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अध्याय 1
उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः।। 7।।
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अध्याय 1
मूल-उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः।। 7।।
अर्थ-(उद्गीथ) उद्गीत (अर्थात् ॐ) परम ब्रह्म है। उसमें तीन सुप्रतिष्ठित अक्षर (अ, उ, म्) हैं। ब्रह्मज्ञानी लोग भीतरी हालत (रहस्य=गुप्त भेद) जानकर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। (अर्थात् ॐ = उद्गीत में लीन हो जाते हैं) ।।7।।
[टिप्पणी-छान्दोग्योपनिषद् के एक सुप्रतिष्ठित टीकाकार रायबहादुर बाबू जालिम सिंह, निवासी ग्राम अकबरपुर, जिला फैजाबाद ने लिखा है- ‘सृष्टि रचने के पहले सृष्टि-उत्पत्ति-निमित्त जब ईश्वर में इच्छा उठती है, तब एक बड़ा घोर शब्द (ध्वन्यात्मक) अर्थ-रहित गूँज के साथ निकलता है, उस शब्द को सुनकर जो जीवन्मुक्त ऋषि होते हैं, वे ॐ-अ, उ, म् में आरोप कर लेते हैं।’ सन् 1917 ई0 में मुद्रित (नवल किशोर प्रेस, लखनऊ), भाषा-टीका-सहित छान्दोग्योपनिषद् देखिए।]
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