===================================================अध्याय 2
मूल-मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः।
सूतकद्वयसंप्राप्तौ कथं संध्यामुपास्महे।। 13।।
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मूल-हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति।
नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे।। 14।।
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मूल-एकमेवाद्वितीयं यद्गुरोर्वाक्येन निश्चितम्।
एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम्।। 15।।
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मूल-असंशयवतां मुक्तिः संशयाविष्ट चेतसाम्।
न मुक्तिर्जन्मजन्मान्ते तस्माद्विश्वासमाप्नुयात्।। 16।।
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मूल-कर्मत्यागान्न संन्यासो न प्रेषोच्चारणेन तु।
संधौ जीवात्मनोरैक्यं संन्यासः परिकीर्तितः।। 17।।
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मूल-वमनाहारवद्यस्य भाति सर्वेषणादिषु।
तस्याधिकारः संन्यासे त्यक्तदेहाभिमानिनः।। 18।।
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मूल-यदा मनसि वैराग्यं जातं सर्वेषु वस्तुषु।
तदैव संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत्।। 19।।
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मूल-द्रव्यार्थमन्नवस्त्रर्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा।
संन्यसेदुभयभ्रष्टः स मुक्तिं नाप्तुमर्हति।। 20।।
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मूल-उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम्।
अधमा मंत्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा।। 21।।
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मूल-पाषाणलोहमणिमृण्मयविग्रहेषु पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षोः।
तस्माद्यतिः स्वहृदयार्चनमेव कुर्याद्बाह्यार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय।। 26।।
===================================================अध्याय 3
द्वैताद्वैतविहीनोऽस्मि---।। 4।।
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भावाभावविहीनोऽस्मि ---।। 5।।
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देहादिरहितोऽस्म्यहम्।। 8।।
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चित्तादिसर्वहीनोऽस्मि परमोऽस्मि परात्परः ---।। 10।।
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सर्वतीर्थस्वरूपोऽस्मि ---।। 12।।
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अन्तरादन्तरोऽस्म्यहम्।। 18।।
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देशकालविमुक्तोऽस्मि ---।। 19।।
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सत्यासत्यादिहीनोऽस्मि ---। गन्तव्यदेशहीनोऽस्मि गमनादिविवर्जितः।। 23।।
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===================================================अध्याय 2
मूल-मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः।
सूतकद्वयसंप्राप्तौ कथं संध्यामुपास्महे।। 13।।
अर्थ-मोहमयी माता मर गई, बोधमय पुत्र का जन्म हुआ। इन दो सूतकों के हो जाने पर अब संध्या कैसे करूँ ? ।।13।।
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मूल-हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति।
नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे।। 14।।
अर्थ-हृदय-आकाश में चैतन्य-रूप सूर्य बराबर उगा रहता है, न कभी अस्त होता है और न कभी उदय लेता है; संध्या कैसे करूँ ? ।।14।।
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मूल-एकमेवाद्वितीयं यद्गुरोर्वाक्येन निश्चितम्।
एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम्।। 15।।
अर्थ-एक ही अद्वितीय ब्रह्म है, दूसरा कुछ नहीं, जब ऐसा ज्ञान गुरु से प्राप्त हो गया, तब यही एकान्त स्थान है, मठ और वन नहीं।।15।।
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मूल-असंशयवतां मुक्तिः संशयाविष्ट चेतसाम्।
न मुक्तिर्जन्मजन्मान्ते तस्माद्विश्वासमाप्नुयात्।। 16।।
