मनुस्मृति

===================================================
अध्याय (2)

यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति।।218।।

श्रद्दधानः शुभां विद्यां आददीतावरादपि ।
अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि । । २38 । ।

===================================================
अध्याय (4)

एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्ते हितमात्मनः।
एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति।। 258।।

===================================================
अध्याय (5)

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।। 48।।

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातकाः।। 51।।

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
अनभ्यर्च्यं पितृन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत्।। 52।।

मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।। 55।।

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला।।56।।

===================================================
अध्याय (12)

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयस्करं परम्।। 83।।

सर्वेषामपि चैतेषां शुभानामिह कर्मणाम्।
किंचिच्छेªयस्करतरं कर्मोक्तं पुरुषं प्रति।। 84।।

सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम्।
तद्ध्यग्र्यं सर्व विद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः।। 85।।

इह चामुत्र वा काम्यं प्रवृत्तं कर्म कीर्त्यते।
निष्कामं ज्ञान पूर्वं तु निवृत्तमुपदिश्यते।। 89।।

प्रवृत्तं कर्म संसेव्य देवानामेति साम्यताम्।
निवृत्तं सेवमानस्तु भूतान्यत्येति पंच वै।। 90।।

 *********************


===================================================
अध्याय (2)

यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति।।218।।

जैसे कुदाली से खोदते-खोदते मनुष्य जल पाता है, उसी प्रकार गुरु की सेवा-शुश्रूषा करते-करते शिष्य गुरु की सम्पूर्ण विद्या को पाता है।।218।।

श्रद्दधानः शुभां विद्यां आददीतावरादपि ।
अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि । । २38 । ।

श्रद्धा-युक्त हो शुभ कहिए जिसकी शक्ति देखी गई है, ऐसी गारुड़ आदि विद्या को शूद्र से भी ग्रहण कर ले और चाण्डल से भी मोक्ष के उपाय, तत्त्वज्ञान को ग्रहण करे।।238।।
===================================================
अध्याय (4)
एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्ते हितमात्मनः।
एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति।। 258।।

एकान्त में अकेला अपनी आत्मा के हित का नित्य ही ध्यान करे, इसमें परम कल्याण होगा।।258।।

===================================================
अध्याय (5)
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।। 48।।

जीवों की हिंसा-बिना मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हिंसा स्वर्ग-प्राप्ति में बाधक है; अतः मांस-भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए।।48।।

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातकाः।। 51।।

(1) पशुवध करने की आज्ञा प्रदान करनेवाला, (2) शस्त्र से मांस काटनेवाला, (3) मारनेवाला, (4) बेचनेवाला, (5) मोल लेनेवाला, (6) मांस को पकानेवाला, (7) परोसने के लिए लानेवाला, (8) खानेवाला; ये आठो घातक (हिंसा करनेवाले) ही कहलाते हैं।।51।।

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
अनभ्यर्च्यं पितृन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत्।। 52।।

जो मनुष्य दूसरे के मांस द्वारा अपने मांस को बढ़ाने की इच्छा-मात्र करता है, उससे अधिक दूसरा पापी नहीं है।।52।।

मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।। 55।।

‘मांस’ पद का वास्तविक तात्पर्य महर्षियों ने यही बतलाया है कि जिस जीव का मांस हम भक्षण करेंगे, वही अन्य जन्म में हमारे मांस को भी भक्षण करेगा। एतदर्थ मांस-भक्षण नहीं ही करे, यही सर्वोत्तम है।।55।।

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला।।56।।

मांस भक्षण करने, मद्य (शराब आदि) पीने तथा मैथुन करने में प्रायः जीवों की प्रवृत्ति है और अज्ञानवश इसमें दोष नहीं मानते हैं, परन्तु इन सबका परित्याग महाफल देनेवाला है।।56।।

===================================================
अध्याय (12)

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयस्करं परम्।। 83।।

वेद-पाठ, तप, ज्ञान, इन्द्रिय-निग्रह, अहिंसा (किसी जीव को न मारना), गुरु की सेवा-शुश्रूषा करना; ये सब कर्म बड़े कल्याणकारी हैं।।83।।

सर्वेषामपि चैतेषां शुभानामिह कर्मणाम्।
किंचिच्छेªयस्करतरं कर्मोक्तं पुरुषं प्रति।। 84।।

इन सब शुभ कर्मों में से प्रत्येक कर्म मनुष्यों के मोक्ष के हेतु अत्यन्त कल्याण करनेवाले हैं।।84।।

सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम्।
तद्ध्यग्र्यं सर्व विद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः।। 85।।

इन सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है, अविद्या का नाश करती है और जिससे अमृत अर्थात् मुक्ति प्राप्त होती है।।85।।

इह चामुत्र वा काम्यं प्रवृत्तं कर्म कीर्त्यते।
निष्कामं ज्ञान पूर्वं तु निवृत्तमुपदिश्यते।। 89।।

इस लोक और परलोक में मनोवांछित फल प्राप्त करने के अभिप्राय से जो कर्म है, वह प्रवृत्ति कहलाता है और निष्काम भाव से ज्ञानपूर्वक जो कर्म है, वह निवृत्ति कहलाता है।।89।।

प्रवृत्तं कर्म संसेव्य देवानामेति साम्यताम्।
निवृत्तं सेवमानस्तु भूतान्यत्येति पंच वै।। 90।।

प्रवृत्ति कर्म करने से देवताओं के समान होता है और निवृत्ति कर्म करने से पृथ्वी आदि पंच भूतों को विजय करता है अर्थात् पंचभूतों से जन्म होता है, उनको विजय करने से फिर जन्म नहीं होता।।90।।

*********************

Mobirise gives you the freedom to develop as many websites as you like given the fact that it is a desktop app.

Publish your website to a local drive, FTP or host on Amazon S3, Google Cloud, Github Pages. Don't be a hostage to just one platform or service provider.

Just drop the blocks into the page, edit content inline and publish - no technical skills required.

कॉपीराइट अखिल भरतीय संतमत-सत्संग प्रकाशन के पास सुरक्षित