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देहस्थाः सर्व्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व्वदेवताः।
देहस्थाः सर्व्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते।। 8।।
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इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती।। 11।।
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त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते।। 12।।
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आकाशाज्जायते वायुर्वायोरुत्पद्यते रविः।
रवेरुत्पद्यते तोयं तोयादुत्पद्यते मही ।। 25।।
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मही विलीयते तोये तोयं विलीयते रवौ।
रविर्विलीयते वायौ वायुर्विलीयते तु खे ।। 26।।
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ब्रह्माण्डलक्षणं सर्व्व देहमध्ये व्यवस्थितम्।
साकारश्च विनश्यन्ति निराकारो न नश्यति।। 29।।
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निराकारं मनो यस्य निराकारसमो भवेत्।
तस्मात् सर्व्वप्रयत्नेन साकाराशु परित्यजेत्।। 30।।
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न वेदं वेदमित्याहुर्वेदो ब्रह्म सनातनम्।
ब्रह्मविद्यारतो यस्तु स विप्रो वेदपारगः।। 50।।
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उच्छिष्टं सर्व्वशास्त्रणि सर्व्वविद्या मुखे मुखे।
नोच्छिष्टं ब्रह्मणो ज्ञानमव्यक्तं चेतनामयम्।। 52।।
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न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्य्यं तपोत्तमम्।
ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः।। 53।।
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न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः।। 54।।
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न होमं होममित्याहुः समाधौ तत्तु भूयते।
ब्रह्माग्नौ हूयते प्राणं होमकर्म्म तदुच्यते।। 55।।
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यावद्वर्णं कुलं सर्व्वं तावज्ज्ञानं न जायते।
ब्रह्मज्ञानं पदं ज्ञात्वा सर्व्व वर्णविवर्जितः।। 57।।
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मनो वाक्यं तथा कर्म्म तृतीयं यत्र लीयते।
विना स्वप्नं यथा निद्रा ब्रह्मज्ञानं तदुच्यते।। 59।।
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श्लोकार्द्धन्तु प्रवक्ष्यामि यदुक्तं तत्त्वदर्शिभिः।
सर्व्व चिन्ता परित्यागो निश्चिन्तो योग उच्यते।। 61।।
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निमिषं निमिषार्द्धं वा समाधिमधिगच्छति।
शतजन्मार्जितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।। 62।।
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चलचित्ते वसेच्छक्तिः स्थिरचित्ते वसेच्छिवः।
स्थिरचित्तौ भवेद्देवि स देहस्थोऽपि सिद्ध्यति।। 64।।
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हृदि प्राणः स्थितो वायुरपानो गुदसंस्थितः।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमाश्रितः।। 70।।
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व्यानः सर्व्वगतो देहे सर्व्वगात्रेषु संस्थितः।
नाग उर्द्धगतो वायुः कूर्म्मस्तीर्थानि संस्थितः।। 71।।
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कृकरः क्षोभिते चैव देवदत्तोऽपि जृम्भणे।
धनंजयो नादघोषे निविशेचैव साम्यति।। 72।।
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अकारः सात्त्विको ज्ञेय उकारो राजसः स्मृतः।
