महाभारत

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मूल-आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः।
तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः।।

(म0 भा0 शां0 187, 24) गीता-रहस्य, पृ0 200-201 से उद्धृत।
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 मूल-ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।

(विष्णु पु0 6, 5, 74)

[लोकमान्य बालगंगाधार तिलककृत गी0 र0, पृ0 119 से उद्धृत]
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श्रीमहाभारत-भाषा*
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मूल-आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः।
तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः।।


अर्थ-जब आत्मा प्रकृति में या संसार में बद्ध रहता है, तब उसे क्षेत्रज्ञ वा जीवात्मा कहते हैं और वही प्राकृत गुणों से यानी प्रकृति या शरीर के गुणों से मुक्त होने पर ‘परमात्मा’ कहलाता है।
(म0 भा0 शां0 187, 24) गीता-रहस्य, पृ0 200-201 से उद्धृत।
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मूल-ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।


अर्थ-समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य-इन छह बातों को ‘भग’ कहते हैं। (विष्णु पु0 6, 5, 74)

[लोकमान्य बालगंगाधार तिलककृत गी0 र0, पृ0 119 से उद्धृत]
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श्रीमहाभारत-भाषा*
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आदिपर्व

अध्याय (91)

इस लोक में सिद्धि उन्हीं को मिलती है, जो सब कर्म और सब कामनाओं को छोड़कर, मौन होकर स्थित हो जाते हैं।।14।।

जो मुनि शुद्ध भोजन, अहिंसा और शुद्ध कर्म करनेवाले हैं, उनका सत्कार सदैव करना चाहिए।।15।।

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उद्योगपर्व

अध्याय (33)

जिन मनुष्यों को पण्डितों की बुद्धि होती है, वे यथाशक्ति किसी कार्य के करने की इच्छा करते व यथाशक्ति ही करते व अपमान किसी का नहीं करते।।26।।

जो पुरुष अच्छी प्रकार दृढ़तापूर्वक जान लेने के लिए बड़ी देर तक सुनता व फिर झट जान लेता, वह सब कार्य जान ही कर करता है, केवल इच्छा ही से नहीं करता कि जो बात हुई, झट कर बैठा व जो बिना अच्छी तरह से पूछे किसी को उत्तर नहीं देता, यह पण्डित का पहिला चिह्न है।।27।।

क्षमा परम बल है, अशक्तों के लिए क्षमा गुण है, समर्थों का भूषण है ।।54।।

लोक में क्षमा सबको वश में कर लेती है, क्षमा से क्या सिद्ध नहीं होता ? क्योंकि शान्ति-रूप खड़ग जिसके हाथ में है, उसको दुर्जन क्या करेगा ? ।।55।।

जहाँ खड़ न हो, उस स्थान पर अग्नि गिरे, तो अपने आप बुझ जाय व जो क्षमा नहीं करता, वह बहुत-से दोषों से अपने को युक्त करता है।।56।।

एक धर्म परम कल्याणदायक है व एक क्षमा उत्तम शान्ति है व एक विद्या परम तृप्ति है, व एक अहिंसा सब सुख देती है।।57।।

आरोग्य, अनृण होना (ऋण-रहित होना), विदेश में न रहना, सज्जनों के संग में बैठना-उठना, सानुकूल जीविका, निर्भय वास; ये छह पदार्थ मनुष्य के सुखदायक हैं।।90।।

ईर्षाकारी, निर्दयी, असन्तुष्ट, क्रोधी, नित्य शंकितचित्त व परभाग्योपजीवी; ये छह पुरुष नित्य दुःखित रहते हैं।।91।।
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अध्याय (42)
जिस देश में बिना अपना प्रभाव बताए कोई अमंगल, भय, गाली प्रदानादि करता हो, वहाँ भी जो अपना उत्कर्ष न कहकर भोजनादि किसी तरह कर लेता, वह श्रेष्ठतम योगी है व जो इसके विपरीत करता, वह श्रेष्ठ नहीं है।।31।।
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अध्याय (70)
वसनात् सर्वभूतानां वासुत्वाद् देव योनितः।
वासुदेवस्ततो वेद्यो बृहत्वाद् विष्णुरुच्यते।। 3।।

