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अध्याय 2
दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।। 76।।
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इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः।
मारुतस्य लयो नाथस्तन्नाथं लयमाश्रय।। 80।।
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पुंखानुपुंखविषयेक्षण तत्परोऽपि ब्रह्मावलोकनधियं न जहाति योगी।
संगीतताललयवाद्यवशं गतापि मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणधीर्नटीव।। 82।।
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सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा।
नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता।। 83।।
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अध्याय 4
शुकश्च वामदेवश्च द्वे सृती देवनिर्मिते।
शुको विहंगमः प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका।। 36।।
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अध्याय 5
पंचभूतात्मको देहः पंचमण्डलपूरितः---।। 1।।
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अध्याय 2
मूल-दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।। 76।।
अर्थ-बिना सद्गुरु की कृपा के विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्व (ब्रह्मतत्त्व)- दर्शन दुर्लभ है और सहज समाधि की अवस्था भी दुर्लभ है।।76।।
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मूल- इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुतः।
मारुतस्य लयो नाथस्तन्नाथं लयमाश्रय।। 80।।
अर्थ-इन्द्रियों का नाथ मन है, मन का वायु है और वायु का नाथ लय है; इसलिए लय का अवलम्बन करना चाहिए (अर्थात् लययोग का अभ्यास करना चाहिए) ।।80।।
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पुंखानुपुंखविषयेक्षण तत्परोऽपि ब्रह्मावलोकनधियं न जहाति योगी।
संगीतताललयवाद्यवशं गतापि मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणधीर्नटीव।। 82।।
जो योगी सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को देखने में समर्थ है, उसकी बुद्धि ब्रह्म के देखने से कभी विचलित नहीं होती है, वैसे ही, जैसे कि कोई नटी सिर पर घड़ा रखकर हर तरह से नाचती, गाती और बजाती है; पर घड़ा उसके सिर से नहीं गिरता।।82।।
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सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा।
नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता।। 83।।
योग-साम्राज्य की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए।।83।।
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अध्याय 4
मूल-शुकश्च वामदेवश्च द्वे सृती देवनिर्मिते।
शुको विहंगमः प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका।। 36।।
अर्थ-देवताओं ने शुक और वामदेव नामक दो मार्गों को बनाया है। शुक-मार्ग विहंगम-मार्ग के नाम से विख्यात है और वामदेव-मार्ग पिपीलिका-मार्ग के नाम से ।।36।।
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लययोग = विहंगम-मार्ग = शुक (मुनि) का मार्ग।
हठयोग = पिपीलिका-मार्ग = वामदेव (मुनि) का मार्ग।
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अध्याय 5
मूल- ---पंचभूतात्मको देहः पंचमण्डलपूरितः---।। 1।। ]
अर्थ-यह शरीर पंचभूतों से बना हुआ है और इसमें पाँच मंडल हैं।।1।।
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