मकारस्तामसः प्रोत्तफ़तस्त्रिभिः प्रकृतिरुच्यते।। 98।।
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अक्षरा प्रकृतिः प्रोक्ता अक्षरः स्वयमीश्वरः।
ईश्वरान्निर्गता सा हि प्रकृतिर्गुणबन्धना।। 99।।
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सा माया पालिनी शक्तिः सृष्टिसंहारकारिणी।
अविद्या मोहिनी या सा शब्दरूपा यशस्विनी।। 100।।
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मूल-देहस्थाः सर्व्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व्वदेवताः।
देहस्थाः सर्व्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते।। 8।।
अर्थ-इस देह में सब विद्या, सब देवता और सब तीर्थ विराजमान हैं। केवल गुरु के उपदेश से ही देहस्थित ये सब विद्या, देवता और तीर्थ जाने जाते हैं।।8।।
मूल-इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती।। 11।।
अर्थ-देह में इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना नाम की तीन प्रधान नाड़ियाँ हैं। इड़ा गंगा, पिंगला यमुना और इड़ा-पिंगला के बीच में रहनेवाली सुषुम्ना सरस्वती नदी के नाम से कही जाती है।।11।।
मूल-त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते।। 12।।
अर्थ-देह में जहाँ उल्लिखित तीनों नाड़ियों का संगम है, उस स्थान को गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम-त्रिवेणी कहते हैं। यह त्रिवेणी सर्वप्रधान तीर्थ कहकर गिनी जाती है। इस तीर्थ में स्नान करने से सब पापों से मुक्ति मिलती है।।12।।
मूल-आकाशाज्जायते वायुर्वायोरुत्पद्यते रविः।
रवेरुत्पद्यते तोयं तोयादुत्पद्यते मही ।। 25।।
अर्थ- हवा आकाश से, अग्नि हवा से, जल अग्नि से और पृथ्वी जल से उत्पन्न होती है ।।25।।
मूल-मही विलीयते तोये तोयं विलीयते रवौ।
रविर्विलीयते वायौ वायुर्विलीयते तु खे ।। 26।।
अर्थ-जल में पृथ्वी, अग्नि में जल, हवा में अग्नि और आकाश में हवा लय होती है।।26।।
मूल-ब्रह्माण्डलक्षणं सर्व्व देहमध्ये व्यवस्थितम्।
साकारश्च विनश्यन्ति निराकारो न नश्यति।। 29।।
अर्थ-देह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हैं, तिसमें साकार का नाश होता है, निराकार का नाश नहीं होता।।29।।
मूल-निराकारं मनो यस्य निराकारसमो भवेत्।
तस्मात् सर्व्वप्रयत्नेन साकाराशु परित्यजेत्।। 30।।
अर्थ-जिस व्यक्ति का मन निराकार है, वह निराकार-सदृश होता है। इसलिए यत्नवान होकर साकार त्याग देना चाहिए।।30।।
मूल-न वेदं वेदमित्याहुर्वेदो ब्रह्म सनातनम्।
ब्रह्मविद्यारतो यस्तु स विप्रो वेदपारगः।। 50।।
अर्थ-वेद को वेद नहीं कहते हैं, नित्य (सत्य) ब्रह्म को ही वेद कहते हैं। ब्रह्मज्ञान में निरत व्यक्ति को ब्राह्मण और वेदपारदर्शी कहते हैं।।50।।
मूल- उच्छिष्टं सर्व्वशास्त्रणि सर्व्वविद्या मुखे मुखे।
नोच्छिष्टं ब्रह्मणो ज्ञानमव्यक्तं चेतनामयम्।। 52।।
अर्थ-सब शास्त्र जूठे हो गए हैं और सब विद्या मुँह-मुँह में रहती है, किन्तु जो अव्यक्त और चैतन्यमय है, उस ब्रह्म का ज्ञान किसी काल में जूठा नहीं होता है।। 52।।
मूल-न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्य्यं तपोत्तमम्।
ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः।। 53।।
अर्थ-तप को तप नहीं कहते हैं, ब्रह्मचर्य्यानुष्ठान ही तपस्या कहकर विशेष प्रसिद्ध किया गया है। जो मनुष्य ऊर्ध्वरेता हैं, वे देवतुल्य कहे गए हैं।। 53।।
मूल-न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः।। 54।।
अर्थ-ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान की प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष-लाभ होते हैं, इसमें सन्देह नहीं।। 54।।
