दुर्गासप्तशती 

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अध्याय 4

शब्दात्मिका सुविमलग्र्ग्यजुषान्निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्त्ता च सर्वजगतां परमार्त्तिहन्त्री ।। 10।।

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अध्याय 4

शब्दात्मिका सुविमलग्र्ग्यजुषान्निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्त्ता च सर्वजगतां परमार्त्तिहन्त्री ।। 10।।

श्रीयुक्त पण्डित रामनारायण शर्मा, प्रोफेसर टी0 एन0 जे0 कॉलेज, भागलपुर कृत अर्थ- हे देवि ! आप शब्दात्मिका हैं। शब्द है आत्मा (अर्थात् स्वरूप) जिसकी, वह हुई शब्दात्मिका। आत्मन् के अनेक अर्थों में स्वरूप भी एक अर्थ है।
आप अत्यन्त निर्दोष ऋक् और यजुः के निधान हैं तथा उद्गीथों के द्वारा रमणीय पद और पाठवाले (अथवा पदों के पाठवाले) साम के भी निधान (निधि, खजाना) हैं। आप (साक्षात्) त्रयी देवी हैं।
संसार की सृष्टि वा धारण के निमित्त आप वार्त्ता (कृषि-वाणिज्य आदि जीविकारूप) हैं तथा सभी लोकों की कठिन बाधाओं, विपत्तियों और दुःखों को नाश करनेवाली हैं।
देवी के शब्दात्मिका होने से अभिप्राय-मीमांसकों और वैयाकरणों ने शब्द को नित्य माना। पतंजलि ने महाभाष्य में शब्द की परब्रह्म से समता दिखाई है।

‘चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्ता सो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आविवेश।।’

इस मन्त्र की व्याख्या में महाभाष्यकार पतंजलि मुनि ने कहा है कि शब्द-रूपी महान् देव मनुष्यों में आकर प्रविष्ट हुआ है अर्थात् परब्रह्म-स्वरूप और अन्तर्यामि-रूप शब्द मनुष्यों में पैठ गया है। जो पुरुष व्याकरण शास्त्र के ज्ञानपूर्वक शब्दों को संस्कार के साथ व्यवहार में लाता है, वह पापरहित हो जाता है और इस अन्तःप्रविष्ट शब्दब्रह्म के साथ पूर्ण रूप से मिल जाता है।

यही अन्तःप्रविष्ट नित्य शब्द सम्पूर्ण जगदादि प्रपंच को विस्तारित करता है। यह शब्द-रूप ब्रह्म आदि और अन्त-रहित है। यह अक्षर है अर्थात् विकार-शून्य है। यही जगत के रूप में भासित होता है। इसी शब्दब्रह्म से जगत की रचना होती है।

इस विषय को महावैयाकरण भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में कहा है; यथा-

‘अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम्।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।।’

अर्थात् अवयव-रहित (खण्ड-रहित) नित्य शब्द, जिसको वैयाकरण स्फोट कहते हैं, संसार का आदिकारण है और ब्रह्म ही है। वह ब्रह्मसत्ता सभी शब्दों का वाच्य है। वह स्फोट-रूप वाचक शब्द से भिन्न नहीं है। जो भेद दीख पड़ता है, वह ‘आवरण’ से या ‘कल्पना’ से ही। जो पुरुष शब्दब्रह्म को ठीक-ठीक अवगत कर लेता है, वह परब्रह्म को पाता है अर्थात् उसमें अवस्थित होता है।
हे देवि ! आप उपर्युक्त शब्दब्रह्म-स्वरूपा हैं।

‘शब्दात्मिका’-इस श्लोक में जो उद्गीथ शब्द आया है, इसका साधारण अर्थ ‘ओंकार’ किया जा सकता है।

टिप्पणी-श्री श्री देवीजी का सर्वोत्कृष्ट-स्वरूप जिसकी उपासना की जा सके, ‘शब्द’ को ही मानना पड़ता है। शब्दब्रह्म के उपासक को परम शाक्त कहा जाय, तो कुछ भी अनुचित नहीं। -महर्षि मेँहीँ

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