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प्रथम सर्ग
अथ राम-हृदय-गीता-शिव-पार्वती-संवाद
पुरा रामायणे रामे रावणं देवकण्टकम् ।
हत्वा रणे रणश्लाघी सपुत्रबलवाहनम् ।। २६।।
श्रीशिवजी ने कहा-पहले रामावतार में देवताओं के शत्रु रणवीर रावण को उसके पुत्र और सेना-सहित रण में मारकर (26)
सीतया सह सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां समन्वितः ।
अयोध्यामगमद्रामो हनूमत्प्रमुखैर्वृतः ।। २७।।
सीता, सुग्रीव, लक्ष्मण और हनुमान आदि सहित रामजी अयोध्या को लौट आए (27)
अभिषिक्तः परिवृतो वसिष्ठाद्यैर्महात्मभिः ।
सिंहासने समासीनः कोटिसूर्यसमप्रभः ।। २८।।
और वहाँ करोड़ों सूर्य के समान कान्तिमान रामचन्द्रजी सिंहासन पर विराजमान हुए और वशिष्ठ आदि महात्माओं ने जुड़कर उनका राज्याभिषेक किया (28),
दृष्ट्वा तदा हनूमन्तं प्राञ्जलिं पुरतः स्थितम् ।
कृतकार्यं निराकाङ्क्षं ज्ञानापेक्षं महामतिम् ।। २९।।
उस समय मुख्य-मुख्य कार्य करनेवाले, इच्छा-रहित, ज्ञान की जिनको चाहना है, ऐसे बड़े बुद्धिमान हनुमानजी को हाथ जोड़े सामने खड़ा देखकर (29),
रामः सीतामुवाचेदं ब्रूहि तत्त्वं हनूमते ।
निष्कल्मषोऽयं ज्ञानस्यपात्रंनो नित्यभक्तिमान् ।। ३०।।
रामजी सीताजी से बोले कि हे जानकी ! तुम हनुमान को तत्त्वज्ञान का उपदेश करो; क्योंकि यह पाप-रहित, ज्ञान के पात्र और हमारी-तुम्हारी भक्ति में सदा तत्पर है (30),
तथेति जानकी प्राह तत्त्वं रामस्य निश्चितम् ।
हनूमते प्रपन्नाय सीता लोकविमोहिनी ।। ३१।।
श्रीजानकीजी ने कहा-‘बहुत अच्छा’। और संसार को विशेषकर मोहनेवाली सीताजी ने भक्त हनुमान से रामजी के निश्चित स्वरूप का वर्णन करना आरम्भ किया (31),
सीतोवाच-
रामं विद्धि परं ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम् ।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं सत्तामात्रमगोचरम् ।। ३२।।
सीताजी बोलीं- (हे हनुमान !) तुम रामजी को परब्रह्म, सच्चिदानन्द, द्वैत-रहित, संपूर्ण (स्थूल-सूक्ष्म) उपाधियों से रहित, सत्तामात्र कहिए, वस्तु मात्र के व्यवहार के चलानेवाले और मन-वाणी के विषय से परे (32),
आनन्दं निर्मलं शान्तं निर्विकारं निरञ्जनम् ।
सर्वव्यापिनमात्मानं स्वप्रकाशमकल्मषम् ।। ३३।।
आनन्दस्वरूप, निर्मल, शांत, निर्विकार, निरंजन अर्थात् मायाकृत अज्ञान-रहित, सर्वव्यापी, स्वयंप्रकाश, पाप-रहित, परमात्मा जानो (33),
मां विद्धि मूलप्रकृतिं सर्गस्थित्यन्तकारिणीम् ।
तस्य सन्निधिमात्रेण सृजामीदमतन्द्रिता ।। ३४।।
और (हे हनुमान !) मुझे उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली मूल प्रकृति जानो, उन रामजी के समीप मात्र होने से मैं आलस्य-रहित होकर इस संसार को रचती हूँ (34),
