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पद्मपुराणांक, पृष्ठ 94
गाय बोली-भाई बाघ!
तपः कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञान कर्म च।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे।।
सर्वेषामेव दानानामिदमेवैकमुत्तमम्।
अभयं सर्वभूतानां नास्ति दानमतः परम्।।
चराचराणां भूतानामभयं यः प्रयच्छति।
स सर्व भय संत्यत्तफ़ः परं ब्रह्माधिगच्छति।।
नास्त्यहिंसा समं दानं नास्त्यहिंसा समं तपः।
यथा हस्तिपदे ह्यन्यत्पदं सर्व पलीयते।
सर्वे धर्मास्तथा व्याघ्र प्रतीयन्ते ह्यहिंसया।।
-18 । 437-441
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पृष्ठ 143
राजा श्वेत (विदर्भ देश के राजा वसुदेव के पुत्र) की कथा
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पृष्ठ 311
पृष्ठ 312
गुरुतीर्थ
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पृष्ठ 94
गाय बोली-भाई बाघ!
मूल- तपः कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ज्ञान कर्म च।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे।।
सर्वेषामेव दानानामिदमेवैकमुत्तमम्।
अभयं सर्वभूतानां नास्ति दानमतः परम्।।
चराचराणां भूतानामभयं यः प्रयच्छति।
स सर्व भय संत्यत्तफ़ः परं ब्रह्माधिगच्छति।।
नास्त्यहिंसा समं दानं नास्त्यहिंसा समं तपः।
यथा हस्तिपदे ह्यन्यत्पदं सर्व पलीयते।
सर्वे धर्मास्तथा व्याघ्र प्रतीयन्ते ह्यहिंसया।। -18 । 437-441
विद्वान् पुरुष सत्ययुग में तप की प्रशंसा करते हैं और त्रेता में ज्ञान तथा उसके सहायक कर्म की। द्वापर में यज्ञ को ही उत्तम बतलाते हैं, किन्तु कलियुग में एक मात्र दान ही को श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण दानों में एक ही दान सर्वोत्तम है; वह है सम्पूर्ण भूतों को अभयदान। इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियों को अभयदान देता है, वह सब प्रकार के भय से मुक्त होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है। अहिंसा के समान न कोई दान है, न तपस्या। जैसे हाथी के पद-चिह्न में सभी प्राणियों के पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसा द्वारा सभी धर्म प्राप्त हो जाते हैं। - 18।437-441
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पृष्ठ 143
राजा श्वेत (विदर्भ देश के राजा वसुदेव के पुत्र) की कथा
अगस्त्यजी ने श्रीरामजी को कहा था कि राजा श्वेत ब्रह्मा के लोक में गए। दान नहीं किया था, अतः उसको वहाँ भी भूख-प्यास सताती थी। उसको निज मृत शरीर का मांस भोजन करने की आज्ञा ब्रह्मा ने दी।
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पृष्ठ 311
पृष्ठ 312
गुरुतीर्थ
गुरुतीर्थ बड़ा उत्तम तीर्थ है, मैं उसका वर्णन करता हूँ। गुरु के अनुग्रह से शिष्य को लौकिक आचार-व्यवहार का ज्ञान होता है, विज्ञान की प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जैसे सूर्य सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार गुरु शिष्यों को उत्तम बुद्धि देकर उनके अन्तर्जगत् को प्रकाशपूर्ण बनाते हैं। सूर्य दिन में प्रकाश करते हैं, चन्द्रमा रात में प्रकाशित होते हैं और दीपक केवल घर के भीतर उजाला करता है; परन्तु गुरु अपने शिष्य के हृदय में सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्य के अज्ञानमय अन्धकार का नाश करते हैं; अतः शिष्य के लिए गुरु ही सबसे उत्तम तीर्थ है।
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