श्रीमद्भागवत

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स्कन्ध 10 पूर्वार्द्ध

भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः ।। 16।। अ0 2।।

स बिभ्रत् पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः।
दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह।। 17।। अ0 2।।

ततो जगन्मंगलमच्युतांशं समाहितं शूरसुतेन देवी।
दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः।।18।।अ02।।

सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभूता नितरां न रेजे।
भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती।। 19।। अ02।।

निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः।। 8।। अ0 3।।

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स्कन्ध 10 उत्तरार्द्ध

ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्।। 4।। अ0 70।।

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स्कन्ध 11, अध्याय 14

उद्धव उवाच-यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्।
ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि।। 31।।

श्रीभगवानुवाच-सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः।। 32।।

हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घण्टानादं बिसोर्णवत्।
प्राणेनोदीर्य तत्रथ पुनः संवेशयेत्स्वरम्।। 34।।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।। 42।।

तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।। 43।।

तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।। 44।।

एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम्।। 45।।

ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युंजतो योगिनो मनः।
संयास्यत्याषु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः।। 46।।

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरदुर्विगाह्यं समुद्रवत्।। 36।। अ0 21।।

मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते।।37।। अ021।।

यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात्।
आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा।। 38।। अ0 21।।

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स्कन्ध 10 पूर्वार्द्ध

भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः ।। 16।। अ0 2।।

स बिभ्रत् पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः।
दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह।। 17।। अ0 2।।

ततो जगन्मंगलमच्युतांशं समाहितं शूरसुतेन देवी।
दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः।।18।।अ02।।

सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभूता नितरां न रेजे।
भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती।। 19।। अ02।।


अर्थ-वे भगवान वसुदेवजी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गए। भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेवजी सूर्य के समान तेजस्वी हो गए। भगवान के उस ज्योतिर्मय अंग को जो जगत का परम मंगल करनेवाला है, वसुदेवजी के द्वारा आधान किए जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया। भगवान सारे जगत् के निवास-स्थान हैं, देवकी उनका भी निवास-स्थान बन गई।।19।।

निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः।। 8।। अ0 3।।


अर्थ-जनार्दन के अवतार का समय निशीथ था। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देव-रूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो।। 8।। अ0 3।।

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स्कन्ध 10 उत्तरार्द्ध

ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्।। 4।। अ0 70।।


अर्थ-भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्म मुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था।।4।।अ0 70।।

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स्कन्ध 11, अध्याय 14

उद्धव उवाच-यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्।
ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि।। 31।।


अर्थ-उद्धवजी बोले-हे कमलनयन ! अब आप मुझे यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष को आपका ध्यान किस प्रकार, किस रूप में और किस भाव से करना चाहिए ?।।31।।

श्रीभगवानुवाच-
सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः।। 32।।


अर्थ-श्री भगवान बोले-हे उद्धव ! सुख-पूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा रखकर बैठे; हाथों को तर-ऊपर गोद में रखे और दृष्टि को नासिका के अग्रभाग में स्थिर करे ।।32।।

हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घण्टानादं बिसोर्णवत्।
प्राणेनोदीर्य तत्रथ पुनः संवेशयेत्स्वरम्।। 34।।


अर्थ-हृदय में निहित मृणाल-तन्तु-सदृश ओंकार को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाकर प्राण-द्वारा उसका घंटानाद के समान स्थिर घोष सुने ।।34।।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।। 42।।


अर्थ-बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि-रूपी सारथी की सहायता से सर्वांग-युक्त मुझमें ही लगा दे ।।42।।

तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।। 43।।


अर्थ-सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे।।43।।

तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।। 44।।


अर्थ-मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे, तदन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे।।44।।

एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम्।। 45।।


अर्थ-इस प्रकार चित्त के वशीभूत हो जाने पर जिस प्रकार एक ज्योति में दूसरी ज्योति मिलकर एक हो जाती है, उसी प्रकार अपने में मुझको और मुझ सर्वात्मा में अपने आपको देखता है।।45।।

ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युंजतो योगिनो मनः।
संयास्यत्याषु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः।। 46।।


अर्थ-इस प्रकार तीव्र ध्यान-योग के द्वारा चित्त का संयम करनेवाले योगी के चित्त का द्रव्य-ज्ञान और कर्म-संबंधी भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है।।46।।

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरदुर्विगाह्यं समुद्रवत्।। 36।। अ0 21।।


अर्थ-शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है। वह प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय; तीन प्रकार का है तथा समुद्र के समान अनन्त पार, गम्भीर और कठिनता से पार किए जाने योग्य है।।36।।

मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते।।37।। अ021।।


अर्थ-मुझ अनन्तशक्ति और व्यापक ब्रह्म ने ही उसका विस्तार किया है। कमल-नाल-गत सूक्ष्म तन्तु के समान वह पहले-पहल प्राणियों के अन्तःकरण में नादरूप से प्रकट होता है।।37।।

यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात्।
आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा।। 38।। अ0 21।।


अर्थ-जिस प्रकार मकड़ी अपने हृदय से मुख के द्वारा निकालकर जाला फैला देती है, उसी प्रकार सूक्ष्म नाद-रूप उपादान कारण से युक्त प्राणोपाधिक भगवान हिरण्यगर्भ मन-रूप निमित्त कारण द्वारा हृदयाकाश से उसे वैखरी-वाणी में प्रकट करते हैं।।38।।

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