मण्डलब्राह्मणोपनिषद् (शुक्ल यजुर्वेद) 


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ब्राह्मणं 1

मूल- ----निद्राभयसरीसृपं हिंसादितरंग तृष्णावर्तं दारपंकं संसारवार्धितर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादिगुणा- नतिक्रम्य तारकमवलोकयेत्। भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजः कूटरूपं तारकं ब्रह्म----।। 2।।

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ब्राह्मणं 2

मूल-----तन्मध्येजगल्लीनम्। तन्नादविन्दुकलातीतमखण्ड-मण्डलम्। तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम्। तद्वेत्ता विमुक्तः। आदावग्नि- मण्डलम्। तदुपरि सूर्यमण्डलम्। तन्मध्ये सुधाचन्द्रमण्डलम्। तन्मध्ये- ऽखण्डब्रह्मतेजोमण्डलम्। तद्विद्युल्लेखावच्छुक्लभास्वरम्। तदेव शाम्भवीलक्षणम्। तद्दर्शने तिस्त्रो मूर्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति। निमीलितदर्शनममादृष्टिः। अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्। सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति। ---तल्लक्ष्यं नासाग्रम्---। तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम्। ततोवायु स्थैर्यम्। तच्चिह्नानि आदौ तारकवद्दृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत उपरिपूर्णचन्द्रमण्डलम्। ततो नवरत्नप्रभा- मण्डलम्। ततो मध्याह्नार्कमण्डलम्। ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमाद्दृश्यते।। 1।। तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिकधू म्रविन्दुनादकलानक्षत्रखद्योत-दीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते। तदेव प्रणवस्वरूपम्।। 2।।
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पंचावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः---।। 4।।
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सर्व परिपूर्ण तुरीयातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति।। 5।।
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ब्राह्मणं 4

आकाशं पराकाशं महाकाशं सूर्याकाशं परमाकाशमिति पंच भवन्ति। बाह्याभ्यन्तरमन्धकारमयमाकाशम्। सबाह्यस्याभ्यन्तरे कालानलसदृशं पराकाशम्। सबाह्याभ्यन्तरेऽपरिमितद्युतिनिभं तत्त्वं महाकाशम्। सबाह्याभ्यन्तरे सूर्यनिभं सूर्याकाशम्। अनिर्वचनीयज्योतिः सर्वव्यापकं निरतिशयानन्दलक्षणं परमाकाशम्।। 1।।
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ब्राह्मणं 5

अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।।
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ब्राह्मणं 1

मूल- ----निद्राभयसरीसृपं हिंसादितरंग तृष्णावर्तं दारपंकं संसारवार्धितर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादिगुणा- नतिक्रम्य तारकमवलोकयेत्। भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजः कूटरूपं तारकं ब्रह्म----।। 2।।

अर्थ-निद्रा, भय आदि जहाँ जीव-जन्तु हैं, हिंसा आदि तरंगवाले, तृष्णा-रूपी भँवरवाले, स्त्री-रूपी पंकवाले, संसार-रूपी समुद्र को तरने के लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलम्बन करके, सत्त्वादि गुणों को पार करके, दोनों भौंओं के बीच में सत्-चित्-आनन्द-तेजपुंज तारक-ब्रह्म का अवलोकन करें।।2।।
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ब्राह्मणं 2

मूल-----तन्मध्येजगल्लीनम्। तन्नादविन्दुकलातीतमखण्ड-मण्डलम्। तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम्। तद्वेत्ता विमुक्तः। आदावग्नि- मण्डलम्। तदुपरि सूर्यमण्डलम्। तन्मध्ये सुधाचन्द्रमण्डलम्। तन्मध्ये- ऽखण्डब्रह्मतेजोमण्डलम्। तद्विद्युल्लेखावच्छुक्लभास्वरम्। तदेव शाम्भवीलक्षणम्। तद्दर्शने तिस्त्रो मूर्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति। निमीलितदर्शनममादृष्टिः। अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्। सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति। ---तल्लक्ष्यं नासाग्रम्---। तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम्। ततोवायु स्थैर्यम्। तच्चिह्नानि आदौ तारकवद्दृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत उपरिपूर्णचन्द्रमण्डलम्। ततो नवरत्नप्रभा- मण्डलम्। ततो मध्याह्नार्कमण्डलम्। ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमाद्दृश्यते।। 1।। तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिकधू म्रविन्दुनादकलानक्षत्रखद्योत-दीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते। तदेव प्रणवस्वरूपम्।। 2।।