बसें सब भूत-प्राणि जिसमें, उसे वासु कहते व वासु ही जो देव, उनको वासुदेव कहते हैं व व्यापक होने से विष्णु नाम कहाया।।3।।
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अध्याय (29)

श्लोक-रामं दाशरथिं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम।
योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रनिवौरसान।।
[किसी-किसी प्रति में यह श्लोक अ0 28 में है।]

दशरथजी के पुत्र रामचन्द्रजी को देह छोड़नेवाला सुनते हैं। महाभुजवाले रामचन्द्रजी ने ग्यारह हजार वर्ष पर्यन्त राज्य किया। वह भी तुझ* पिता-पुत्र से अधिक पुण्यात्मा, दानी, प्रतापी होकर इस अनित्य शरीर को त्याग गए, फिर तू पुत्रशोक व्यर्थ करता है।**
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अध्याय (178) गी0 प्रे0 गो0-

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते।। 48।।

यदि गुरु भी कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को न समझते हुए कुपथ का आश्रय ले, तो उसका परित्याग कर दिया जाता है।।48।।
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अध्याय (180)

श्लोक 25वें का भावार्थ (नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ में 1913 ई0 में छपा)
दोहा-गर्वित कार्य्य अकार्य्य नहिं, जानत चलत कुपन्थ।
ऐसे गुरु कहँ त्यागिये, यही कहत शुभ ग्रंथ।।
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अश्वमेध पर्व

अध्याय [11]

‘‘वृद्धों के हजारों उपदेश और हजारों यज्ञों से भी शोक नहीं निवृत्त हो सकता, केवल ब्रह्मज्ञान से दूर हो सकता है।’’

इस बात को प्रकट करने के लिए वासुदेवजी बोले कि सब प्रकार के कामादिक मृत्यु के स्थान हैं अर्थात् संसार में ही प्रवृत्त करने अथवा फँसानेवाले हैं और शम-दमादिक सत्य बोलना ब्रह्मपद है अर्थात् मुक्ति का देनेवाला है इतना ही ज्ञान का विषय है। बहुत-सी अन्य वार्ता वृथा हैं। (3। 4)
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अध्याय [13]
(श्री कृष्ण भगवान् महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं-)
प्राचीन वृत्तांतों के जाननेवाले मनुष्य इस स्थान पर कामदेव के गाए हुए इन श्लोकों को कहते हैं, उन श्लोकों को मैं तुझसे कहता हूँ। हे युधिष्ठिर ! उनको सम्पूर्णता से सुनो ।।12।।

निर्ममता और योगाभ्यास के बिना कोई उपाय करके भी मुझको कोई जीव नहीं मार सकता।।13।।

जो पण्डित मनुष्य आत्मा को न जानकर मोक्ष-मार्ग में नियत होकर मेरे मारने का उपाय करता है।।18।।

उस मोक्ष में प्रवृत्तचित्त मनुष्य को देखकर मैं नाचता हूँ और हँसता हूँ। मैं अकेला सनातन सब जीव मात्रें से अवध्य हूँ।।19।।

चित्त-शुद्धि के द्वारा ममता से रहित योगाभ्यास और योगाभ्यास से काम-विजय होगा, फिर मोक्ष प्राप्त होगा।।20।।
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अध्याय [19]

इसके अनन्तर अब उस योगशास्त्र का वर्णन करता हूँ, जिससे उत्तम कोई नहीं है। उसी के द्वारा योगिजन ध्यान से शुद्ध आनन्दरूप ब्रह्म को देखते हैं।।15।।

मैं उसके उपदेश को ठीक-ठीक कहूँगा, उसको तुम चित्त से सुनो। जिन उपायों से चित्त को शरीर में अन्तर्मुख करता हुआ उस आदि-अन्त-रहित परमात्मा को देखता है।।16।।

जैसे कि कोई मनुष्य सींक को मूँज से खींचकर देखे, उसी प्रकार योगी भी शरीर से आत्मा को जुदा करके देखता है।।22।।

मूँज को शरीर कहा; सींक को आत्म-रूप कहा; यह श्रेष्ठ दृष्टान्त बड़े उत्तम योगी लोगों से जाना गया है।।23।।

