योगशिखोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद) 

===================================================अध्याय 1
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।। 13।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।। 131/2 ।।
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देहावसानसमये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।। 31।।
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पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्न तु मन्यते।
देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।। 163।।
अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।। 1631/2।।
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विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।। 167।।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।। 1671/2।।
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नादरूपं भ्रुवोर्मध्ये मनसो मण्डलं विदुः।। 178।।
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अध्याय 2
एतत्पीठमिति प्रोक्तं नादलिंगं चिदात्मकम्।
तस्य विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेज्जनः।। 6।।
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आधारशक्तिरव्यक्ता यया विश्वं प्रवर्तते।
सूक्ष्माभा विन्दुरूपेण पीठरूपेण वर्तते।। 12।।
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विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।। 121/2।।
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गुरूपदेशमार्गेण सहसैव प्रकाशते।
स्थूलं सूक्ष्मं परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपुः।। 14।।
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पंचब्रह्ममयं रूपं स्थूलं वैराजमुच्यते।
हिरण्यगर्भं सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम्।। 15।।
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  परं ब्रह्म परं सत्यं सच्चिदानन्दलक्षणम्।
अप्रमेयमनिर्देश्यमवाघ्मनसगोचरम् ।। 16।।
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  शुद्धं सूक्ष्मं निराकारं निर्विकारं निरंजनम्।
अनन्तमपरिच्छेद्यमनूपममनामयम् ।। 17।।
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  आत्ममन्त्रसदाभ्यासात्परतत्त्वं प्रकाशते।
तदभिव्यक्तिचिह्नानि सिद्धिद्वाराणि मे शृणु।। 18।।
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  दीपज्वालेन्दुखद्योतविद्युन्नक्षत्रभास्वराः ।
दृश्यन्ते सूक्ष्मरूपेण सदा युक्तस्य योगिनः।। 19।।
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नास्ति नादात्परो मन्त्रे न देवः स्वात्मनः परः।। 20।।
नानुसंधेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम्।। 201/2।।
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 यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।। 211/2।।
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अध्याय 3
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते---।। 2।।
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अशब्दमस्पर्शमरूपमचक्षुःश्रोत्रनामकम्।। 19।।
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ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमः पारे प्रतिष्ठितम्।। 211/2।।
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अध्याय 5
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।। 4।।
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भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।। 45।।
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नादे मनोलयं ब्रह्मन्दूरश्रवणकारणम्।
विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात्।। 47।।
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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाशिवः।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते।। 56।।
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  दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम्।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत्।। 57।।
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  यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः।। 58।।
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अध्याय 6
एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी।। 5।।
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 इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित्।। 6।।
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अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिषोऽन्तर्गतं मनः---।। 21।।
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केचिद्वदन्ति चाधारं सुषुम्ना च सरस्वती।। 211/2।।
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आधारचक्रमहसा विद्युत्पुंजसमप्रभा।
तदा मुक्तिर्न संदेहो यदि तुष्टः स्वयं गुरुः।। 26।।
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वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यान्तस्ते यान्ति परमां गतिम्।। 34।।
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सुषुम्नायां प्रवेशेन चन्द्रसूर्यौ लयं गतौ।। 36।।
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 सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्ठति।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति।। 38।।
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  सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत्।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत्।। 39।।
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  भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम्।। 40।।
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गंगायां सागरे स्नात्वा नत्वा च मणिकर्णिकाम्।
मध्यनाडीविचारस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। 41।।
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अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
सुषुम्ना ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। 43।।
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सुषुम्नायां सदा गोष्ठीं यः कश्चित्कुरुते नरः।
स मुक्तेः सर्वपापेभ्यो निःश्रेयसमवाप्नुयात्।। 44।।
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सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः।। 45।।
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अनेक यज्ञदानानि व्रतानि नियमास्तथा।
सुषुम्नाध्यानलेशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। 46।। 
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मायाशक्तिर्ललाटाग्रभागे व्योमाम्बुजे तथा।
नादरूपा परा शक्तिर्ललाटस्य तु मध्यमे।। 48।।
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भागे विन्दुमयी शक्तिर्ललाटस्यापरांशके।
विन्दुमध्ये च जीवात्मा सूक्ष्मरूपेण वर्तते।। 49।।
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सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना भवेत्।
निरंजने विलीयेत मरुन्मनसि पद्मज।। 71।।
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कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढम्।
अभ्यासवासनाशक्त्या तरन्ति भवसागरम्।। 79।।
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===================================================अध्याय 1
मूल-योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।। 13।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।। 131/2 ।।

