योगतत्त्वोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद) 

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नानामार्गैस्तु दुष्प्रापं कैवल्यं परमं पदम्।
पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः।। 6।।
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अनिर्वाच्यं पदं वक्तुं न शक्यं तैः सुरैरपि।
स्वात्मप्रकाशरूपं तत्किं शास्त्रेण प्रकाश्यते।। 7।।
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 योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम्।। 14।।
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योगो हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।। 15।।
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प्रातःस्नानोपवासादिकायक्लेशांश्च वर्जयेत्।। 471/2।।
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न दर्शयेत्स्वसामर्थ्यं यस्यकस्यापि योगिराट् ।। 76।।
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 सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।। 105।।
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मूल-नानामार्गैस्तु दुष्प्रापं कैवल्यं परमं पदम्।
पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः।। 6।।

अर्थ-कैवल्य परम पद, नाना मार्गों से दुष्प्राप्य है। नाना शास्त्रें के जाल में पड़े लोग उनकी (शास्त्रें की) बुद्धि से मोहित हो रहे हैं।।6।।
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मूल-अनिर्वाच्यं पदं वक्तुं न शक्यं तैः सुरैरपि।
स्वात्मप्रकाशरूपं तत्किं शास्त्रेण प्रकाश्यते।। 7।।

अर्थ-वह अनिर्वचनीय (अवर्णनीय) पद ऐसा है कि देवता भी उसके संबंध में नहीं कह सकते हैं। वह स्वयंप्रकाश-स्वरूप क्या शास्त्र-द्वारा प्रकाशित हो सकता है ? (अर्थात् वह पद शास्त्र-द्वारा प्रकाशित नहीं हो सकता है) ।।7।।
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मूल-योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम्।। 14।।

अर्थ-योगहीन ज्ञान कैसे मोक्षप्रद हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सकता है।) यह निश्चित है।।14।।
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मूल-योगो हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।। 15।।

अर्थ-ज्ञानहीन योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। अतः मुमुक्षु को चाहिए कि दृढ़ता के साथ ज्ञान और योग दोनों का अभ्यास करे।।15।।
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मूल-प्रातःस्नानोपवासादिकायक्लेशांश्च वर्जयेत्।। 471/2।।

अर्थ-प्रातःस्नान, उपवास आदि शारीरिक क्लेशों को छोड़ दे।।471/2।।
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मूल-न दर्शयेत्स्वसामर्थ्यं यस्यकस्यापि योगिराट् ।। 76।।

अर्थ-योगिराट (श्रेष्ठ योगी) को चाहिए कि जिसी किसी को अपनी सामर्थ्य (सिद्धि-शक्ति) न दिखलावे।।76।।
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मूल-सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।। 105।।

अर्थ-सगुण का ध्यान अणिमा आदि गुणों को देनेवाला है। निर्गुण ध्यान से युक्त को समाधि होती है।।105।।
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