जब जीवात्मा अपने आत्मा को परमात्मा में अच्छी तरह से संयुक्त देखता है, तब एकता से इस संसार में उसका कोई ईश्वर नहीं है, जो कि तीनों लोकों का स्वामी है, वह भी नहीं।।24।।

वह योगी अपनी इच्छा के अनुसार देवता, गन्धर्व और मनुष्यों के शरीरों को प्राप्त करता है और जरा-मरण-दशाओं से पृथक् होकर न सोचता है, न प्रसन्न होता है।।25।।

वह इन्द्रियों को स्वाधीन रखनेवाला योगी देवताओं के देव-भाव को भी प्राप्त करता है और इस विनाशवान शरीर को त्याग करके अविनाशी ब्रह्म को पाता है अर्थात् विदेह कैवल्य तक ही ऐश्वर्य है।।26।।

योगी अचलेन्द्रियों के द्वारा मन को शरीर में रोककर वहाँ आत्मा की खोज करे और चारों ओर से मोह अर्थात भूल का त्याग करे।।46।।

इस रीति से सदैव योग का अभ्यास करनेवाला शुद्धचित्त मनुष्य थोड़े ही समय में उस ब्रह्म को पाता है, जिसको कि देखकर प्रधान का जाननेवाला होता है।।47।।

वह ब्रह्म नेत्रें से देखने में नहीं आता; किसी इन्द्रिय से भी नहीं जाना जाता, यह बड़ा श्रेष्ठ आत्मा केवल चित्त-रूपी दीपक ही से देखने में आता है।।48।।

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शान्तिपर्व (राजधर्म)

अध्याय [12]

और अन्य ऋषि लोग चित्त ही में मानसी पूजनादि से यज्ञों को करते हैं। हे राजन् ! देवता लोग भी ऐसे ब्राह्मण की इच्छा करते हैं, जो चित्त को एकाग्र करके ब्रह्म-रूप को देखता है, इसी से वह भी ब्रह्म-रूप ही है।
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शान्तिपर्व (पूर्वार्द्ध, मोक्षधर्म)

श्लोक- शूद्रो चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः।।
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अध्याय [16]
भारद्वाज और भृगुजी का संवाद- जो ब्राह्मण के गुण शूद्र में दृष्टि पड़ें और ब्राह्मण में वर्त्तमान न हों, ऐसी दशा में शूद्र, शूद्र नहीं और ब्राह्मण, ब्राह्मण नहीं गिना जाएगा।
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अध्याय [65]
व्यासजी बोले कि जो पुरुष बिना आत्मज्ञान के दान, तप आदि कर्मों को हजारों वर्षों तक करता है; वह दानादि नाशवान होता है, इस कारण आत्मा का आकांक्षी उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करे।
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अध्याय [67]
(व्यासजी का वाक्य-) तीनों काल योग का अभ्यास करे; जैसे पात्रें का चाहनेवाला मनुष्य पात्रें की रक्षा करता है, उसी प्रकार एकाग्रता करनेवाला इन्द्रियों के समूह को हृदयकमल में नियत करके सदैव ध्यान करे और योग से चित्त को भयभीत न करे। जिस युक्ति से इस चंचल चित्त को वश में करे, उसी का सेवन करे और तद्रूप होकर उससे चलायमान न हो, वह सावधान योगी है। इस शान्त चित्त-रूप योग-मार्ग से शूद्र और धर्म जाननेवाली स्त्रियाँ भी परमगति को पाती हैं। परन्तु शान्त चित्त-रूप योगमार्ग में स्त्री और शूद्र भी अधिकारी हैं।
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अध्याय (89)
जीवों का कोई धर्म अहिंसा से उत्तम नहीं है। अभय-रूप दानों को सब दानों से श्रेष्ठ कहते हैं।
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अध्याय (92)
अब हिंसात्मक धर्म की निन्दा करने को भीष्मजी बोले कि इस स्थान पर प्राचीन इतिहास को कहते हैं, जिसको प्रजाओं के उपकारार्थ राजा विचख्यु ने कहा है। गवालम्भन नामक यज्ञ में वृद्ध देहवाले बैल को देखकर और गौओं के बड़े विलाप को सुनकर यज्ञशाला में नियत निर्दयी ब्राह्मणों को देखते हुए उस राजा ने यह वचन कहा कि लोकों में गौओं के निमित्त कल्याण हो। अज्ञानी नास्तिक, संशययुक्तचित्त, यज्ञ से ही कीर्ति चाहनेवाले मनुष्यों की ओर से यह हिंसात्मक उपदेश किया गया है। धर्मात्मा मनुजी ने सब कर्मों में अहिंसा को ही उत्तम कहा है। मनुष्य अपनी इच्छा से वेद से बाहर पशुओं को मारते हैं। आशय यह है कि हिंसात्मक कर्म अज्ञानियों के हैं। सब जीव मात्र में अहिंसा धर्म सब धर्मों से उत्तम माना गया है। नीच पुरुष ऐसे होते हैं कि उनका कर्मफल, कर्म में प्रवृत्त होने का कारण होता है। वे आदमी यज्ञ-विटप और यज्ञ-कुम्भों को नियत करके निरर्थक मांसों को खाते हैं। इस धर्म की प्रशंसा नहीं की जाती है। मदिरा, मांस, मत्स्य, मधु, आसव, कृषरोदन; यह सब धूर्त्तों ने प्रवृत्त किया है। श्रेष्ठ लोगों में इसकी प्रवृत्ति नहीं है; न वेदों में इसकी विधि है। मान, मोह, लोभ से यह इच्छा-कल्पना की गयी है। ब्राह्मण सब यज्ञों में विष्णु को ही पूजन के योग्य मानते हैं और उनका पूजन चन्दन-पुष्पों से कहा है।
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शान्तिपर्व (उत्तरार्द्ध, मोक्षधर्म)