अर्थ- असंशयवालों को ही मुक्ति मिलती है, संशयवालों को कई जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त होती, अतः विश्वास प्राप्त करना चाहिए।।16।।
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मूल-कर्मत्यागान्न संन्यासो न प्रेषोच्चारणेन तु।
संधौ जीवात्मनोरैक्यं संन्यासः परिकीर्तितः।। 17।।
अर्थ-कर्म का त्याग संन्यास (त्याग) नहीं कहलाता है और न संन्यास के दीक्षा-मंत्र के उच्चारण से ही (त्याग होता है)। संध्याओं में जीव (आत्मा) और (परम) आत्मा की एकता होनी असली संन्यास कहलाता है।।17।।
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मूल-वमनाहारवद्यस्य भाति सर्वेषणादिषु।
तस्याधिकारः संन्यासे त्यक्तदेहाभिमानिनः।। 18।।
अर्थ-सब प्रकार की कामना को वमन के समान जो विचारता है और जिसने देहाभिमान छोड़ दिया है, उसी का संन्यास में अधिकार है।।18।।
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मूल-यदा मनसि वैराग्यं जातं सर्वेषु वस्तुषु।
तदैव संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत्।। 19।।
अर्थ-सब विषयों से मन में जभी वैराग्य उत्पन्न हो, उसी समय विद्वान संन्यास धारण करे। प्रकारान्तर से (संन्यास ग्रहण करने पर) उसका पतन हो जाएगा।।19।।
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मूल-द्रव्यार्थमन्नवस्त्रर्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा।
संन्यसेदुभयभ्रष्टः स मुक्तिं नाप्तुमर्हति।। 20।।
अर्थ-जो द्रव्य के लिए, अन्न-वस्त्र के लिए या प्र्रतिष्ठा के लिए संन्यास करे, तो वह उभय (संसार और परमार्थ से) भ्रष्ट होकर मुक्ति नहीं पा सकता है।।20।।
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मूल-उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम्।
अधमा मंत्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा।। 21।।
अर्थ-तत्त्व (सार वस्तु) की चिन्ता (ध्यान) उत्तम है। शास्त्र-चिन्ता मध्यम है। मन्त्र-चिन्तन (मंत्र-जप) अधम है और तीर्थ-भ्रमण अधमाधम है।।21।।
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मूल-पाषाणलोहमणिमृण्मयविग्रहेषु पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षोः।
तस्माद्यतिः स्वहृदयार्चनमेव कुर्याद्बाह्यार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय।। 26।।
अर्थ-पत्थर, लोहा, मणि और मिट्टी की मूर्ति की पूजा करने से मोक्षार्थी को पुनः भोग-जन्म आदि प्राप्त होते हैं, अतः यति को चाहिए कि अपने हृदय का पूजन करे (अर्थात् अपने अन्तर में ही पूजन करे; सारांश अन्तर्मार्गी बने)। पुनर्जन्म आदि के लिए बाहरी पूजन न करे।।26।।
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अध्याय 3
मूल-द्वैताद्वैतविहीनोऽस्मि---।। 4।।
अर्थ-मैं द्वैत-अद्वैत से रहित हूँ।।4।।
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मूल----भावाभावविहीनोऽस्मि ---।। 5।।
अर्थ-मैं भाव-अभाव से रहित हूँ।।5।।
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मूल----देहादिरहितोऽस्म्यहम्।। 8।।
अर्थ-मैं देहादि से रहित हूँ।।8।।
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मूल----चित्तादिसर्वहीनोऽस्मि परमोऽस्मि परात्परः ---।। 10।।
अर्थ-मैं चित्तादि से रहित हूँ, पर से भी परम परे हूँ।।10।।
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मूल----सर्वतीर्थस्वरूपोऽस्मि ---।। 12।।
अर्थ-मैं सर्वतीर्थ स्वरूप हूँ।।12।।
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मूल----अन्तरादन्तरोऽस्म्यहम्।। 18।।
अर्थ-मैं अन्तर से भी अन्तर हूँ।।18।।
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मूल----देशकालविमुक्तोऽस्मि ---।। 19।।
अर्थ-मैं देश (स्थान), काल (समय) से विमुक्त (विशेष कर छूटा हुआ) हूँ।।19।।
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मूल-सत्यासत्यादिहीनोऽस्मि ---। गन्तव्यदेशहीनोऽस्मि गमनादिविवर्जितः।। 23।।
अर्थ-मैं सत्य और असत्यादि से हीन हूँ। मुझे चलने के लिए स्थान नहीं है। मुझे चलना इत्यादि नहीं है।।23।।
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