अर्थ-योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है ? उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए ।।13-131/2 ।।
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मूल-देहावसानसमये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।। 31।।

अर्थ-देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है ।।31।।
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मूल-पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्न तु मन्यते।
देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।। 163।।
अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।। 1631/2।।

अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है; जैसे नमक समुद्र में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।।163-1631/2 ।।
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मूल-विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।। 167।।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।। 1671/2।।

अर्थ-विन्दुनाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है।।167।। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।।1671/2 ।।
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मूल----नादरूपं भ्रुवोर्मध्ये मनसो मण्डलं विदुः।। 178।।

अर्थ-नाद-रूप मन का मण्डल भौंओं के बीच में है, यह ज्ञानियों ने कहा है।।178।।
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अध्याय 2
मूल-एतत्पीठमिति प्रोक्तं नादलिंगं चिदात्मकम्।
तस्य विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेज्जनः।। 6।।

अर्थ-यह नादलिंग चिदात्मक पीठ (चैतन्यमय चौकी) कहा गया है, इसके ज्ञानमात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है।।6।।
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मूल-आधारशक्तिरव्यक्ता यया विश्वं प्रवर्तते।
सूक्ष्माभा विन्दुरूपेण पीठरूपेण वर्तते।। 12।।

अर्थ-आधार शक्ति अव्यक्त है, उससे यह विश्व बनता है। वह सूक्ष्म आभावाली विन्दु-रूप पीठ (वेदी वा चौकी) रूप से विद्यमान है।।12।।
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मूल-विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।। 121/2।।

अर्थ-विन्दुपीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है।।121/2 ।।
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मूल-गुरूपदेशमार्गेण सहसैव प्रकाशते।
स्थूलं सूक्ष्मं परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपुः।। 14।।

पंचब्रह्ममयं रूपं स्थूलं वैराजमुच्यते।
हिरण्यगर्भं सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम्।। 15।।

परं ब्रह्म परं सत्यं सच्चिदानन्दलक्षणम्।
अप्रमेयमनिर्देश्यमवाघ्मनसगोचरम् ।। 16।।

शुद्धं सूक्ष्मं निराकारं निर्विकारं निरंजनम्।
अनन्तमपरिच्छेद्यमनूपममनामयम् ।। 17।।

आत्ममन्त्रसदाभ्यासात्परतत्त्वं प्रकाशते।
तदभिव्यक्तिचिह्नानि सिद्धिद्वाराणि मे शृणु।। 18।।

दीपज्वालेन्दुखद्योतविद्युन्नक्षत्रभास्वराः ।
दृश्यन्ते सूक्ष्मरूपेण सदा युक्तस्य योगिनः।। 19।।

अर्थ-(वह नादलिंग) गुरु-उपदेश-मार्ग से शीघ्र प्रकाशित होता है। ब्रह्म के तीन प्रकार के शरीर हैं-स्थूल, सूक्ष्म और पर (अर्थात् कारण) । पंच ब्रह्ममय जो रूप है, वही स्थूल और वैराज कहा जाता है। हिरण्यगर्भ सूक्ष्म है। वही तो नाद है, (जो) त्रयात्मक (मूल प्रकृति) का बीज है। पर जो ब्रह्म का शरीर है, वही सच्चिदानन्द लक्षण-रूप है। वही सत्य है, वही ब्रह्म है। वह (ब्रह्म) अप्रमेय (अचिन्त्यप्रभाव) और अनिर्देश्य (जो शब्दों के द्वारा प्रकाशित न किया जा सके), वाणी तथा मन से अगोचर है। शुद्ध, सूक्ष्म, निराकार, निर्विकार, निरंजन (माया-रहित), अनन्त, अपरिच्छेद्य (असीम = सीमा-रहित), उपमा-रहित और अनामय (रोग-रहित) है। आत्म-मंत्र (आत्मा-ब्रह्म-प्राप्ति की युक्ति का विचार) के अभ्यास से परतत्त्व का प्रकाश होता है। उसके जो प्रकाश-चिह्न हैं, वे ही सिद्धि के द्वार हैं, सुनो। योगयुक्त योगी को सूक्ष्म रूप से दीप, ज्वाला, चन्द्रमा, जुगनू, बिजली, तारा तथा सूर्य देखने में आते हैं।।14-19।।
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मूल-नास्ति नादात्परो मन्त्रे न देवः स्वात्मनः परः।। 20।।
नानुसंधेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम्।। 201/2।।