अध्याय (90)

बिना स्त्री के वेदोक्त यज्ञ कैसे होता है, उसको सुनो कि हिंसा-रहित बुद्धि-युक्त घृतादिक द्रव्यों का देवार्पण कर श्रद्धारूप स्त्री को करता है, यज्ञ को देवता के समान सेवन करके सर्वव्यापी विष्णु ब्रह्म को प्राप्त करे। सब पशुओं में पुरोडाश नामक हव्य पवित्र कहा जाता है अर्थात् पशु-यज्ञ निन्दित है। सत्य नदी सरस्वती है, सब पर्वत पवित्र हैं और आत्मा तीर्थ है अर्थात् जहाँ आत्मयज्ञ है, वहाँ सब तीर्थ हैं।
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अध्याय (104)
युधिष्ठिर बोले कि ज्ञानी पुरुष कौन-से आचार, ज्ञान से भरे स्वभाव और उन्नत स्थान का ज्ञाता होकर ब्रह्मरूप स्थान को पाता है; क्योंकि परा प्रकृति रूपान्तर-दशा से रहित है। भीष्मजी बोले कि मोक्षधर्म अर्थात् अध्यात्म-विद्या में प्रीतिमान वह हितकारी जितेन्द्रिय पुरुष उस प्रकृति से भी ऊँचे, राग-द्वेष-रहित, रूपान्तर अवस्था से पृथक्, एकरसवाले स्थान को पाता है।
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अध्याय (114)
उस ब्रह्मविद्या को, जिसमें उपदेश ही प्रधान है, सुनकर उसी को युक्ति-प्रधान जानने की इच्छा से युधिष्ठिर बोले-‘‘हे पितामह ! जिसने सब शास्त्रें के सिद्धान्त को नहीं जाना और सदैव संशय में ही पड़ा हुआ है और उस आत्मदर्शन के निश्चय के लिए शम-दमादि के अनुष्ठान को नहीं किया है, उसके कल्याण को आप कहिए।’’ भीष्मजी बोले कि ईश्वर में चित्त लगाकर गुरु की पूजा और आचार्यों का सदैव पूजन करे। गुरु आदि से शास्त्रें को सुनना, तदन्तर शुद्ध ब्रह्म से सम्बन्ध रखनेवाला कल्याण कहा जाता है। जो कल्याण चाहे, दूसरे की निन्दा से अपनी प्रतिष्ठा न चाहे; केवल अपने गुणों से ही लघुजनों से प्रतिष्ठा चाहे। जो प्रतिष्ठावान पुरुष अपने गुण और ऐश्वर्य के कारण दूसरे गुणवानों की निन्दा करते हैं, वे बड़े अज्ञानी हैं। वे अपने अभिमान से बड़े लोगों को शिक्षा करते हुए अपने को बड़ा मानते हैं। किसी की निन्दा न करता हुआ अपनी प्रशंसा रहित गुणी दयालु पुरुष ब्रह्म को पाता है। न बोलने से पुष्पों की पवित्र गंध उठती है और आकाश में निर्मल सूर्यदेवता बिना बोले प्रकाश करते हैं। इस प्रकार के दूसरे जीव बुद्धि के द्वारा संसार में प्रसिद्ध हैं। जो अधिक भाषण नहीं करते हैं, वे लोक में यश को प्रकाश करते हैं। मूर्ख मनुष्य केवल अपनी प्रशंसा से लोक में प्रकाश नहीं करता है। विद्वान मौन भी प्रकाशमान होता है। ऊँचे स्वर से कहा हुआ भी असार शब्द निचाई को पाता है और धीरे से भी कहा हुआ सुन्दर शब्द लोकों में प्रकाश करता है। बिना पूछे किसी से कुछ न कहे और पूछा हुआ भी न्याय के विरुद्ध न कहे।
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अध्याय (121)
पंच ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि- ये ही सप्त ऋषि हैं। इन सब ऋषियों के ऊपर हजारों आरेवाला चक्र देह से पृथक् परमात्मा है। वह देह में नियत है और पृथक्-पृथक् मण्डलों में षट् चक्रों के राजा गणेश आदि जो कि योग के विघ्नों को नाश करनेवाले हैं, वे वर्त्तमान हैं। (जनक से पराशर का कथन) हे राजन् ! मैं शास्त्र से अच्छे प्रकार विचार कर तुमसे कहता हूँ कि जीव आत्मज्ञान ही को प्राप्त करे और हिंसात्मक कर्मों का त्याग करे।
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अध्याय (132)