मूल-न होमं होममित्याहुः समाधौ तत्तु भूयते।
ब्रह्माग्नौ हूयते प्राणं होमकर्म्म तदुच्यते।। 55।।
अर्थ-होम को होम नहीं कहते हैं; ब्रह्माग्नि में प्राण-रूप घृत की आहुति देने को ही असली होम कहते हैं।। 55।।
मूल- यावद्वर्णं कुलं सर्व्वं तावज्ज्ञानं न जायते।
ब्रह्मज्ञानं पदं ज्ञात्वा सर्व्व वर्णविवर्जितः।। 57।।
अर्थ-जबतक ज्ञानोदय नहीं होता है, तबतक विप्रादि वर्णभेद और कुल-भेद रहते हैं, किन्तु ब्रह्मज्ञान के उदय होने से वे सब दूर हो जाते हैं।। 57।।
मूल-मनो वाक्यं तथा कर्म्म तृतीयं यत्र लीयते।
विना स्वप्नं यथा निद्रा ब्रह्मज्ञानं तदुच्यते।। 59।।
अर्थ-जिस ज्ञान में मन, वाक्य और कर्म तीनों लय हो जाते हैं और स्वप्न बिना निद्रा की तरह बिना अवलम्ब के जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी को ब्रह्मज्ञान कहते हैं।। 59।।
मूल-श्लोकार्द्धन्तु प्रवक्ष्यामि यदुक्तं तत्त्वदर्शिभिः।
सर्व्व चिन्ता परित्यागो निश्चिन्तो योग उच्यते।। 61।।
अर्थ-तत्त्वदर्शी महात्मागण ने जिस विषय का वर्णन किया है, मैं आधे श्लोक में उसी का वर्णन करूँगा- सर्व्व चिन्ताओं को त्यागकर निश्चिन्त होने को ही योग कहते हैं ।।61।।
मूल-निमिषं निमिषार्द्धं वा समाधिमधिगच्छति।
शतजन्मार्जितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।। 62।।
अर्थ-जिस व्यक्ति को एक पल या आधा पल भी समाधि प्राप्त होती है, उसके सौ जन्मों के कमाए हुए पाप विनष्ट हो जाते हैं।।62।।
मूल-चलचित्ते वसेच्छक्तिः स्थिरचित्ते वसेच्छिवः।
स्थिरचित्तौ भवेद्देवि स देहस्थोऽपि सिद्ध्यति।। 64।।
अर्थ-हे शंकरी ! चंचल हृदय में शक्ति और स्थिर हृदय में शिव विराजते हैं। जिसका हृदय स्थिर है, वही शरीर-सहित होने पर भी सिद्धिलाभ करता है।। 64।।
मूल-हृदि प्राणः स्थितो वायुरपानो गुदसंस्थितः।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमाश्रितः।। 70।।
व्यानः सर्व्वगतो देहे सर्व्वगात्रेषु संस्थितः।
नाग उर्द्धगतो वायुः कूर्म्मस्तीर्थानि संस्थितः।। 71।।
कृकरः क्षोभिते चैव देवदत्तोऽपि जृम्भणे।
धनंजयो नादघोषे निविशेचैव साम्यति।। 72।।
अर्थ-प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि में, उदान कण्ठ में और व्यान नाम का वायु सब शरीर में है। नाग नामक वायु उर्द्धगत है, कूर्म्म नामक वायु तीर्थाश्रित है, कृकर नामक वायु क्षोभनस्थ है और देवदत्त वायु जृम्भणस्थ तथा धनञ्जय नामक वायु नादघोष में प्रवेश करके साम्य होके रहता है।। 70-72।।
मूल-अकारः सात्त्विको ज्ञेय उकारो राजसः स्मृतः।
मकारस्तामसः प्रोत्तफ़तस्त्रिभिः प्रकृतिरुच्यते।। 98।।
अर्थ-अकार सतोगुणमय, उकार रजोगुणमय और मकार तमोगुणात्मक हैं; इन्हीं तीनों गुणों के द्वारा प्रकृति वर्णित हुई है।।98।।
मूल-अक्षरा प्रकृतिः प्रोक्ता अक्षरः स्वयमीश्वरः।
ईश्वरान्निर्गता सा हि प्रकृतिर्गुणबन्धना।। 99।।
अर्थ-अक्षर ही (अक्षर ब्रह्म ही) स्वयं प्रकृति है और अक्षर को ही स्वयं ईश्वर जानोगे। ईश्वर से प्रकृति निकली हुई है और वही प्रकृति सर्व्वादि त्रयगुण-मिश्रित है।।99।।
मूल-सा माया पालिनी शक्तिः सृष्टिसंहारकारिणी।
अविद्या मोहिनी या सा शब्दरूपा यशस्विनी।। 100।।
अर्थ-वही माया सृष्टि, स्थिति और संहारात्मिका शक्ति है और अविद्या, मोहिनी, शब्दरूपा तथा यशस्विनी कही जाकर वर्णित होती है।।100।।
तन्त्र में पाँच अवस्थाएँ मानते हैं-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत। (कल्याण, वेदान्तांक, पृ0 277 से उद्धृत)
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