(1) बड़ा गाछ ।
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अगवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक ।
पीछे गुरु भी आयँगे, सारे साज समेत ।
जब दिल मिला दयाल से, तब कछु अन्तर नाहिं ।
पाला गलि पानी मिला, यों हरिजन हरि माहिं ।
कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय ।
सेरी1 पावै शब्द की, निर्भय आवै जाय ।
बुन्द समानी समुँद में, यह जानै सब कोय ।
समुँद समाना बुन्द में, बूझै बिरला कोय ।
निरबन्धन बंधा रहै, बंधा निरबन्ध होय ।
करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ।
कोटि कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करि धाम ।
जब लग संत न सेवई, तब लग सरै न काम ।
जहँ आपा तहँ आपदा, जहाँ संसय तहँ सोग ।
कह कबीर कैसे मिटै, चारो दीरघ रोग ।
अहं अग्नि हिरदे जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।
नैनों माहीं मन बसै, निकस जाय नौ ठौर ।
गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।
निन्दक एकहु मति मिलै, पापी मिलौ हजार ।
इक निन्दक के सीस पर, कोटि पाप को भार ।
मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत ।
सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत ।
यह कूकर को खान है, मनुष देह क्यों खाय ।
मुख में आमिख मेलता, नरक पड़ै सो जाय ।
कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार ।
जाका गर तुम काटिहौ, सो फिर काट तोहार ।
भाँग तमाखू छूतरा, अफयूँ और सराब ।
कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार ।
मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।
(1) सीढ़ी।
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विद्या मद और गुनहु मद, राजमद उनमद्द ।
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।
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लोका मति का भोरा रे ।
जौं कासी तन तजे कबीरा, रामहिं कौन निहोरा रे ।
तब हम ऐसे अब हम ऐसे, यही जनम का लाहा ।
जौं जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा ।
राम भगति में जाको हित चित, वाको अचरज काहा ।
गुरु प्रसाद साधु की संगति, जग जीते जात जुलाहा ।
कहै कबीर सुनो हो संतो, भरम पड़ो जनि कोई ।
जस कासी तस मगहा ऊसर, हृदय राम जौं होई ।
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कहौ ँ उस देश की बतियाँ, जहाँ नहिँ होत दिन रतियाँ ।।1।।
नहीँ रवि चन्द्र औ तारा, नहीं उँजियार अँधियारा ।।2।।
नहीँ तहँ पवन औ पानी, गये वहि देस जिन जानी ।।3।।
नहीँ तहँ धरनि आकासा, करै कोइ सन्त तहँ वासा ।।4।।
उहाँ गम काल की नाहीं, तहाँ नहिं धूप औ छाहीं ।।5।।
न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।।6।।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।7।।
सोहंगम नाद नहिँ भाई, न बाजै संख शहनाई ।।8।।
निहच्छर जाप तहँ जापै, उठत धुन सुन्न से आपै ।।9।।
मन्दिर में दीप बहु बारी, नयन बिनु भई अँधियारी।।10।।
कबीरा देस है न्यारा, लखै कोइ राम का प्यारा*।।11।।
* सर्वोच्च पद (मोक्षपद) के विषय में संत कबीर साहब का यह पद कठोपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल ही है -
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।15।।
-कठोप0 अ0 2, वल्ली 2
अर्थ-वहाँ (उस आत्मलोक में) सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा और तारे भी नहीें चमकते और न यह विद्युत् ही चमचमाती है, फिर अग्नि की तो बात ही क्या? उसके प्रकाशमान होते हुए ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ भासता है ।।15।।
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।6।।
-श्रीमद्भगवद्गीता, अ015
अर्थ-उस पद को सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि प्रकाशित नहीं करती है । उसमें जाकर फिर कोई नहीं लौटता है, वह मेरा परम धाम है।। 6।।
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