योगियों के शास्त्र में करने योग्य ध्यान ही परम सामर्थ्य है। हे तात ! महान्धकार के अन्त में वर्त्तमान वह सृष्टि का स्वामी बुद्धिरूप धन से पूर्ण, सबसे परे वर्त्तमान उस पुरुष के चित्तरूपी दीपक से दिखाई देता है। सर्व वेद-पारग ब्राह्मणों से वह अन्धकार का नाश-कर्त्ता चिदात्मा प्रकाशमान सूत्रात्मा से पृथक् उपाधि-रहित ब्रह्म कहा गया है; जैसे कि समुद्र की लहरें समुद्र में ही लय हो जाती हैं। हे राजन् ! इसी प्रकार से प्रकृति की भी उत्पत्ति और लय है अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति ब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी शुद्ध ब्रह्म में लय हो जाती है। प्रकृति के लय हो जाने पर इस पुरुष की भी एकता होती है और जब उसको उत्पन्न करती है, तब अनेकता होती है। जो नाना प्रकार की बुद्धि रखनेवाले पुरुष अनेकता को देखते हैं और उनमें ब्रह्म-दर्शन नहीं है, वे बारम्बार शरीरों को धारण करते हैं। इस ब्रह्म को विज्ञान और ध्यान-बल से अपरोक्ष न करनेवाले ब्रह्म का ज्ञान न होने से शरीर प्राप्त करनेवाले पुरुष शरीर के अधीन होंगे। यह सब संसार अव्यक्त अर्थात् अज्ञान-प्रधान है और पचीसवाँ चिदात्मा इससे पृथक् है। जो पुरुष इस पचीसवें को जानते हैं, उनको इस दुःख-रूपी संसार का कोई भय नहीं है।
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अध्याय (133)
जब योगी उस प्रकृति को ब्रह्म में लय करता है, तब वह पचीसवाँ चिदाभास जीव उन गुणों समेत लय को प्राप्त होता है अर्थात् तीसरा महापुरुष शेष रहता है। तात्पर्य यह है कि जबतक चिदाभास और प्रकृति की एकता है, तबतक दोनों अविनाशी हैं। फिर दोनों का नाश हो जाता है। जब प्रलय के समय महत्तत्त्वादि गुण प्रकृति के गुणों में लय होते हैं, तब प्रकृति ही अकेली रह जाती है।
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अध्याय [136]
योगियों का और सांख्य मतवालों का उत्तम ज्ञान है। उसको विभागपूर्वक सुनो, तात्पर्य यह है कि योगमत में अव्यक्त को जड़ और सत्य भी मानते हैं और सांख्य मत में चैतन्य के प्रतिबिम्ब से युक्त अव्यक्त शुद्ध ब्रह्म के ज्ञान से लय हो जाता है।
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अध्याय (144)
वेदपाठ, जप, तप, यज्ञ आदि से ज्योति-रूप स्थान को नहीं पाता है, वह अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करके ही प्रतिष्ठा को पाता है। इसी प्रकार महत्तत्त्व और अहंकार में नियत होकर देवताओं के लोकों को और अहंकार से ऊपर के भी स्थान को प्राप्त करे अर्थात् जिस-जिसकी उपासना करता है, उस-उसके रूप को प्राप्त करता है और जो शास्त्र का जाननेवाला ज्ञानी अव्यक्त से ऊँचे और सदैव एक दशा रखनेवाले, जन्म-मृत्यु से रहित, सत्य-मिथ्या से पृथक् ब्रह्म को जानते हैं, वे ब्रह्म-भाव को पाते हैं। हे राजन् ! ज्ञानी पुरुष ब्रह्म को माया से जुदा कहते हैं। जो मनुष्य ज्ञान-मार्ग में नियत नहीं है, वह यज्ञ, तप, नियम और व्रतों के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त होकर फिर पृथ्वी में गिरकर जन्म को पाते हैं।
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अध्याय (144)
पृ0 723- ज्ञान ही से आत्मा जन्म-मृत्यु से रहित होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा कोई नीच भी हो, उससे भी ज्ञान लेने में श्रद्धा करनी चाहिए। श्रद्धावान को जन्म-मृत्यु नहीं होती है।
