भगवान शंकराचार्यजी महाराज

(ग्रन्थ ‘प्रबोध-सुधाकर’-नादानुसंधान)

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सिद्ध्यारम्भस्थिरताविश्रमविश्वासबीजशुद्धीनाम् ।
उपलक्षणं हि मनसः परमं नादानुसन्धनम् ॥ १४५॥ 

भेरीमृदङ्गशङ्खाद्याहतनादे मनः क्षणं रमते ।
किं पुनरनाहतेऽस्मिन्मधुमधुरेऽखण्डिते स्वच्छे ॥ १४६॥

चित्तं विषयोपरमाद्यथा यथा याति नैश्चल्यम् ।
वेणोरिव दीर्घतरस्तथा तथा श्रूयते नादः ॥ १४७॥

नादाभ्यन्तर्वर्ति ज्योतिर्यद्वर्तते हि चिरम् ।
तत्र मनो लीनं चेन्न पुनः संसारबन्धाय ॥ १४८॥

परमानन्दानुभवात्सुचिरं नादानुसन्धानात् ।
श्रेष्ठश्चित्तलयोऽयं सत्स्वन्यलयेष्वनेकेषु ॥ १४९॥

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सिद्ध्यारम्भस्थिरताविश्रमविश्वासबीजशुद्धीनाम् ।
उपलक्षणं हि मनसः परमं नादानुसन्धनम् ॥ १४५॥

नादानुसंधान (सुरत-शब्द-योग) मन के लिए सिद्धि के आरम्भ, स्थिरता, विश्राम, विश्वास और वीर्य-शुद्धि का बतलानेवाला परम चिह्न है। (श्लोक 145)
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भेरीमृदङ्गशङ्खाद्याहतनादे मनः क्षणं रमते ।
किं पुनरनाहतेऽस्मिन्मधुमधुरेऽखण्डिते स्वच्छे ॥ १४६॥

मन तो भेरी, मृदंग, शंख आदि के आघातजन्य नादों में भी एक क्षण के लिए मग्न हो जाता है, फिर इस मधुवत् मधुर, अखण्डित और स्वच्छ अनाहत नाद की तो बात ही क्या है ? (श्लोक 146)
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चित्तं विषयोपरमाद्यथा यथा याति नैश्चल्यम् ।
वेणोरिव दीर्घतरस्तथा तथा श्रूयते नादः ॥ १४७॥

विषयों से उपराम होकर मन जैसे-जैसे स्थिर होता जाता है, वैसे-वैसे ही बाँसुरी के समान दीर्घ और स्फुट नाद सुनाई पड़ने लगता है। (श्लोक 147)
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नादाभ्यन्तर्वर्ति ज्योतिर्यद्वर्तते हि चिरम् ।
तत्र मनो लीनं चेन्न पुनः संसारबन्धाय ॥ १४८॥

नाद के भीतर रहनेवाली जो ज्योति है, उसमें यदि मन चिरकाल तक लीन हो जाय तो फिर मनुष्य संसार-बन्धन में नहीं पड़ता। (श्लोक 148)
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परमानन्दानुभवात्सुचिरं नादानुसन्धानात् ।
श्रेष्ठश्चित्तलयोऽयं सत्स्वन्यलयेष्वनेकेषु ॥ १४९॥

यद्यपि लय के और अनेक उपाय हैं, तथापि जो चित्त-लय दीर्घकाल तक नादानुसंधान करते हुए परमानन्द का अनुभव होने से प्राप्त होता है, वह सर्वोत्तम है। (श्लोक 149)

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