अर्थ-नाद से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, (नाद वा ब्रह्म की) अनुसन्धि (अन्वेषण वा खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है।।20-201/2।।
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मूल-यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।। 211/2।।

अर्थ-जिसकी देव में अत्यन्त भक्ति है, (उसकी गुरु में भी वैसी ही भक्ति होनी चाहिए), गुरु और देव समान हैं।।211/2।।
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अध्याय 3
मूल-अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते---।। 2।।

अर्थ-अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं---।।2।।
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मूल----अशब्दमस्पर्शमरूपमचक्षुःश्रोत्रनामकम्।। 19।।

अर्थ-वह (ब्रह्म) अशब्द, स्पर्शहीन, रूप-रहित एवं चक्षु, कान और नाम-रहित है।।19।।
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मूल-ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमः पारे प्रतिष्ठितम्।। 211/2।।

अर्थ-(ब्रह्म) ज्योति से भी (बढ़कर) ज्योति है और अन्धकार के पार में विद्यमान है।।211/2।।
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अध्याय 5

मूल-विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।। 4।।

अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।।4।।
*********************
मूल-भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।। 45।।

अर्थ-उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ-गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।।45।।
*********************
मूल-नादे मनोलयं ब्रह्मन्दूरश्रवणकारणम्।
विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात्।। 47।।

अर्थ-नाद में मन को लय करना, दूर सुनने में कारण है (अर्थात् नाद में मन को लय करने से दूर का सुनना हो सकता है)। विन्दु में मन को लय करके दूर-दर्शन प्राप्त करते हैं।।47।।
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मूल-गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाशिवः।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते।। 56।।

दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम्।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत्।। 57।।

यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः।। 58।।

अर्थ-गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है। दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित प्रत्यक्ष परमेश्वर की भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह (शिष्य) ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं; इन दोनों में भेद नहीं है; इस भावना से पूजा करे।।56-58।।
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अध्याय 6

मूल-एकोत्तरं नाडिशतं तासां मध्ये परा स्मृता।
सुषुम्ना तु परे लीना विरजा ब्रह्मरूपिणी।। 5।।

अर्थ-एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उनमें (सुषुम्ना) श्रेष्ठ है। सुषुम्ना पर में विद्यमान है, वह रजस्-रहित (सत्त्व-प्रधान) है, वह ब्रह्मस्वरूपिणी है।।5।।
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मूल-इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित्।। 6।।

अर्थ-इड़ा बाईं ओर रहती है और पिंगला दाहिनी ओर। उन दोनों के बीच में जो स्थान है (सुषुम्ना), उसको जो जानता है, वही वेद जानता है।।6।।
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मूल- अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिषोऽन्तर्गतं मनः---।। 21।।

अर्थ-अनाहत शब्द होता है, उस शब्द से ध्वनि निकलती है, उस ध्वनि में ज्योति विराजती है, उस ज्योति के भीतर मन को लीन किया जाता है।।21।।
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मूल- केचिद्वदन्ति चाधारं सुषुम्ना च सरस्वती।। 211/2।।

अर्थ-कोई-कोई आधार को सुषुम्ना और सरस्वती कहते हैं।।211/2।।
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मूल- आधारचक्रमहसा विद्युत्पुंजसमप्रभा।
तदा मुक्तिर्न संदेहो यदि तुष्टः स्वयं गुरुः।। 26।।

अर्थ-बिजली-पुंज के समान प्रभा (प्रकाश) वाले आधारचक्र के ज्ञान-प्रकाश से मुक्ति हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं, जबकि गुरु प्रसन्न रहें।।26।।
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मूल-वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यान्तस्ते यान्ति परमां गतिम्।। 34।।