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अध्याय [148]
हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ का फल योग की कला के भी समान नहीं होता है।
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अध्याय (154)
विद्या के समान आँख नहीं है, त्याग के समान सुख नहीं। पाप कर्म से पृथक्, उत्तम प्रकृति, श्रेष्ठ वृत्ति और सदाचार; ये महाकल्याण हैं। दया धर्म ही उत्तम है, शान्त होना ही बड़ा पराक्रम है और ज्ञानों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ है और सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है। सत्य बोलना कल्याण-रूप है और सत्य से भी वह उत्तम है, जो हितकारी बात कहे। इस निमित्त जीवों का जो प्रिय वचन या प्राप्त होनेवाला हित है, वह सत्यता ही जानो। इन्द्रियों से जो-जो वस्तु ली जाती है, उनका नाम व्यक्त है। जो इन्द्रियों के घेरे से बाहर है और कारण-रूप देह से पकड़ने योग्य है, वह अव्यक्त कही जाती है।
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अध्याय-[155]
बुद्धि के द्वारा चित्त के दुःख को और औषधिसे देह के दुःख को निवृत्त करे। युवावस्था, रूप, जीवन, धन का ढेर, नीरोगता, मित्रें के साथ निवास इत्यादि सब वस्तुएँ सदैव नहीं रहती हैं; इस हेतु से इन वस्तुओं में बुद्धिमान पण्डित लोभ न करें।
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अध्याय (159)
(नारायण-नारद संवाद, नारायण-वाक्य) द्वैतता-रहित, गुप्त और चेष्टा के बिना अचल, सनातन, इन्द्रियों के विषय और तत्त्व से भी पृथक् है, वही जीवों की अन्तरात्मा और क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। वही अविनाशिनी शक्ति-रूप प्रकृति है, वही अव्यक्त वा व्यक्त भाव में नियत होती है। उसी को हम दोनों, जीव-ईश्वर (नर-नारायण) का उत्पत्ति-स्थान जानो और जो यह कार्य-कारण का आत्मा है, उसी को हम दोनों पूजते हैं, उससे बड़ा कोई पिता, देवता और ब्राह्मण नहीं है। वह हमारी आत्मा जानने के योग्य है, इसी हेतु हम उसको पूजते हैं। मुक्त लोगों की लय-रूपा गति क्षेत्रज्ञ है। वही चिदात्मा माया से सगुण रूप और वास्तव में निर्गुण कहा जाता है। वह योग और ज्ञान से दृष्टि में आता है। हम दोनों उसी से प्रकट हुए, ऐसे जानकर उस सनातन आत्मा को पूजते हैं।
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अध्याय (160)
सदैव उस आदिदेव ज्योति-स्वरूप की शरण में (मैं नारद) रहता हूँ।
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अध्याय (161)
राजा उपरिचर वसु को बृहस्पतिजी ने हिंसा-रहित (अर्थात् जिसमें पशुओं का नाश नहीं हुआ) अश्वमेध यज्ञ कराया था।
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अध्याय (162)
देवताओं ने उत्तम ब्राह्मण से यह कहा कि अज अर्थात् बकरे से यज्ञों में हवन करना चाहिए। उस बकरे को भी अज जानना योग्य है, दूसरा पशु न समझना, यह मर्यादा है। ऋषियों ने उत्तर दिया कि यज्ञों में बीजों के द्वारा हवन करना चाहिए। यह वेद की श्रुति है; क्योंकि सब बीजों का अज नाम है; इस कारण तुम बकरे के मारने योग्य नहीं हो। हे देवता लोगो ! यह धर्म सत्यपुरुषों का नहीं है, जिसमें पशु मारा जाय। यही यज्ञ श्रेष्ठ है, पशुओं को क्यों मारें ?
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अध्याय [240] गी0 प्रे0 गो0-

