शिव-संहिता 

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नासनं सिद्ध सदृशं न कुम्भक सदृशं बलम्।
न खेचरी समा मुद्रा न नाद सदृशो लयः।।
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यः करोति सदा ध्यानमाज्ञापद्मस्य गोपितम्।
पूर्व जन्म कृतं कर्म विनश्येदविरोधतः।।
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इह स्थितः सदा योगी ध्यानं कुर्य्यान्निरंतरम्।
तदा करोति प्रतिमां प्रति जापमनर्थवत्।।
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यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वै।
तानि सर्वाणि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि।।
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शिरः कपाले रुद्राक्षं विवरं चिन्तयेद् यदा।
तदा ज्योतिः प्रकाशः स्याद् विद्युत् पुंजसमप्रभः।।
एतत् चिन्तन मात्रेण पापानां संक्षयो भवेत्।
दुराचारोऽपि पुरुषो लभते परमं पदम्।।
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मूल-नासनं सिद्ध सदृशं न कुम्भक सदृशं बलम्।
न खेचरी समा मुद्रा न नाद सदृशो लयः।।

अर्थ-न सिद्धासन सम आसन, न कुम्भक सम बल, न खेचरी के समान मुद्रा और न नाद के तुल्य लय है।
मूल-यः करोति सदा ध्यानमाज्ञापद्मस्य गोपितम्।
पूर्व जन्म कृतं कर्म विनश्येदविरोधतः।।

अर्थ-जो पुरुष सर्वदा गोपित करके इस आज्ञा-कमल (चक्र) का ध्यान करता है, उसका पूर्वजन्मकृत कर्मफल निर्विघ्न नाश हो जाता है।
मूल- इह स्थितः सदा योगी ध्यानं कुर्य्यान्निरंतरम्।
तदा करोति प्रतिमां प्रति जापमनर्थवत्।।

अर्थ-जब योगी यह ध्यान (आज्ञाचक्र में ध्यान) सर्वदा निरन्तर करे, तो उसका प्रतिमापूजन करना व जप करना सर्वथा अनर्थवत् है।
मूल-यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वै।
तानि सर्वाणि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि।।

अर्थ-पंच पद्मों का जो-जो फल पहले कहा, सो समस्त फल आप ही इस आज्ञा-कमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।
मूल-शिरः कपाले रुद्राक्षं विवरं चिन्तयेद् यदा।
तदा ज्योतिः प्रकाशः स्याद् विद्युत् पुंजसमप्रभः।।
एतत् चिन्तन मात्रेण पापानां संक्षयो भवेत्।
दुराचारोऽपि पुरुषो लभते परमं पदम्।।

अर्थ-कपाल में शिवनेत्र के छिद्र पर जब ध्यान किया जाता है, तो विद्युत्पुंज (बिजलियों के समूह) के समान चमकता हुआ ज्योति-प्रकाश होता है। इसके चिन्तन मात्र (ध्यान) से पापों का नाश होता है और दुराचारी पुरुष भी परम पद को प्राप्त करता है।

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