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अध्याय 1
श्रीभगवानुवाच (भगवान श्रीकृष्ण ने कहा)-
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पुटद्वय निर्म्मुक्तो वायुर्यत्र विलीयते।
तत्र संस्थं मनः कृत्वा तं ध्यायेत् पार्थ ईश्वरम्।। 11।।
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अमात्रं शब्दरहितं स्वरव्यंजनवर्जितम्।
विन्दुनादकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित्।। 15।।
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ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् ग्रन्थमशेषतः।। 19।।
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अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम्।। 40।।
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ॐकारध्वनिनादेन वायोः संहरणान्तिकम्।
निरालम्बं समुद्दिश्य यत्र नादो लयं गतः।। 41।।
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अघोषमव्यंजनमस्वरंच अतालुकण्ठोष्ठमनासिकञ्च।
अरेफजातं परमुष्मवर्ज्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित्।। 50।।
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नवछिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् ब्रह्म न विन्दति।। 54।।
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अध्याय 2
मुहूर्त्तमपि यो ग च्छेन्नासाग्रे मनसा सह।
सर्व्वं तरित पापानां तस्य जन्मशताजिर््जतम्।। 10।।
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तपेद्वर्षसहस्त्राणि एकपादस्थितो नरः।
एकस्य ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।37।।
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ब्रह्महत्यासहस्त्राणि भ्रूणहत्याशतानि च।
एतानि ध्यानयोगश्च दहत्यग्निरिवेन्धनम्।। 38।।
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आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।। 44।।
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अध्याय 3
तीर्थानि तोयरूपाणि देवान् पाषाणमृण्मयान्।
योगिनो न प्रपद्यन्ते आत्मध्यानपरायणः।। 6।।
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अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्प बुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिनाम्।। 7।।
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निमिषं निमिषार्द्धं वा प्राणिनोऽध्यात्मचिन्तकाः।
क्रतुकोटि सहस्त्राणां ध्यानमेको विशिष्यते।। 16।।
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अध्याय 1
श्रीभगवानुवाच (भगवान श्रीकृष्ण ने कहा)-
मूल-पुटद्वय निर्म्मुक्तो वायुर्यत्र विलीयते।
तत्र संस्थं मनः कृत्वा तं ध्यायेत् पार्थ ईश्वरम्।। 11।।
अर्थ-हे पार्थ (अर्जुन) ! निःश्वास वायु दोनों नासापुटों से बाहर होकर जहाँ लय प्राप्त हो, वहाँ मन को स्थापित कर ईश्वर का ध्यान करो ।।11।।
मूल- अमात्रं शब्दरहितं स्वरव्यंजनवर्जितम्।
विन्दुनादकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित्।। 15।।
अर्थ-जो परमात्मा को ह्रस्व, दीर्घ, प्लुतादिरहित, स्वरव्यंजनात्मक वर्णों से अतीत एवं विन्दु , नाद तथा कला के परे कहकर जानते हैं, वे ही वेद का तात्पर्य जानते हैं।।15।।
मूल-ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् ग्रन्थमशेषतः।। 19।।
अर्थ-धान्यार्थी व्यक्ति जैसे पोआल मर्दन कर धन्य ग्रहण कर लेते हैं और घास को फेंक देते हैं, इसी तरह ज्ञानी व्यक्ति विविध शास्त्रें को पर्य्यालोचना करके आत्मज्ञानी होने पर उन शास्त्रें को त्याग देते हैं।।19।।
मूल-अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम्।। 40।।