कुर्यात् परिचयं योगे त्रैकाल्ये नियतो मुनिः।
गिरि शृंगे तथा चैत्ये वृक्षाग्रेषु च योजयेत्।। 25।।

नित्य नियम से रहकर योगी-मुनि किसी पर्वत के शिखर पर, किसी देववृक्ष के समीप या एकान्त मंदिर में अथवा वृक्षों के सम्मुख बैठकर तीन समय (सबेरे तथा रात्रि के पहले और पिछले पहर में) योग का अभ्यास करे।।25।।

संनियम्येन्द्रिय ग्रामं कोष्ठे भाण्डमना इव।
एकाग्रं चिन्तयेन्नित्यं योगान्नोद्वेजयेन्मनः।। 26।।

द्रव्य चाहनेवाला मनुष्य जैसे सदा द्रव्य-समुदाय को कोठे में बाँध करके रखता है, उसी तरह योग का साधक भी इन्द्रिय-समुदाय को संयम में रखकर हृदय-कमल में स्थित नित्य आत्मा का एकाग्र भाव से चिन्तन करे। मन को उद्विग्न न होने दे ।।26।।

येनोपायेन शक्येत संनियन्तुं चलं मनः।
तं च युक्तो निषेवेत न चैव विचलेत् ततः।। 27।।

जिस उपाय से चंचल मन को रोका जा सके, योग का साधक उसका सेवन करे और उस साधन से वह कभी विचलित न हो ।।27।।

अपि वर्णावकृष्टस्तु नारी वा धर्मकांक्षिणी।
तावप्ये तेन मार्गेण गच्छेता परमां गतिम्।। 34।।

कोई नीच वर्ण का पुरुष और स्त्री ही क्यों न हो, यदि उसके मन में धर्म-सम्पादन की अभिलाषा है, तो इस योगमार्ग का सेवन करने से उन्हें भी परमगति की प्राप्ति हो सकती है।।34।।

अध्याय (318)
प्राप्य ज्ञानं ब्राह्मणात् क्षत्रियाद् वा वैश्याच्छूद्रादपि नीचादभीक्ष्णम्।
श्रद्धातव्यं श्रद्दधानेन नित्यं न श्रद्धिनं जन्ममृत्यूविशेताम्।। 88।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच वर्ण में उत्पन्न हुए पुरुष से भी यदि ज्ञान मिलता हो, तो उसे प्राप्त करके श्रद्धालु मनुष्य को सदा उस पर श्रद्धा रखनी चाहिए। जिसके भीतर श्रद्धा है, उस मनुष्य में जन्म-मृत्यु का प्रवेश नहीं हो सकता।।88।।
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मूसल पर्व