अर्थ-(जो) बाएँ और दाहिने को रोककर सुषुम्ना में प्रवेश करते हैं, वे ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।।34।।
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मूल-सुषुम्नायां प्रवेशेन चन्द्रसूर्यौ लयं गतौ।। 36।।

अर्थ-सुषुम्ना में प्रवेश करने से चन्द्र-सूर्य लय होते हैं।।36।।
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मूल-सुषुम्नायां यदा योगी क्षणैकमपि तिष्ठति।
सुषुम्नायां यदा योगी क्षणार्धमपि तिष्ठति।। 38।।

सुषुम्नायां यदा योगी सुलग्नो लवणाम्बुवत्।
सुषुम्नायां यदा योगी लीयते क्षीरनीरवत्।। 39।।

भिद्यते च तदा ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते परमाकाशे ते यान्ति परमां गतिम्।। 40।।

अर्थ-सुषुम्ना में जब योगी एक क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी आधा क्षण भी ठहरता है, सुषुम्ना में जब योगी पानी और नमक के समान मिल जाता है और सुषुम्ना में जब योगी दूध और पानी के समान मिल जाता है, तब (उसकी) ग्रन्थि (गिरह-गाँठ) टूट जाती है, (उसके) सम्पूर्ण संशयों का नाश हो जाता है और वह परमाकाश में विलाकर परम गति को प्राप्त होता है।।38-40।।
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मूल-गंगायां सागरे स्नात्वा नत्वा च मणिकर्णिकाम्।
मध्यनाडीविचारस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। 41।।

अर्थ-गंगासागर में स्नान कर मणिकर्णिका को प्रणाम करना (इसका जो फल होता है, वह) मध्य नाड़ी (सुषुम्ना) के विचार के (फल के) सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं है।।41।।
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मूल-अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
सुषुम्ना ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। 43।।

अर्थ-हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ सुषुम्ना- ध्यान-योग का सोलहवाँ भाग भी नहीं है।।43।।
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मूल-सुषुम्नायां सदा गोष्ठीं यः कश्चित्कुरुते नरः।
स मुक्तेः सर्वपापेभ्यो निःश्रेयसमवाप्नुयात्।। 44।।

अर्थ-जो नर सुषुम्ना में सदा सभा करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर सच्चा कल्याण पाता है।।44।।
*********************
मूल- सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः।। 45।।

अर्थ-सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है, सुषुम्ना ही प्रधान जप है, सुषुम्ना ही प्रधान ध्यान है और सुषुम्ना ही परा (ऊँची) गति है।।45।।
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मूल-अनेक यज्ञदानानि व्रतानि नियमास्तथा।
सुषुम्नाध्यानलेशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। 46।।

अर्थ-अनेक यज्ञ, दान, व्रत और नियम; स्वल्पमात्र सुषुम्ना-ध्यान के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।।46।।
*********************
मूल-मायाशक्तिर्ललाटाग्रभागे व्योमाम्बुजे तथा।
नादरूपा परा शक्तिर्ललाटस्य तु मध्यमे।। 48।।

अर्थ-आकाश-रूपी कमल में और ललाट के अग्रभाग (ऊपर भाग) में माया-शक्ति विराजमान है। ललाट के मध्य भाग में नादरूपा पराशक्ति विराजमान है।।48।।
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मूल-भागे विन्दुमयी शक्तिर्ललाटस्यापरांशके।
विन्दुमध्ये च जीवात्मा सूक्ष्मरूपेण वर्तते।। 49।।

अर्थ-ललाट के दूसरे भाग (नीचे भाग) में विन्दुमयी शक्ति विराजमान है और विन्दु के बीच में जीवात्मा सूक्ष्म रूप से विराजमान है।।49।।
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मूल-सदा नादानुसन्धानात्संक्षीणा वासना भवेत्।
निरंजने विलीयेत मरुन्मनसि पद्मज।। 71।।

अर्थ-नादानुसन्धान (सुरत-शब्दयोग-अभ्यास) सदा करने से वासना का नाश होता है। हे ब्रह्मा ! तब वायु (प्राणवायु) निरंजन मन में लीन हो जाता है।।71।।
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मूल-कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढम्।
अभ्यासवासनाशक्त्या तरन्ति भवसागरम्।। 79।।

अर्थ-गुरु को कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास (करने की) वासना की शक्ति से भवसागर को लोग पार करते हैं।।79।।
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