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अध्याय 3
भारोऽविवेकिनः शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिणः।
अशान्तस्य मनो भारो भारोऽनात्मविदो वपुः।। 15।।
===================================================अध्याय 4
मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः।
शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः।। 2।।
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दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।। 77।।
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भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।। 82।।
===================================================अध्याय 5
शास्त्रसज्जनसंपर्क वैराग्याभ्यासपूर्वकम्।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा।। 28।।
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भोगेच्छामात्रको बन्धस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते।। 961/2 ।।
===================================================अध्याय 6
सर्वं त्यक्त्वा मनः पीत्वा योऽसि सोऽसि स्थिरो भव।। 5।।
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अध्याय 3
मूल-भारोऽविवेकिनः शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिणः।
अशान्तस्य मनो भारो भारोऽनात्मविदो वपुः।। 15।।
अर्थ-अविवेकी के लिए शास्त्र भार है, रागी के लिए ज्ञान भार है, अशान्त मनुष्य के लिए मन भार है और जो आत्मज्ञानी नहीं है, उसको शरीर भार है।।15।।
===================================================अध्याय 4
मूल-मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः।
शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः।। 2।।
अर्थ-मोक्ष के द्वार पर चार द्वारपाल रहते हैं- शम, विचार, सन्तोष और साधुसंग।।2।।
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मूल-दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।। 77।।
अर्थ-सद्गुरु की दया के बिना विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्व-दर्शन दुर्लभ है और सहजावस्था दुर्लभ है।।77।।
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मूल-भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।। 82।।
अर्थ-परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।।82।।
===================================================अध्याय 5
मूल-शास्त्रसज्जनसंपर्क वैराग्याभ्यासपूर्वकम्।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा।। 28।।
अर्थ-शास्त्र एवं सज्जन-संसर्ग, वैराग्य और अभ्यासपूर्वक सदाचार की ओर प्रवृत्ति करने को विचारना कहते हैं।।28।।
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मूल-भोगेच्छामात्रको बन्धस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते।। 961/2 ।।
अर्थ-भोग की इच्छा रखना बन्ध और उसका त्याग मोक्ष कहलाता है।।961/2 ।।
===================================================अध्याय 6
मूल-सर्वं त्यक्त्वा मनः पीत्वा योऽसि सोऽसि स्थिरो भव।। 5।।
अर्थ-सब कुछ छोड़कर, मन को पीकर, जो तुम हो, वही हो, उसी पर स्थिर हो जाओ।।5।।
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