मूल-ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः।
अन्विष्य दाहयामासपुरुषैराप्तकारिभिः।। 31।।

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अध्याय (7)
अर्जुन ने वासुदेव और बलदेवजी के शरीर को खोजकर सत्य और ठीक कर्म करनेवाले आप्त पुरुषों के द्वारा उनका दाह कराया।।31।।
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अध्याय (8)
श्रीकृष्णजी ने पृथ्वी का भार उतार, शरीर को त्यागकर अपना परम धाम पाया।
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अध्याय 8
अर्जुन उवाच-
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पंकजलोचनः।
स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।। 8।।

अर्थ- अर्जुन बोले- जिसकी देह- श्री बादल-सदृश और दोनों नेत्र विशाल कमल-दल के तुल्य थे, उस श्रीमान् कृष्ण ने राम के सहित शरीर छोड़कर सुरलोक में गमन किया है।।8।।
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स्वर्गारोहण पर्व

अध्याय (3) गीता प्रे0 गो0-

तेन त्वमेवं गमितो मया श्रेयोऽर्थिना नृप ।
व्याजेन हि त्वया द्रोण उपचीर्णः सुतं प्रति।। 15।।

व्याजेनैव ततो राजन् दर्शितो नरकस्तव।
तथैव त्वं तथा भीमस्तथा पार्थो यमौ तथा।। 16।।

द्रौपदी च तथा कृष्णा याजेन नरकं गताः।।
आगच्छ नर शार्दूल मुक्तास्ते चैवकल्मषात्।। 17।।

तुम (युधिष्ठिर) ने अश्वत्थामा के विषय में द्रोणाचार्य से छल-संयुक्त बात की ।।15।।

हे राजन् ! तुम्हारे इतने छल करने से ही तुमको नरक दिखलाया गया। जैसे तुमने मिथ्या नरक देखा, वैसे ही भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव।।16।।

और कृष्णा- द्रौपदी भी नरक में आई। हे नरोत्तम ! आओ, वे भी पाप से छूटे।।17।।

हे तात ! सब राजाओं से नरक अवश्य देखने-योग्य है, इसी से तुमने दो मुहूर्त्त तक बड़ा दुःख पाया।।37।।

राजा ने पवित्र करनेवाली देवताओं की पवित्र नदी गंगाजी में गोता लगाकर मनुष्य-शरीर का त्याग किया।।41।।
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अध्याय (4)

वहाँ (स्वर्ग में युधिष्ठिर गए थे) उन गोविन्दजी को भी देखा जो कि ब्रह्माजी से उपासना आदि के योग्य शरीर धारण किए हुए थे और पूर्व देखे उस शरीर-से दिखाई देते थे।।2।।

वे अपने शरीर से प्रकाशमान, दिव्य अस्त्र और भयानक पुरुष- रूपधारी, चक्रादि दिव्य आयुधों से सेवित।।3।।

तथा बड़े तेजस्वी वीर अर्जुन से युक्त थे।

वसुभिः सहितं पश्य भीष्मं शान्तनवं नृपम्।। 21।। अ0 4।।

शान्तनु के पुत्र राजा भीष्म पितामह को वसुओं के साथ में देखो।।21।।

वसूनेव महातेजा भीष्मः प्राप महाद्युतिः।। 11।। अ0 5।।

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अध्याय (5)

महातेजस्वी बड़े पराक्रमी भीष्मजी वसुओं में लीन हो गए।।11।।

अनन्तो भगवान् देवः प्रविवेश रसातलम्।। 221/2।।

भगवान् अनन्त देवता बलदेवजी रसातल में प्रवेश कर गए ।।221/2।।

यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः।
तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणान्ते विवेश ह।। 24।। अ05।।

जो देवताओं के भी देवता सनातन नारायण हैं, उनके अंशरूप वासुदेवजी कर्म के अन्त होने पर उसी में प्रवेश कर गए।।24।।अ05।।

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अध्याय (16)
भगवान् की विभूतियों का वर्णन-भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उद्धवजी से कहा-व्रतों में मैं अहिंसा व्रत हूँ। आठ प्रकार के योगों में मैं मनोनिरोध-रूप समाधि हूँ।


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