अर्थ-अनाहत शब्द के नाद में ज्योति विराजती है, जिस ज्योति में मन अधिष्ठित रहता है, ब्रह्म में वही मन विलीन होता है; उसी लय-स्थान को विष्णु का परम पद कहकर वर्णित किया गया है अर्थात् अनाहत शब्द के नाद में जो परम ज्योति है, उस ज्योति का ध्यान करते-करते मन ब्रह्म के साथ लय होता है, सुतरां विष्णु का परम पद प्राप्त हो जाता है।।40।।
मूल-ॐकारध्वनिनादेन वायोः संहरणान्तिकम्।
निरालम्बं समुद्दिश्य यत्र नादो लयं गतः।। 41।।
अर्थ-ॐकार ध्वन्यात्मक नाद के साथ प्राणवायु का रेचक-पूरकादि क्रम से निर्विशेष ब्रह्म को उद्देश्य करके जहाँ ॐकार ध्वनिमय नाद का लय होता है, वही विष्णु का परम पद है।।41।।
मूल-अघोषमव्यंजनमस्वरंच अतालुकण्ठोष्ठमनासिकञ्च।
अरेफजातं परमुष्मवर्ज्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित्।। 50।।
अर्थ-जो नाद-रहित, व्यंजन-रहित, स्वर-रहित, तालु-कण्ठ प्रभृति उच्चारण-स्थान-रहित, रेखा-रहित और ऊष्म वर्ण-रहित है, उसी को ब्रह्म कहकर जानो।।50।।
मूल-नवछिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् ब्रह्म न विन्दति।। 54।।
अर्थ-नवछिद्र विशिष्ट शरीर से ज्ञान-विज्ञानादि निरन्तर निःसृत होते रहते हैं। मानवगण इन्द्रिय-संयम करके देहाभिमान और रागादि-परित्यागपूर्वक साक्षात् ब्रह्मवत् परिशुद्ध न होकर किसी प्रकार ब्रह्म को लाभ नहीं कर सकते।। 54।।
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अध्याय 2
मूल-मुहूर्त्तमपि यो ग च्छेन्नासाग्रे मनसा सह।
सर्व्वं तरित पापानां तस्य जन्मशताजिर््जतम्।। 10।।
अर्थ-जो मुहूर्त भर भी (अर्थात् कुछ काल भी) मन-सहित नासाग्र में जाता है (अर्थात् नासाग्र में मन को रोककर ठहरता है), वह सैकड़ों जन्मों का किया हुआ जो पाप है, उससे पार उतर जाता है।।10।।
मूल- तपेद्वर्षसहस्त्राणि एकपादस्थितो नरः।
एकस्य ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।37।।
अर्थ-एक पैर पर खड़ा होकर (एक) सहस्त्र वर्ष तप करने पर भी ध्यानयोग के फल के सोलह अंशों के एक अंश-बराबर फल लाभ नहीं होता।।37।।
मूल-ब्रह्महत्यासहस्त्राणि भ्रूणहत्याशतानि च।
एतानि ध्यानयोगश्च दहत्यग्निरिवेन्धनम्।। 38।।
अर्थ-जिस तरह अग्नि ईन्धन (जलावन- लकड़ी) को जलाती है, उसी तरह ध्यान-योग सहस्त्र ब्रह्महत्या और सैकड़ों भ्रूणहत्याओं के पापों को क्षय करता है।।38।।
मूल-आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।। 44।।
अर्थ-आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; ये सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान ही हैं यानी कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान-लाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है; सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानहीन मनुष्य पशु-तुल्य है।।44।।
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अध्याय 3
मूल-तीर्थानि तोयरूपाणि देवान् पाषाणमृण्मयान्।
योगिनो न प्रपद्यन्ते आत्मध्यानपरायणः।। 6।।
अर्थ-तीर्थ तोयरूप (जल-रूप) और देव पाषाणमय (कहीं प्रस्तर का) और मृण्मय (कहीं मिट्टी का) है; अतः आत्मध्यान-परायण योगिगण ऐसे तीर्थ तथा देवों का आदर नहीं करते हैं।।6।।
मूल-अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्प बुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिनाम्।। 7।।
अर्थ-द्विजातियों का (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का) देवता अग्नि है। मुनियों का देव हृदय में है। अल्प बुद्धिवालों का देवता प्रतिमा है और समदर्शियों का देव सर्वत्र है।। 7।।
मूल-निमिषं निमिषार्द्धं वा प्राणिनोऽध्यात्मचिन्तकाः।
क्रतुकोटि सहस्त्राणां ध्यानमेको विशिष्यते।। 16।।
अर्थ-आत्मध्यान-परायण महात्मागण एक वा आधा निमेष काल भी जो आत्मध्यान करते हैं, वह कोटि यज्ञफल की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है।।16।।
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