===================================================खण्ड 1
ज्ञानशौचं परित्यज्य बाह्ये यो रमते नरः।
स मूढः कांचनं त्यक्त्वा लोष्टं गृह्णाति सुव्रत।। 22।।
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खण्ड 2
तपः संतोषमास्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम्।
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो व्रतम्।। 1।।
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खण्ड 4
चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुद्ध्यति।
शतशोऽपि जलैर्धौतं सुराभाण्डमिवाशुचि।। 54।।
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तीर्थे दाने जपे यज्ञे काष्ठे पाषाणके सदा।
शिवं पश्यति मूढात्मा शिवे देहे प्रतिष्ठिते।। 57।।
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खण्ड 5
मूल-पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले वनेऽथवा।
मनोरमे शुचौ देशे मठं कृत्वा समाहितः।। 4।।
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आरभ्य चासनं पश्चात्प्राघ्गमुखोदघमुखोऽपि वा।
समग्रीवशिरः कायः संवृतास्यः सुनिश्चलः।। 5।।
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नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम्।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्राभ्यां सुसमाहितः।। 6।।
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नादाभिव्यक्तिरित्येतच्चिह्नं तत्सिद्धिसूचकम्।। 111/2 ।।
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===================================================खण्ड 1
मूल-ज्ञानशौचं परित्यज्य बाह्ये यो रमते नरः।
स मूढः कांचनं त्यक्त्वा लोष्टं गृह्णाति सुव्रत।। 22।।
अर्थ-ज्ञान-शौच को छोड़कर जो बाहरी शौच में लगा रहता है, वह मूढ़ सोने को छोड़कर मिट्टी का ढेला लेता है।।22।।
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खण्ड 2
मूल-तपः संतोषमास्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम्।
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो व्रतम्।। 1।।
अर्थ-तप, संतोष, आस्तिक्य, दान, ईश्वर-पूजन, सिद्धान्त- श्रवण, लज्जा, विचार और जप; ये ही व्रत हैं ।।1।।
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खण्ड 4
मूल-चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुद्ध्यति।
शतशोऽपि जलैर्धौतं सुराभाण्डमिवाशुचि।। 54।।
अर्थ-भीतर में रहनेवाला दूषित चित्त तीर्थस्नान से शुद्ध नहीं होता, जिस प्रकार सैकड़ों बार जल से धोने पर भी मदिरा का पात्र शुद्ध नहीं हो सकता ।।54।।
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मूल-तीर्थे दाने जपे यज्ञे काष्ठे पाषाणके सदा।
शिवं पश्यति मूढात्मा शिवे देहे प्रतिष्ठिते।। 57।।
अर्थ-वह शिव तो शरीर में विद्यमान है, पर मूर्ख लोग तीर्थ में, दान में, जप में, यज्ञ में, काष्ठ में और पाषाण में शिव देखते हैं।।57।।
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खण्ड 5
मूल-पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले वनेऽथवा।
मनोरमे शुचौ देशे मठं कृत्वा समाहितः।। 4।।
आरभ्य चासनं पश्चात्प्राघ्गमुखोदघमुखोऽपि वा।
समग्रीवशिरः कायः संवृतास्यः सुनिश्चलः।। 5।।
नासाग्रे शशभृद्बिम्बे विन्दुमध्ये तुरीयकम्।
स्त्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्राभ्यां सुसमाहितः।। 6।।
अर्थ-पर्वत के आगे, नदी के किनारे, बिल्व (बेल, श्रीफल) वृक्ष की जड़ में अथवा वन में-सुन्दर और पवित्र स्थान में मठ बनाकर स्थिर हो जावे। आसन आरम्भ करके पूर्व या उत्तर मुख होकर पीछे गला, सिर और शरीर को सीधा करके, मुख बन्द करके अच्छी तरह निश्चल होवे । नाक के आगे चन्द्र-बिम्ब-विन्दु के मध्य में, उस तुरीय और चूते हुए अमृत को अच्छी तरह समाधिस्थ होकर आँखों से देखे।।4-6।।
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मूल-नादाभिव्यक्तिरित्येतच्चिह्नं तत्सिद्धिसूचकम्।। 111/2 ।।
अर्थ-नाद की अभिव्यक्ति अर्थात् प्रकट होना, उसकी (ब्रह्म प्राप्ति की) सिद्धि का सूचक चिह्न है ।।111/2 ।।
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