अर्थ-उस (ब्रह्म) के अन्दर संसार लीन (डूबा हुआ) है। वह (ब्रह्म) नाद, विन्दु और कला के परे, सगुण, निर्गुण तथा अखण्डमण्डल-स्वरूप है; इसका जाननेवाला विमुक्त होता है।
पहले अग्निमण्डल है, इसके ऊपर सूर्यमण्डल है, उसके बीच में सुधामय चन्द्रमण्डल है और उसके मध्य में अखण्ड ब्रह्मतेजमण्डल है, वह शुक्ल बिजली की धार के समान चमकीला है। केवल यही शाम्भवी का लक्षण है। उसे देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती हैं; अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बन्द कर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए।
उसके अभ्यास से मन की स्थिरता आती है। इससे वायु स्थिर होता है। उसके ये चिह्न हैं-आरम्भ में तारा-सा दीखता है। तब हीरा के ऐना की तरह दीखता है। उसके बाद पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखलाई देता है। उसके बाद नौ रत्नों का प्रभामण्डल दिखाई देता है। उसके बाद दोपहर का सूर्यमण्डल दिखाई देता है। उसके बाद अग्निशिखामण्डल दिखाई देता है। ये सब क्रम से दिखाई देते हैं।।1।। तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है। स्फटिक, धूम्र (धुआँ), विन्दु, नाद, कला, तारा, जुगनू, दीपक, नेत्र, सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है। केवल यही प्रणव का स्वरूप है---।।2।।
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 मूल-पंचावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः---।। 4।।

अर्थ-जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत; ये पाँच अवस्थाएँ हैं।।4।।
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 मूल-सर्व परिपूर्ण तुरीयातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति।। 5।।

अर्थ-पूर्ण योगी तुरीयातीत अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।।5।।
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ब्राह्मणं 4

आकाशं पराकाशं महाकाशं सूर्याकाशं परमाकाशमिति पंच भवन्ति। बाह्याभ्यन्तरमन्धकारमयमाकाशम्। सबाह्यस्याभ्यन्तरे कालानलसदृशं पराकाशम्। सबाह्याभ्यन्तरेऽपरिमितद्युतिनिभं तत्त्वं महाकाशम्। सबाह्याभ्यन्तरे सूर्यनिभं सूर्याकाशम्। अनिर्वचनीयज्योतिः सर्वव्यापकं निरतिशयानन्दलक्षणं परमाकाशम्।। 1।।

अर्थ-पाँच आकाश हैं-आकाश, पराकाश, महाकाश, सूर्याकाश और परमाकाश। बाहर और अन्दर जो अन्धकारमय हो, वह आकाश है। बाहर और अन्दर जो कालाग्नि के समान हो, उसे पराकाश कहते हैं। बाहर और अन्दर अपरिमित तेज के समान तत्त्व को महाकाश कहते हैं। अन्दर और बाहर सूर्य के समान चमक जिसमें है, उसे सूर्याकाश कहते हैं। अकथनीय सर्वव्यापक सर्वोत्तम आनन्दज्योति को परमाकाश कहते हैं।।1।।
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ब्राह्मणं 5
अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।।
अर्थ- अनाहत शब्द का जो शब्द है, उसकी जो ध्वनि है, उस ध्वनि के अन्दर ज्योति (चेतन) है और ज्योति के अन्दर मन (लय को प्राप्त होता) है।
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