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द्वितीय अध्याय
अथ हैनमत्रिः पद्मच्छ याज्ञवल्क्यं।
य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा तं कथमहं विजानीयाम् इति।।
स होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽविमुक्त उपास्यो।
य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति।।
सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति।
वरणायां नाश्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति।।
का वै वरणा का च नाशीति।
सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति।।
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति।
कतमं चास्य स्थानं भवतीति। भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः
सन्धिः स एष द्योर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति।।
एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति ---।। 2।।
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द्वितीय अध्याय
मूल-अथ हैनमत्रिः पद्मच्छ याज्ञवल्क्यं।
य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा तं कथमहं विजानीयाम् इति।।
स होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽविमुक्त उपास्यो।
य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति।।
सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति।
वरणायां नाश्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति।।
का वै वरणा का च नाशीति।
सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति।।
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति।
कतमं चास्य स्थानं भवतीति। भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः
सन्धिः स एष द्योर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति।।
एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति ---।। 2।।
अर्थ-अत्रि ऋषि ने इसके बाद याज्ञवल्क्य से पूछा-‘जो ऐसा अनन्त, अव्यक्त आत्मा है, उसको हम कैसे जानें ?’
याज्ञवल्क्य ने कहा-‘‘वह अविमुक्त आत्मा ही उपासना-योग्य है। वह अनन्त, अव्यक्त आत्मा अविमुक्त में प्रतिष्ठित है। वह अविमुक्त कहाँ प्रतिष्ठित है ? वह वरणा और नाशी के बीच में प्रतिष्ठित है। वरणा और नाशी क्या है ? सब इन्द्रिय-कृत दोषों को दूर करता है, वही वरणा है और जो सब इन्द्रिय-कृत पापों को नाश करता है, वही नाशी कहलाता है। कहाँ वह स्थान है ? दोनों भौंओं का और नासिका का जो मिलन- स्थान है (वही वह स्थान है)। वह द्युर्लोक और परलोक का भी मिलन-स्थान है। इस संधि-स्थान में ब्रह्मज्ञानी अपनी सन्ध्या की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ पर ध्यान करके ब्रह्म-साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं।।2।।’’
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