तत्सान्निध्यान्मया सृष्टं तस्मिन्नारोप्यतेऽबुधैः ।
अयोध्यानगरे जन्म रघुवंशेऽतिनिर्मले ।। ३५।।
और उस परमात्मा के समीप मात्र होने से मेरे रचे हुए जगत को अज्ञानी लोग उस परमात्मा में आरोपण करते हैं। उसी परमात्मा का जन्म अयोध्या नगरी में अत्यन्त निर्मल वंश में होना (35),
विश्वामित्रसहायत्वं मखसंरक्षणं ततः ।
अहल्याशापशमनं चापभङ्गो महेशितुः ।। ३६।।
विश्वामित्र की सहायता करना, उनके यज्ञ की रक्षा करना, अहल्या का शाप दूर करना, शिवजी का धनुष भंग करना (36),
मत्पाणिग्रहणं पश्चाभार्गवस्य मदक्षयः ।
अयोध्यानगरे वासो मया द्वादशवार्षिकः ।। ३७।।
फिर मेरे साथ विवाह करना, परशुरामजी का गर्व तोड़ना, फिर अयोध्या में मेरे साथ बारह वर्ष रहना (37),
दण्डकारण्यगमनं विराधवध एव च ।
मायामारीचमरणं मायासीताहृतिस्तथा ।। ३८।।
फिर दण्डकारण्य में जाना, विराध का मारना, मायारूपी मारीच का वध करना और माया की सीता का हरण होना (38),
जटायुषो मोक्षलाभः कबन्धस्य तथैव च ।
शबर्याः पूजनं पश्चात्सुग्रीवेण समागमः ।। ३९।।
जटायु का मोक्ष-लाभ होना, कबंध का शाप से छुटाना, शवरी का पूजन ग्रहण करना और फिर सुग्रीव से समागम होना (39),
वालिनश्च वधः पश्चात्सीतान्वेषणमेव च ।
सेतुबन्धश्च जलधौ लङ्कायाश्च निरोधनम् ।। ४०।।
फिर बालि का वध करना, सीता को ढुँढ़वाना, समुद्र पर पुल बँधवाना, फिर लंका पर चढ़ाई करना (40),
रावणस्य वधो युद्धे सुपुत्रस्य दुरात्मनः ।
विभीषणे राज्यदानं पुष्पकेण मया सह ।। ४१।।
फिर युद्ध में दुष्ट रावण को पुत्र-सहित मारना, विभीषण को राज्य देना, फिर पुष्पक विमान में बैठकर मेरे साथ (41)
अयोध्यागमनं पश्चाद्राज्ये रामाभिषेचनम् ।
एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि
आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि ।। ४२।।
अयोध्या को आना, फिर रामजी का राजगद्दी पर बैठना इत्यादि सब कर्म मेरे किए हैं (42)।
उनको अज्ञानी जन इन निर्विकार परमात्मा रामजी में आरोपण करते हैं (42)।
रामो न गच्छति न तिष्ठति नानुशोचत्याकाङ्क्षते
त्यजति नो न करोति किञ्चित् ।
आनन्दमूर्तिरचलः परिणामहीनो
मायागुणाननुगतो हि तथा विभाति ।।४३।।
वास्तव में रामजी न चलते हैं, न बैठते हैं, न शोक करते हैं, न कुछ चाहते हैं, न कुछ त्यागते हैं और न कुछ कहते हैं। वे तो आनन्द की मूर्ति, अचल और परिणाम-रहित अर्थात् एकरस हैं। केवल माया के गुणों के कारण कर्म में प्रवृत्त दीखते हैं (43)।
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प्रथम सर्ग
अथ राम-हृदय-गीता-शिव-पार्वती-संवाद
श्रीशिवजी ने कहा-पहले रामावतार में देवताओं के शत्रु रणवीर रावण को उसके पुत्र और सेना-सहित रण में मारकर (26)
सीता, सुग्रीव, लक्ष्मण और हनुमान आदि सहित रामजी अयोध्या को लौट आए (27)
