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अध्याय 1
मूल-विद्वान्समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये शशभृद्बिम्बं पश्यन्नेत्रभ्याममृतं पिबेत्।। 16।।
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यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्।। 23।।
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द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। 32।।
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भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। 33।।
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चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने।
अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। 35।।
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तारसंयमात्सकलविषयज्ञानं भवति।
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कायाकाशसंयमादाकाशगमनम्।
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अध्याय 2
अथ ह शाण्डिल्यो ह वै ब्रह्मऋषिश्चतुर्षुवेदेषु ब्रह्मविद्यामलभमानः किं नामेत्यथर्वाणं भगवन्तमुपसन्नः पद्मच्छाधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां येन श्रेयोऽवाप्स्यामीति। स होवाचाऽथर्वा शाण्डिल्य सत्यं विज्ञानमनन्तं ब्रह्म यस्मिन्निदमोतं च प्रोतं च। यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वं यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। तदपाणिपादमचक्षुः श्रोत्रमजिह्वमशरीरमग्राह्यमनिर्देश्यम्। यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह।
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अध्याय 1
मूल-विद्वान्समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये शशभृद्बिम्बं पश्यन्नेत्रभ्याममृतं पिबेत्।। 16।।
अर्थ-विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए, भ्रुवों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रें से अमृत का पान करें।।16।।
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मूल-यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्।। 23।।
अर्थ-जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम (अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।।23।।
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मूल-द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। 32।।
अर्थ-जब ज्ञानदृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।।32।।
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मूल-भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। 33।।
अर्थ-जब चेतन अथवा सुरत भौंओं के बीच के तारक-लोक (तारा-मंडल) में पहुँचकर स्थिर होती है, तो प्राण की गति बन्द हो जाती है।।33।।
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मूल-चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने।
अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। 35।।
अर्थ-हृदयाकाश में संकल्प-विकल्प और वासनाहीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रुक जाती है।।35।।
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मूल-तारसंयमात्सकलविषयज्ञानं भवति।
अर्थ-तारा (प्रणव-विन्दु) में संयम करने से सब विषयों का ज्ञान होता है। (संयम की पूर्णता समाधि में है।)
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मूल-कायाकाशसंयमादाकाशगमनम्।
अर्थ-शरीर के आकाश में संयम करने पर आकाश में गमन होता है।
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अध्याय 2
मूल-अथ ह शाण्डिल्यो ह वै ब्रह्मऋषिश्चतुर्षुवेदेषु ब्रह्मविद्यामलभमानः किं नामेत्यथर्वाणं भगवन्तमुपसन्नः पद्मच्छाधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां येन श्रेयोऽवाप्स्यामीति। स होवाचाऽथर्वा शाण्डिल्य सत्यं विज्ञानमनन्तं ब्रह्म यस्मिन्निदमोतं च प्रोतं च। यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वं यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। तदपाणिपादमचक्षुः श्रोत्रमजिह्वमशरीरमग्राह्यमनिर्देश्यम्। यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह।
अर्थ-चारो वेदों में-से ब्रह्म-विद्या नहीं प्राप्त कर ब्रह्म-ऋषि शाण्डिल्य ने भगवान अथर्वण ऋषि के पास जाकर कहा-‘हे भगवन् ! ब्रह्मविद्या का मुझे उपदेश कीजिए, जिससे मेरा कल्याण हो।’ अथर्वण ऋषि ने कहा-‘हे शाण्डिल्य ! ब्रह्म सत्य, विज्ञान और अनन्त है, जिसमें यह संसार ओतप्रोत है। (ओत=बुना हुआ। प्रोत=गुँथा हुआ) जिसमें यह सारा ब्रह्माण्ड (विश्व) स्थिर है और जिसको जान लेने से इस संसार का भी सार जाना जाता है। वह ब्रह्म बिना हाथ, पैर, नेत्र, कान, जिह्वा तथा शरीर का है। जो ग्रहण करने योग्य तथा वर्णन करने (वा देखने) योग्य नहीं है, वाक्य और मन जहाँ से लौट आते हैं; क्योंकि इनको (अर्थात् मन-वाणी को) वह अप्राप्य (नहीं प्राप्त होने योग्य) है।’
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