भगवान महावीर 

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आत्मशोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृंगार, स्त्रियों (पुरुषों) का संसर्ग और पौष्टिक-स्वादिष्ट भोजन; सब तालपुट विष के समान महान भयंकर हैं।
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 जो मनुष्य निष्कपट एवं सरल होता है, उसी की आत्मा शुद्ध होती है और जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है। घी से सींची हुई अग्नि जिस प्रकार पूर्ण प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल, शुद्ध साधक ही पूर्ण निर्वाण को प्राप्त होता है।
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 समाधि की इच्छा रखनेवाले तपस्वी-श्रमण परिमित तथा शुद्ध आहार ग्रहण करे, निपुण बुद्धि के तत्त्वज्ञानी साथी की खोज करे और ध्यान करने योग्य एकान्त स्थान में निवास करे।
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 जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एक अपनी आत्मा को जीत ले, तो यही उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय होगी।
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 जब मन, वचन और शरीर के भोगों का निरोध कर आत्मा शैलेशी (शैलवत् अचल-अकम्प) अवस्था पाती है-पूर्ण रूप से स्पन्दन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों को क्षय कर, सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करती है।
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 सद्गुरु तथा अनुभवी वृद्धों की सेवा करना, मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना, एकान्तचित्त से सत् शास्त्रें का अभ्यास करना और उनके गम्भीर अर्थ का चिन्तन करना तथा चित्त में धृति-रूप अटल शान्ति प्राप्त करना, यह निःश्रेयस् का मार्ग है।
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 जिस प्रकार शिक्षित (सधा हुआ) तथा कवचधारी घोड़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार विवेकी मुमुक्षु भी जीवन-संग्राम में विजयी होकर मोक्ष प्राप्त करता है। जो मुनि दीर्घकाल तक अप्रमत्त रूप से संयम-धर्म का पालन करता है, वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष पद पाता है।

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