और वहाँ करोड़ों सूर्य के समान कान्तिमान रामचन्द्रजी सिंहासन पर विराजमान हुए और वशिष्ठ आदि महात्माओं ने जुड़कर उनका राज्याभिषेक किया (28),
उस समय मुख्य-मुख्य कार्य करनेवाले, इच्छा-रहित, ज्ञान की जिनको चाहना है, ऐसे बड़े बुद्धिमान हनुमानजी को हाथ जोड़े सामने खड़ा देखकर (29),
रामजी सीताजी से बोले कि हे जानकी ! तुम हनुमान को तत्त्वज्ञान का उपदेश करो; क्योंकि यह पाप-रहित, ज्ञान के पात्र और हमारी-तुम्हारी भक्ति में सदा तत्पर है (30),
श्रीजानकीजी ने कहा-‘बहुत अच्छा’। और संसार को विशेषकर मोहनेवाली सीताजी ने भक्त हनुमान से रामजी के निश्चित स्वरूप का वर्णन करना आरम्भ किया (31),
सीताजी बोलीं- (हे हनुमान !) तुम रामजी को परब्रह्म, सच्चिदानन्द, द्वैत-रहित, संपूर्ण (स्थूल-सूक्ष्म) उपाधियों से रहित, सत्तामात्र कहिए, वस्तु मात्र के व्यवहार के चलानेवाले और मन-वाणी के विषय से परे (32),
आनन्दस्वरूप, निर्मल, शांत, निर्विकार, निरंजन अर्थात् मायाकृत अज्ञान-रहित, सर्वव्यापी, स्वयंप्रकाश, पाप-रहित, परमात्मा जानो (33),
और (हे हनुमान !) मुझे उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली मूल प्रकृति जानो, उन रामजी के समीप मात्र होने से मैं आलस्य-रहित होकर इस संसार को रचती हूँ (34),
और उस परमात्मा के समीप मात्र होने से मेरे रचे हुए जगत को अज्ञानी लोग उस परमात्मा में आरोपण करते हैं। उसी परमात्मा का जन्म अयोध्या नगरी में अत्यन्त निर्मल वंश में होना (35),
विश्वामित्र की सहायता करना, उनके यज्ञ की रक्षा करना, अहल्या का शाप दूर करना, शिवजी का धनुष भंग करना (36),
फिर मेरे साथ विवाह करना, परशुरामजी का गर्व तोड़ना, फिर अयोध्या में मेरे साथ बारह वर्ष रहना (37),
फिर दण्डकारण्य में जाना, विराध का मारना, मायारूपी मारीच का वध करना और माया की सीता का हरण होना (38),
जटायु का मोक्ष-लाभ होना, कबंध का शाप से छुटाना, शवरी का पूजन ग्रहण करना और फिर सुग्रीव से समागम होना (39),
फिर बालि का वध करना, सीता को ढुँढ़वाना, समुद्र पर पुल बँधवाना, फिर लंका पर चढ़ाई करना (40),
फिर युद्ध में दुष्ट रावण को पुत्र-सहित मारना, विभीषण को राज्य देना, फिर पुष्पक विमान में बैठकर मेरे साथ (41)
अयोध्या को आना, फिर रामजी का राजगद्दी पर बैठना इत्यादि सब कर्म मेरे किए हैं (42)।
उनको अज्ञानी जन इन निर्विकार परमात्मा रामजी में आरोपण करते हैं (43)।
वास्तव में रामजी न चलते हैं, न बैठते हैं, न शोक करते हैं, न कुछ चाहते हैं, न कुछ त्यागते हैं और न कुछ कहते हैं। वे तो आनन्द की मूर्ति, अचल और परिणाम-रहित अर्थात् एकरस हैं। केवल माया के गुणों के कारण कर्म में प्रवृत्त दीखते हैं (44)।
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